उत्तर प्रदेश विधानसभा की नौ सीटों के उपचुनाव में समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव के पीडीए फॉर्मूले की परीक्षा होनी है। उनके पीडीए का मतलब है पिछड़ा, दलित और अल्पसंख्यक। यह पहली बार है, जब समाजवादी पार्टी ने खुले तौर पर ऐलान किया है कि उसको अगड़ी जातियों के वोट नहीं चाहिए। ऐसा नहीं है कि यह पहली बार है, जब इस तरह किसी जाति या समुदाय को अलग करके वोट मांगने की राजनीति हुई है। भाजपा ने भले सिद्धांत तौर पर नहीं कहा है लेकिन उसकी पार्टी के अनेक नेता खुले मंच से कह चुके हैं कि उनको मुस्लिम का वोट नहीं चाहिए। इसी तरह एक समय था, जब बहुजन समाज पार्टी ने ‘तिलक, तराजू और तलवार इनको मारे जूते चार’ का नारा दिया था। बिहार में लालू प्रसाद ने की पार्टी भी एक समय ‘भूराबाल साफ करो’ कहा करती थी, जिसका मतलब चार अगड़ी जातियों के सफाए से था। हालांकि समय के साथ बसपा, राजद आदि पार्टियों ने सीख लिया कि किसी भी जाति की खिलाफत करके राजनीति करना ठीक नहीं है।
हैरानी है कि अखिलेश यादव अब उस रास्ते पर चले हैं, जिस पर 1995 में लालू प्रसाद और कांशीराम व मायावती चले थे। उनके 30 साल के बाद अखिलेश वह राजनीति आजमा रहे हैं। उन्होंने लोकसभा चुनाव में इसका प्रयोग किया था। विधानसभा के उपचुनाव में वे दो कदम आगे बढ़ गए हैं। उन्होंने नौ सीटों में से चार पर मुस्लिम, तीन पर पिछड़ा और दो पर दलित उम्मीदवार उतारा है। उन्होंने एनसीआर की गाजियाबाद सीट पर भी दलित प्रत्याशी उतारा है। अब यह देखना है कि नौ उम्मीदवारों में 45 फीसदी मुस्लिम, करीब 30 फीसदी पिछड़ा और करीब 25 फीसदी दलित का समीकरण कैसे काम करता है? पिछले दिनों एक मीडिया समूह के कार्यक्रम में अखिलेश यादव से इस बारे में पूछा गया था कि उन्होंने इतने मुस्लिम क्यों उतारे हैं तो वे अपने पीडीए में के ए का मतलब आधी आबादी समझाने लगे थे। हालांकि इस बात को किसी ने गंभीरता से नहीं ली। बहरहाल, अगर लोकसभा चुनाव के बाद उपचुनाव में भी उनका पीडीए का समीकरण काम करता है तो भाजपा को सवा दो साल बाद होने वाले विधानसभा चुनाव के लिए अपनी रणनीति पर नए सिरे से विचार करना होगा।