शिव सेना के नेता उद्धव ठाकरे ने महा विकास अघाड़ी यानी एमवीए की सहयोगी पार्टियों पर दबाव बना दिया है। उन्होंने गेंद कांग्रेस और शरद पवार के पाले में डाल दी है। एमवीए की बैठक में उद्धव ने कहा कि मुख्यमंत्री पद का दावेदार घोषित करके चुनाव लड़ना चाहिए। इसके साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि कांग्रेस और शरद पवार, जिसका नाम तय करेंगे वे उसका समर्थन करेगे। यह बहुत होशियारी भरा दांव है। क्योंकि उद्धव को पता है कि कांग्रेस और पवार के पास कोई एक चेहरा ऐसा नहीं है, जो उनके करिश्मे को मैच कर सके। खुद शरद पवार को बनना नहीं है और अजित पवार इस समय भाजपा गठबंधन के साथ हैं। कांग्रेस में कोई करिश्माई नेता नहीं बचा है। विलास राव देशमुख का निधन हो चुका है, सुशील शिंदे सक्रिय राजनीति से रिटायर हो चुके हैं और अशोक चव्हाण भाजपा में चले गए हैं। पथ्वीराज चव्हाण की उम्र भी काफी हो गई है और वे जमीनी राजनीति में बहुत असर नहीं रखते हैं। ले देकर नाना पटोले हैं, जो पिछड़ी जाति से आते हैं। उनका नाम घोषित करके लड़ने में जोखिम है।
सो, उद्धव ठाकरे ने इस स्थिति को समझते हुए एक तरह से अपनी दावेदारी आगे कर दी है। उद्धव ने कैसे अपनी दावेदारी पेश की है, यह इस बात से भी समझ में आता है कि उन्होंने साफ कर दिया कि वे सबसे ज्यादा विधायकों वाली पार्टी का ही सीएम बनने के फॉर्मूले को नहीं मानते हैं। इसका मतलब है कि उनको पता है कि एमवीए में उनकी पार्टी सबसे ज्यादा विधायक जीतने वाली पार्टी नहीं बनेगी। अगर लोकसभा चुनाव के हिसाब से नतीजे आए तो कांग्रेस सबसे ज्यादा विधायक वाली पार्टी बनेगी। तब कांग्रेस अपना सीएम बनाने की मांग कर सकती है। तभी कांग्रेस के नेता चुनाव से पहले नाम घोषित करने के पक्ष में नहीं हैं। दूसरी ओर शरद पवार ऐसी स्थिति की कल्पना करके बैठे हैं, जिसमें वे अपनी बेटी सुप्रिया सुले को सीएम बना सकें। यह तब हो सकता है, जब गठबंधन में उनको अच्छी संख्या में सीटें आएं और भाजपा गठबंधन में चले गए अजित पवार चुनाव के बाद अपने जीते हुए विधायकों के साथ वापस पवार के पास लौट आएं। यह दूर की कौड़ी है लेकिन शरद पवार जैसा दूरदर्शी नेता दूर की कौड़ी ही फेंकेगा न!
चुनाव आयोग बेहतर कर सकता था
चुनाव आयोग की निष्पक्षता और उसकी साख को लेकर पिछले कई बरसों से सवाल उठ रहे हैं। वह अपनी जगह है। लेकिन चुनावों का कार्यक्रम बनाने में आयोग सामान्य बातों का भी ध्यान नहीं रख रहा है, जो उसकी कार्यक्षमता पर सवाल है। उसका प्रयास बहुत समन्वित नहीं दिख रहा है। इस बार भी चार राज्यों के विधानसभा चुनावों और 46 विधानसभा व एक लोकसभा सीट के उपचुनाव में आयोग बेहतर काम कर सकता था। लेकिन पता नहीं किस मजबूरी में उसने जैसे तैसे दो राज्यों का चुनाव कार्यक्रम घोषित कर दिया। इससे पहले कई बड़ी गलतियां आयोग कर चुका है। इसी साल लोकसभा चुनाव के साथ चार राज्यों के विधानसभा चुनाव हुए थे, जिनमें सिक्किम विधानसभा का कार्यकाल दो जून को खत्म हो रहा था लेकिन आयोग ने वहां भी वोटों की गिनती का कार्यक्रम चार जून को रखा था। बाद में जब इस ओर ध्यान दिलाया गया तो आयोग ने दो जून को वोटों की गिनती कराई।
बहरहाल, इस बार ऐसा लग रहा था कि सारे चुनाव एक साथ होंगे। लेकिन इस बार भी आयोग ने चुनाव अलग अलग करा दिए। उसने जम्मू कश्मीर में चुनाव कराने की सुप्रीम कोर्ट की 30 सितंबर की डेडलाइन के बहाने चुनाव को दो हिस्सों में बांट दिया है। यह तीन हिस्सों में भी बंट सकता है। आयोग चाहता तो सुप्रीम कोर्ट से दो या तीन हफ्ते का समय और ले सकता था। हिंडनबर्ग रिपोर्ट की सेबी जांच से लेकर ईडी के निदेशक को हटाने तक के मामले में सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से समय मांगा था और समय मिल भी गया था। तभी 30 सितंबर की डेडलाइन को लक्ष्मण रेखा मान कर चुनावों को दो हिस्सों में बांटना राजनीतिक फैसला लग रहा है। आयोग मानसून और त्योहारों को ध्यान में रखते हुए एक ही साथ अक्टूबर में चुनाव करा सकता था लेकिन उसने जम्मू कश्मीर के साथ हरियाणा को रखा। इसके बाद महाराष्ट्र में त्योहारों के बाद चुनाव कराने की बात कही और झारखंड पर चुप्पी साधे रखी। सही समय आने पर 46 सीटों के उपचुनाव की बात कही। सोचें, सही समय कब आएगा?
