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एनएचआरसी की कुर्सी चंद्रचूड़ को क्यों नहीं मिली?

NHRCImage Source: ANI

सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस रहे डीवाई चंद्रचूड़ का राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग यानी एनएचआरसी का अध्यक्ष बनना तय माना जा रहा था। उनके रिटायर होने के बाद से ही कहा जा रहा था कि वे अध्यक्ष बनेंगे क्योंकि जस्टिस अरुण मिश्रा का कार्यकाल खत्म होने के बाद से एनएचआरसी के अध्यक्ष का पद खाली रखा गया था। ध्यान रहे जस्टिस अरुण मिश्रा से पहले सुप्रीम कोर्ट के रिटायर चीफ जस्टिस ही इसके अध्यक्ष बनते थे।

रिटायर चीफ जस्टिस के लिए यह सबसे प्रतिष्ठित नियुक्ति मानी जाती थी। केंद्र सरकार ने जस्टिस अरुण मिश्रा के योगदान को देखते हुए उनके लिए अपवाद बनाया था। लेकिन अब यह नियम बनता दिख रहा है क्योंकि सरकार ने फिर किसी रिटायर चीफ जस्टिस की बजाय सुप्रीम कोर्ट से रिटायर हुए जज जस्टिस वी रामसुब्रमण्यम को एनएचआरसी का अध्यक्ष बनाया है। पिछले दिनों जब सोशल मीडिया में खबरें दिखाई जा रही थीं कि जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ एनएचआरसी के अध्यक्ष बने हैं तो उन्होंने खुद इन खबरों को खारिज किया था।

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सवाल है कि वे क्यों नहीं अध्यक्ष बन सके? क्या लोकप्रिय धारणा या सोशल मीडिया के प्रचार की वजह से उनका रास्ता बाधित हो गया? असल में उनके रिटायर होने से ठीक पहले के घटनाक्रम और उनके बयानों से सोशल मीडिया में उनको लेकर धारणा बदलने लगी थी। उन्होंने धर्मस्थल कानून, 1991 में अपवाद बनाया था और वाराणसी के ज्ञानवापी सर्वे के आदेश की  नई व्याख्या करते हुए कहा कि किसी धर्मस्थल की पहचान का पता लगाना धर्मस्थल कानून का उल्लंघन नहीं है। उनकी इस मासूम व्याख्या का नतीजा यह है कि आज देश भर में मस्जिदों के सर्वे के मामले थोक भाव से अदालतों में पहुंचने लगे हैं।

इसी तरह उन्होंने अयोध्या मामले में फैसले से पहले भगवान से मदद मांगने वाला बयान भी दिया था। इन बातों से कहा जाने लगा था कि वे रिटायर होंगे तो उनको कोई बड़ा पद मिलेगा। सोशल मीडिया में इसका भी प्रचार चल रहा था कि अयोध्या विवाद का फैसला सुनाने वाले सुप्रीम कोर्ट के बाकी चार जजों को उपकृत किया जा चुका है और अब जस्टिस चंद्रचूड़ की बारी है। संभवतः सरकार भी इसी वजह से पीछे हटी क्योंकि वह नहीं चाहती थी कि जनता के बीच यह धारणा बने कि अयोध्या फैसले के पीछे कोई खेल हुआ है और सरकार फैसला देने वाले जजों को उपकृत कर रही है।

By NI Political Desk

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