कांग्रेस पार्टी के ऊपर क्षेत्रीय पार्टियों की ओर से समझौते का दबाव है। कई राज्यों में सहयोगी पार्टियां चाहती हैं कि कांग्रेस कम सीटों पर समझौता करेगा। कांग्रेस और क्षेत्रीय पार्टियों के बीच कई जगह ऐसा समझौता था कि विधानसभा चुनाव में प्रादेशिक पार्टी ज्यादा सीटों पर लड़ती थी और लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को ज्यादा सीट मिलती थी। झारखंड इसकी मिसाल है। लेकिन अब पार्टियां लोकसभा चुनाव में भी कांग्रेस से ज्यादा सीट लड़ना चाहती हैं। तमिलनाडु और बिहार की तरह झारखंड में भी झारखंड मुक्ति मोर्चा भी लोकसभा और विधानसभा दोनों चुनाव में ज्यादा सीट चाहती है। महाराष्ट्र में एनसीपी भी चाहती है कि वह ज्यादा सीटों पर लड़े। कुछ अन्य राज्यों में संभावित सहयोगी चाहते हैं कि कांग्रेस एक-दो सीट लेकर ही समझौता करे।
अपनी बात मनवाने के लिए क्षेत्रीय पार्टियों के नेता और उनके समर्थक पिछले दो चुनावों की मिसाल देकर पूछ रहे हैं कि कांग्रेस बताए कि उसने अपने दम पर कितनी सीटें जीती हैं। कांग्रेस को जो 52 सीटें मिली हैं उसमें से ज्यादातर सहयोगियों के कारण मिली हैं। तमिलनाडु में कांग्रेस को आठ सीट मिली है। अगर वह अकेले सभी 39 सीटों पर लड़ती तो एक भी सीट नहीं मिल पाती। इसी तरह केरल में उसे 15 सीटें यूडीएफ की पार्टियों के समर्थन से मिली है। उत्तर प्रदेश में वह अकेले लड़ी तो दो से घट कर एक सीट पर आ गई। बिहार में भी एक सीट सहयोगी पार्टी की वजह से मिली। कांग्रेस जहां भी अकेले लड़ी वहां उसका प्रदर्शन बहुत खराब हुआ। इसलिए सहयोगी चाहते हैं कि कांग्रेस कम सीट लेकर समझौता करे और प्रादेशिक पार्टियों को ज्यादा सीट लड़ने दे, इससे गठबंधन की सीट भी बढ़ेगी और कांग्रेस की भी।