ऐसा लग रहा है कि भाजपा का मौजूदा शीर्ष नेतृत्व चाह कर भी अटल बिहारी वाजपेयी के जमाने के प्रादेशिक क्षत्रपों को किनारे नहीं कर पा रहा है। वैसे राज्यों में, जहां भाजपा का पुराना आधार है और जहां नरेंद्र मोदी, अमित शाह के उभार से पहले भाजपा अपने दम पर सरकार में आ चुकी थी उन राज्यों में भाजपा के पुराने क्षत्रप आज भी प्रभावी हैं और प्रासंगिक हैं। हालांकि कई बार उनको किनारे करने का प्रयास किया गया लेकिन उन्होंने वापसी की। मजबूरी में भाजपा आलाकमान को उनके साथ ही काम करना पड़ रहा है। कर्नाटक में बीएस येदियुरप्पा इसकी मिसाल हैं। पार्टी ने एक बार फिर वहां उनको ही चेहरा बनाया है। हालांकि वे राजनीति से रिटायर हो गए हैं और ऐलान कर दिया है कि वे चुनाव नहीं लड़ेंगे लेकिन पार्टी उनके नेतृत्व में चुनाव लड़ने जा रही है।
लगभग इसी तरह की स्थिति मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान की है। जब कांग्रेस की सरकार गिरा कर भाजपा की सरकार बनी तो अंततः उनको ही मुख्यमंत्री बनाना पड़ा। उसके बाद से उनकी ऑथोरिटी कम करने वाले कई काम या घटनाएं हुईं लेकिन अब ऐसा लग रहा है कि पार्टी उनके मुख्यमंत्री रहते ही चुनाव लड़ेगी। बताया जा रहा है कि बदलने या उनको किनारे करने की बजाय अब भाजपा उनकी सरकार की उपलब्धियों का प्रचार करके ही चुनाव मैदान जाएगी। इसी तरह झारखंड में बाबूलाल मरांडी की वापसी हुई है। पांच साल सत्ता में रहने के बाद भाजपा हारी तो मरांडी की पार्टी का विलय भाजपा में कराया गया और अभी एक तरह से झारखंड की राजनीति उनके ईर्द गिर्द घूम रही है। बिहार में भी तमाम प्रयोग के बावजूद सुशील कुमार मोदी ही सबसे बड़े नेता बने हुए हैं। बिहार भाजपा की राजनीति वे कर रहे हैं और बाकी नेता उनका सहयोग कर रहे हैं।