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सहयोगी पार्टियों की क्या मजबूरी है?

भाजपा की सहयोगी पार्टियों को सरकार में कोई खास महत्व नहीं मिला है। ऐसा लग रहा है कि सभी पार्टियों ने मजबूरी में भाजपा को समर्थन दिया है और बदले में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जो प्रसाद दे दिया है उसे ग्रहण करना ही उनका कर्तव्य है। सवाल है कि सहयोगी पार्टियों की क्या मजबूरी है? ऐसा लग रहा है कि लोकसभा में संख्या का गणित देख कर उनको लग रहा है कि भाजपा के साथ बने रहने के अलावा उनके पास कोई चारा नहीं है। लोकसभा में एनडीए के सांसदों की संख्या 293 है। जदयू के एक जानकार नेता ने कहा कि उनके या टीडीपी के समर्थन वापस लेने से सरकार की सेहत पर कोई खास फर्क नहीं पड़ेगा। गौरतलब है कि जदयू के 12 और टीडीपी के 16 सांसद हैं। अगर ये 28 सांसद एक साथ समर्थन वापस लें तो एनडीए की संख्या घट कर 265 हो जाएगी। लेकिन इन 28 सांसदों के ‘इंडिया’ ब्लॉक से जुड़ने पर भी उनकी संख्या 261 की पहुंचेगी।

आंध्र प्रदेश का गणित ऐसा है कि अगर टीडीपी के 16 सांसद अलग होते हैं तो तुरंत ही वाईएसआर कांग्रेस के चार सांसद सरकार से जुड़ जाएंगे, जिससे उसकी संख्या 69 हो जाएगी। एनडीए और ‘इंडिया’ दोनों से अलग कई छोटी पार्टियां भाजपा के प्रति रूझान वाली हैं। सो, उसके लिए बहुमत का आंकड़ा हासिल करना ज्यादा आसान है। भाजपा को झटका तब लगेगा, जब चिराग पासवान और एकनाथ शिंदे के 12 सांसद भी टूटें, जिसकी संभावना अभी नहीं दिख रही है। सहयोगी पार्टियों को यह भी लग रहा है कि अगर किसी तरह से जोड़ तोड़ करके ‘इंडिया’ ब्लॉक सरकार बनाए भी तो वह बहुत अस्थिर रहेगी। तभी बताया जा रहा है कि सहयोगी पार्टियां सही मौके की तलाश में हैं। वे इस साल के अंत में होने वाले राज्यों के चुनाव का इंतजार करेंगी। अगर महाराष्ट्र, हरियाणा और झारखंड में भाजपा चुनाव नहीं जीत पाती है तो भाजपा के अंदर से भी नरेंद्र मोदी और अमित शाह तो लेकर सवाल उठने लगेंगे और तब सहयोगी पार्टियां अपने तेवर दिखाएंगी। तब तक यथास्थिति बने रहने की संभावना है।

By NI Political Desk

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