कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने पार्टी की कार्य समिति की बैठक में कई अहम बातें कहीं। उन्होंने पार्टी नेताओं को आपसी झगड़े और खींचतान से ऊपर उठने की जरुरत बताई। लेकिन सबसे खास बात उन्होंने प्रदेश नेताओं से कही। खड़गे ने उनको फटकार लगाते हुए या एक तरह से नीचा दिखाते हुए कहा कि वे कब तक केंद्रीय नेतृत्व पर निर्भर रहेंगे। उनके कहने का शायद यह मतलब था कि प्रदेश कमेटियां अपने दम पर चुनाव नहीं लड़ पाती हैं और उनको राहुल गांधी के प्रचार पर निर्भर रहना होता है। लेकिन देश के ज्यादातर राज्यों में असली स्थिति इसके उलट है। प्रदेश के नेता केंद्रीय नेतृत्व पर नहीं, बल्कि प्रदेश में गठबंधन के नेता पर निर्भर होते हैं। उनको केंद्रीय नेताओं की शायद ही कभी जरुरत होती है। वह तो केंद्रीय नेताओं का इकोसिस्टम है, जो उनका महत्व बनाए रखता है और उनका दखल भी बनाए रखता है।
सोचें, तमिलनाडु में कांग्रेस को केंद्रीय नेतृत्व की क्या जरुरत है? क्या वहां कांग्रेस के नौ सीटें केंद्रीय नेतृत्व की वजह से मिली हैं? अगर खड़गे और राहुल एक भी सभा नहीं करते तब भी उतनी सीटें कांग्रेस जीतती क्योंकि सारी लड़ाई एमके स्टालिन और उनकी पार्टी लड़ रही थी। इसी तरह बिहार की मुस्लिम बहुल सीटें जीत गए या झारखंड की आदिवासी सीटें जीत गए या महाराष्ट्र में पश्चिम महाराष्ट्र या मराठवाड़ा की सीटें जीते तो इसमें केंद्रीय नेतृत्व का क्या योगदान है? अगर कांग्रेस की 99 सीटों की जीत में केंद्रीय नेतृत्व का कोई योगदान है तो पश्चिम बंगाल से लेकर आंध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश से लेकर छत्तीसगढ़, उत्तराखंड से लेकर हिमाचल या पूर्वोत्तर के राज्यों में पार्टी को क्यों नहीं जीता लिया? एकाध अपवाद छोड़ दें तो कांग्रेस वही जीती, जहां मजबूत गठबंधन सहयोगी हैं।
कह सकते हैं कि कांग्रेस का केंद्रीय नेतृत्व एक नैरेटिव बनाने में मदद करता है और हो सकता है कि प्रदेश में संगठन चलाने के लिए कुछ मदद भेजी जाती हो इसके अलावा केंद्रीय नेतृत्व किसी तरह का योगदान नहीं कर रहा है। उलटे कांग्रेस की असली समस्या ही केंद्रीय नेतृत्व का दखल है, जो महासचिवों या प्रभारी महासचिवों के जरिए होता है। ज्यादातर महासचिव पार्टी संगठन की मजबूती या चुनावी जीत में कोई भूमिका नहीं निभाते हैं। वे सिर्फ अपना कुछ हित साधते हैं। राज्यों के मजबूत नेता या तो प्रभारी को साध लेते हैं और अपने हिसाब से काम कराते हैं या प्रभारी खुद ही अपनी कमाई धमाई के चक्कर में पड़ जाते हैं। अगर प्रदेश में गठबंधन सहयोगी की सरकार है तो उसके साथ ही सौदेबाजी हो जाती है। सीटों के बंटवारे से लेकर टिकट देने तक में हर जगह सौदेबाजी ही चलती है। योग्य और सक्षम उम्मीदवारों को छोड़ कर पैसे देने में सक्षम नेताओं को टिकट दी जाती है। खड़गे ने जो कहा स्थिति उसके बिल्कुल उलट है। केंद्रीय नेतृत्व की ओर से प्रदेश नेताओं को अपने ऊपर निर्भर बनाया जाता है। उनको मजबूर किया जाता है कि वे दिल्ली आकर नेताओं के यहां गणेश परिक्रमा करें और उनको खुश करने का प्रयास करें।