विपक्षी पार्टियों में जयंत चौधरी की राजनीति क्या होगी, इसका सस्पेंस सबसे गहरा है। बाकी पार्टियों के बारे में कमोबेश साफ हो गया है कि वे क्या करेंगी लेकिन राष्ट्रीय लोकदल के नेता जयंत चौधरी को लेकर संशय है। वे 13 जून को पटना में हुई विपक्षी पार्टियों की बैठक में नहीं शामिल हुए थे। उनकी पार्टी की ओर से कहा गया था कि वे देश से बाहर होने की वजह से बैठक में नहीं गए। उससे पहले उन्होंने अपने सहयोगी समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव पर दबाव बनाया था कि वे कांग्रेस से बात करें और राज्य के गठबंधन में कांग्रेस को शामिल करें। लेकिन इस बीच यह खबर आ रही है कि भारतीय जनता पार्टी उनको अपने गठबंधन में लेना चाहती है। अभी तक वे इस प्रस्ताव को खारिज करते आए हैं लेकिन आगे क्या होगा, यह कोई नहीं कह सकता है।
तभी कहा जा रहा है कि इस बात पर नजर रखने की जरूरत है कि वे 13 और 14 जुलाई को बेंगलुरू में होने वाली विपक्षी पार्टियों की बैठक में शामिल होते हैं या नहीं। असल में जयंत चौधरी के सामने कई समस्याएं हैं। पहली समस्या तो यह है कि लगातार दो लोकसभा चुनावों, 2014 और 2019 में उनकी पार्टी राज्य में एक भी सीट नहीं जीत पाई। दूसरी समस्या यह है कि चुनाव आयोग ने राष्ट्रीय लोकदल का राज्य स्तरीय पार्टी का दर्जा समाप्त कर दिया है इसलिए उनके पास हैंडपंप चुनाव चिन्ह नहीं है। उनकी पार्टी पिछले विधानसभा चुनाव में आठ सीटों पर जीती लेकिन पार्टी का अस्तित्व बचाए रखने के लिए यह पर्याप्त नहीं है। उनकी पार्टी का आकलन है कि मौजूदा समीकरण में पश्चिम उत्तर प्रदेश में भाजपा से लड़ना मुश्किल है।
पश्चिमी उत्तर प्रदेश में वोट का जो समीकरण है वह बाकी हिस्सों से अलग है। वहां 32 फीसदी के करीब मुस्लिम हैं और उसके बाद सबसे ज्यादा संख्या दलित मतदाताओं की है। 17 फीसदी के करीब जाट हैं लेकिन उनका रूझान भाजपा की ओर रहता है। सो, या तो कांग्रेस, बसपा और रालोद का तालमेल हो तब उनकी पार्टी कुछ सीट जीत सकती है या फिर वे भाजपा के साथ जाएं। कांग्रेस, सपा और रालोद के साथ होने का भी कुछ फायदा हो सकता है लेकिन उसको लेकर वे बहुत आश्वस्त नहीं हैं। इसलिए वे दुविधा में हैं।