ऐसा लग रहा है कि समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव उत्तर प्रदेश के राजनीतिक खतरे को नहीं समझ रहे हैं और अगर सtमझ रहे हैं तो वे भी बसपा प्रमुख मायावती की तरह किसी अराजनीतिक कारण से उस खतरे का मुकाबला करने से कतरा रहे हैं। उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में उनको लगभग पूरा मुस्लिम वोट मिला था। असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी एमआईएम को सिर्फ 0.49 फीसदी वोट मिला। लेकिन हाल में हुए नगर निकाय चुनाव में ओवैसी की पार्टी ने कमाल का प्रदर्शन किया। अलग अलग निकायों में एमआईएम के 75 पार्षद जीते। सबसे कमाल का चुनाव मेरठ में मेयर का हुआ, जहां ओवैसी का उम्मीदवार एक लाख 28 हजार वोट लेकर दूसरे स्थान पर रहा। सपा ने सरधना के विधायक अतुल प्रधान की पत्नी सीमा प्रधान को उतारा था, पर वे 13 हजार वोट के अंतर से तीसरे स्थान पर रहीं। संभल में ओवैसी की उम्मीदवार 22 हजार वोट से जीती और सपा की उम्मीदवार पांचवें स्थान पर रही। पांच नगरपालिका परिषद में अध्यक्ष का चुनाव एमआईएम जीती है।
एक तरफ मुस्लिम वोटों में ओवैसी की ऐसी सेंधमारी है और दूसरी ओर अखिलेश यादव विपक्ष के साथ एकता दिखाने का मौका मिस कर रहे हैं। वे बेंगलुरू में सिद्धरमैया और शिवकुमार की शपथ में शामिल नहीं हुए। उनकी पार्टी ने कहा है उनका पहले से कार्यक्रम तय था। सोचें, स्टालिन से लेकर नीतीश कुमार और शरद पवार से लेकर हेमंत सोरेन तक सारे मुख्यमंत्री और बड़े नेता खाली बैठे थे, जो शपथ में चले गए और अखिलेश यादव इन सबसे बिजी आदमी हैं, जो बुलावे के बावजूद नहीं गए। उनको समझना होगा कि अगर वे उत्तर प्रदेश में बड़ा गठबंधन बना कर यह मैसेज नहीं बनवा पाते हैं कि उनके नेतृत्व वाला गठबंधन भाजपा को चुनौती दे सकता है तो तय मानें कि मुस्लिम वोट टूट कर ओवैसी के साथ जाएगा। बिहार विधानसभा में ओवैसी के पांच विधायक जीते थे। इनमें से चार को तोड़ कर राजद ने अपने साथ लिया और राजद, जदयू, कांग्रेस सब मिल कर यह मैसेज दे रहे हैं कि भाजपा से असल में वे लड़ रहे हैं। इसका मकसद नौजवानों को ओवैसी के साथ जाने से रोकना भी है। अखिलेश को भी उत्तर प्रदेश में ऐसा प्रयास करना होगा।