कई विपक्षी पार्टियां संसद के उद्घाटन कार्यक्रम का बहिष्कार कर रही हैं। इसका कारण समझना मुश्किल है। कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने सबसे पहले यह सवाल उठाया कि प्रधानमंत्री को नहीं, बल्कि राष्ट्रपति को संसद भवन का उद्घाटन करना चाहिए। आखिर भारतीय संविधान के मुताबिक राष्ट्रपति, राज्यसभा और लोकसभा को मिला कर भारतीय संसद बनती है। इसलिए मुख्यरूप से राष्ट्रपति, उप राष्ट्रपति जो उच्च सदन के सभापति भी होते हैं और लोकसभा स्पीकर की भूमिका संसद में अहम है। उसके बाद दोनों सदनों के नेता आते हैं। इस लिहाज से आदर्श स्थिति यह होती कि राष्ट्रपति संसद भवन का उद्घाटन करतीं। लेकिन अगर वे नहीं कर रही हैं तो इस पर सवाल उठाना और केंद्र सरकार को दलित व आदिवासी विरोधी ठहराना एक बात और इस नाम पर संसद भवन के उद्घाटन का बहिष्कार करना अलग बात है।
तृणमूल कांग्रेस, आम आदमी पार्टी, सीपीएम, सीपीआई जैसी पार्टियों को समझना चाहिए वे संसद की कार्यवाही का बहिष्कार नहीं कर रहे हैं या किसी विधेयक पर वाकआउट नहीं कर रहे हैं। वे एक ऐतिहासिक मौके का बहिष्कार कर रहे हैं। संसद की नई इमारत की भले जरूरत न रही हो लेकिन अगर इमारत बनी है और आगे कार्यवाही उस इमारत में होगी तो उसके उद्घाटन का बहिष्कार कोई अच्छी रणनीति नहीं है। जो पार्टियां उद्घाटन में नहीं जाएंगी क्या वे आगे संसद की कार्यवाही में हिस्सा लेंगी या उसका भी बहिष्कार करेंगी? क्या कोई पार्टी यह कह सकती है कि वह इस संसद की कार्यवाही नहीं जाएगी और जब भी उसकी सत्ता आएगी तो वह इस संसद भवन को बंद करा कर पुरानी संसद में कार्यवाही चलाएगी? यह भी ध्यान रखने की जरूरत है कि वह संसद की इमारत है, भाजपा का कार्यालय नहीं है। वह जनता के पैसे से बना है, भाजपा को मिले चंदे से नहीं। इसलिए विपक्षी पार्टियां चाहे जितना भी विरोध करें उनके इसके उद्घाटन में जरूर जाना चाहिए।