चाहे उत्तर प्रदेश हो या हरियाणा या बिहार या कोई भी भाजपा शासित राज्य वहां के नेता एक शिकायत करते मिल रहे हैं कि अधिकारी बात नहीं सुन रहे हैं। उनकी शिकायत है कि अधिकारी आम जनता का काम नहीं करते हैं और नेताओं की बात नहीं सुनते हैं। उत्तर प्रदेश में तो एक नेता यह शिकायत कर डाली कि राज्य में अधिकारी लोग नेताओं को पैर छूने के लिए मजबूर करते हैं। सोचें, लोकतंत्र में नेता अगर अधिकारियों के पैर छू रहा है तो उसका क्या मतलब है? किसी उम्रदराज व्यक्ति के प्रति आदर के कारण कोई पैर छू ले यह अलग बात है लेकिन ओहदे की वजह से किसी को पैर छूना पड़े तो यह लोकतंत्र का अपमान है। गौरतलब है कि केरल में कम्युनिस्ट सरकार ने यह अनिवार्य किया है कि किसी चुने हुए व्यक्ति के आने पर अधिकारी खड़े होकर उसका स्वागत करेंगे और जाते समय खड़े होकर विदा करेंगे। यहां उत्तर प्रदेश में दूसरी ही कहानी बताई जा रही है। वहां विधायक रमेश चंद्र मिश्रा से लेकर सहयोगी पार्टी के नेता संजय निषाद तक कई लोग अधिकारियों की शिकायत कर चुके।
अभी हरियाणा में सरकार को समर्थन दे रहे एकमात्र निर्दलीय विधायक नयनपाल रावत मुख्यमंत्री से मिले तो उन्होंने भी यही शिकायत की। उन्होंने कहा कि अधिकारी बात नहीं सुन रहे हैं। हालांकि बाद में वे संतुष्ट होकर गए। बिहार में तो खैर अधिकारी किसी की बात नहीं सुनते हैं, जब तक उनको मुख्यमंत्री सचिवालय से फोन न आए। सवाल है कि क्या किसी दिन भाजपा के सांसद और कुछ मंत्री भी यह शिकायत करेंगे कि अधिकारी उनकी बात नहीं सुन रहे हैं? बहरहाल, माना जा रहा है कि नेतृत्व से नाराजगी निकालने का यह तरीका खोजा गया है। अगर कोई नेता सीधे शीर्ष नेतृत्व या मुखयमंत्री पर निशाना नहीं साध सकता है तो वह सार्वजनिक बयान देता है कि अधिकारी बात नहीं सुन रहे हैं। इसका मतलब निकाला जाता है कि वह नेता मुख्यमंत्री से नाराज है। अगर वह नेता महत्वपूर्ण है तो उसको मनाया जाता है और नहीं तो उसके हाल पर छोड़ दिया जाता है।