ऐसा लग रहा है कि विपक्षी पार्टियों को बहुत जोर से तलब लगी थी कि उप राष्ट्रपति और राज्यसभा के सभापति जगदीप धनखड़ के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पेश करें, इसलिए प्रस्ताव पेश कर दिया। पिछले सत्र में भी विपक्ष ने प्रयास किया था। दस्तखत वगैरह जुटा लिए गए थे लेकिन प्रस्ताव पेश नहीं किया गया। इस बार राज्यसभा के महासचिव पीसी मोदी के जरिए प्रस्ताव पेश कर दिया गया है।
परंतु विपक्षी पार्टियों को भी पता है कि इसका कोई मतलब नहीं है क्योंकि सभापति के खिलाफ नोटिस देने के बाद उस पर कोई भी चर्चा या कार्रवाई 14 दिन के बाद ही होगी और शीतकालीन सत्र 20 दिसंबर को समाप्त हो जाएगा। यानी कुल 10 दिन का समय है। विपक्ष को यह भी पता है कि इस सत्र के समापन के साथ ही प्रस्ताव की वैधता भी समाप्त हो जाएगी। तभी व्यावहारिक रूप से इस प्रस्ताव का कोई मतलब नहीं है।
विपक्ष के प्रस्ताव की संख्यात्मक और राजनीतिक स्थिति पर विश्लेषण
अगर संख्यात्मक स्थिति से देखें तब भी इस प्रस्ताव का कोई अर्थ नहीं दिखेगा क्योंकि विपक्ष के पास प्रस्ताव पास कराने का बहुमत नहीं है। विपक्षी गठबंधन ‘इंडिया’ के पास कुल 88 सांसद हैं, जबकि राज्यसभा की मौजूदा संख्या 237 है यानी बहुमत का आंकड़ा 119 का है। विपक्ष बहुत मेहनत करेगा तो पांच सात अतिरिक्त सांसद जुटाए जा सकते हैं लेकिन मुश्किल यह है कि सरकार के पास अपने सहयोगियों और मनोनीत सांसदों को जोड़ कर 119 की संख्या है।
ऊपर से कम से कम तीन ऐसी पार्टियां हैं, जो पहले भाजपा के साथ रही हैं और अब भी कांग्रेस के साथ नहीं जाएंगी। वाईएसआर कांग्रेस के आठ सांसद हैं, जबकि बीजू जनता दल के सात और भारत राष्ट्र समिति के चार सांसद हैं। इन 19 सांसदों का समर्थन या तो सरकार को मिलेगा या ये गैरहाजिर होंगे। दोनों ही स्थितियों में विपक्ष का प्रस्ताव फेल हो जाएगा। इसलिए अगर विपक्षी पार्टियां अगले सत्र में फिर प्रस्ताव ले आती हैं तब भी उसके पास होने की कोई संभावना नहीं है। अगले सत्र तक भाजपा को ओडिशा से एक अतिरिक्त सांसद मिल जाएंगे। Parliament winter session
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अगर राजनीतिक नजरिए से देखें तब भी इस प्रस्ताव का कोई मतलब नहीं है क्योंकि विपक्ष को इससे कुछ भी हासिल नहीं होना है। विपक्ष को पता है कि अडानी के मसले पर सरकार बहस रोक रही है। उसमें दोनों सदनों के पीठासीन अधिकारियों का कोई हाथ नहीं है। आसन पर जो भी बैठा होगा वह कमोबेश एक जैसा ही आचरण करेगा। इसलिए स्पीकर या सभापति से लड़ने की बजाय कांग्रेस और दूसरी विपक्षी पार्टियों को अपना मुद्दा जनता के बीच ले जाना चाहिए। कांग्रेस को पता है कि अडानी के मसले पर सरकार चर्चा के लिए तैयार नहीं होगी। तभी वह अडानी का मसला संसद के परिसर में उठा रही है। तरह तरह के स्वांग हो रहे हैं। Parliament winter session
मुखौटा लगा कर सांसद मोदी और अडानी बन रहे हैं और राहुल गांधी उनका इंटरव्यू कर रहे हैं। लेकिन सबको पता है कि जैसे ही संसद का सत्र खत्म होगा कांग्रेस यह सब भूल जाएगी। वह कभी भी जनता के बीच इस मुद्दे को लेकर नहीं जाएगी। गाहे बगाहे राहुल गांधी यह मुद्दा प्रेस कांफ्रेंस में उठाएंगे या कहीं चुनाव होगा तो वहां बोलेंगे। फिर अगले सत्र तक अडानी से जुड़ा कोई दूसरा मुद्दा आ जाएगा तो उस मुद्दे पर संसद नहीं चलने दी जाएगी। अगर कांग्रेस इस मुद्दे के लिए इतनी प्रतिबद्ध है तो उसे संसद सत्र के बाद पूरे देश में इस पर आंदोलन करना चाहिए।