हरियाणा में बहुकोणीय मुकाबले का किसे लाभ?
हरियाणा में आमतौर पर आमने सामने का मुकाबला होता रहा है। राज्य की राजनीति की एक धुरी कांग्रेस रही है और दूसरी धुरी कोई न कोई प्रादेशिक पार्टी होती थी, जिसके साथ भाजपा जुड़ी होती थी। 2014 में यह स्थिति बदल गई। भाजपा सबसे बड़ी पार्टी बन कर उभरी और इंडियन नेशनल लोकदल पूरी तरह से हाशिए में चली गई। यह स्थिति 2019 के चुनाव में भी रही लेकिन उस चुनाव में जननायक जनता पार्टी का उदय हुआ। इसका नतीजा यह हुआ है कि आमने सामने की लड़ाई वाले हरियाणा में अब बहुकोणीय मुकाबला हो गया है। कम से कम पांच पार्टियां इस बार चुनाव में मजबूती से किस्मत आजमाएंगी। भाजपा और कांग्रेस के अलावा पिछली बार 10 सीट जीतने वाली जजपा भी एक बड़ी ताकत है। इसके अलावा इंडियन नेशनल लोकदल और बसपा का गठबंधन है तो आम आदमी पार्टी भी सभी सीटों पर लड़ कर किस्मत आजमा रही है।
सवाल है कि इस बहुकोणीय मुकाबले में किसकी गणित बिगड़ेगी? सभी पार्टियों ने अपना सामाजिक समीकरण बनाया है। भाजपा ने पिछड़ा, पंजाबी, वैश्य और ब्राह्मण का समीकरण बनाया है तो कांग्रेस की सोशल इंजीनियरिंग जाट और दलित की है। लेकिन ऐसा माना जा रहा है कि इनेलो व बसपा का गठबंधन और जजपा तीनों कांग्रेस के जाट और दलित वोट में सेंध लगा सकते हैं। इसी तरह आम आदमी पार्टी भाजपा के वैश्य व पिछड़ा वोट में सेंधमारी कर सकती है। यानी दोनों बड़ी पार्टियों के वोट बैंक में सेंध लगाने वाली पार्टियां चुनाव लड़ रही हैं। जिस तरह से 10 साल से जाट को सत्ता से बाहर किया गया है उसका वोट इस बार कांग्रेस की ओर जाने की संभावना है। इससे इनेलो और जजपा दोनों के सामने अस्तित्व का संकट खड़ा होगा। दूसरी ओर भाजपा के सिस्टम में वैश्य को कोई खास जगह नहीं मिली है, जिससे अरविंद केजरीवाल की पार्टी के लिए अच्छी संभावना बन रही है। अगर आम आदमी पार्टी मेहनत करे तो वह केजरीवाल के गृह प्रदेश में बेहतर प्रदर्शन कर सकती है और उसका नुकसान भाजपा को होगा।
दिल्ली के सात विभाग बिना मंत्री के
राजधानी दिल्ली में कई तरह नई राजनीतिक परंपरा शुरू हो रही है। जैसे मुख्यमंत्री का जेल जाने पर भी इस्तीफा नहीं देना। अरविंद केजरीवाल करीब पांच महीने से दिल्ली की तिहाड़ जेल में बंद हैं और उन्होंने इस्तीफा नहीं दिया है। उनके जेल में रहने की वजह से कैबिनेट की बैठक नहीं हो पा रही है और दिल्ली सरकार जैसे तैसे काम कर रही है। उप राज्यपाल और चुनी हुई सरकार के बीच भी झगड़े की हर दिन नई मिसाल कायम हो रही है। राज्य सरकार को हर बात के लिए उप राज्यपाल को जिम्मेदार ठहराना है और उप राज्यपाल को राज्य सरकार के हर फैसले को पलट देना है। यही दिल्ली में चल रहा है।
इस बीच एक नई खबर यह आई है कि जेल में बंद केजरीवाल ने अपनी सरकार के मंत्री रहे राजकुमार आनंद के इस्तीफे के बाद उनके विभाग किसी को दिए ही नहीं। सोचें, लोकसभा चुनाव से पहले आनंद ने इस्तीफा दे दिया था लेकिन करीब पांच महीने से उनके सात विभाग किसी मंत्री को नहीं दिए गए। इन विभागों में एससी और एसटी कल्याण के साथ साथ समाज कल्याण मंत्रालय भी है। सोचें, दिल्ली सरकार हर दिन आरोप लगाती रहती है कि चुनी हुई सरकार के कामकाज उप राज्यपाल और अधिकारी देख रहे हैं लेकिन उसे इस बात से कोई दिक्कत नहीं है कि सात विभागों के कामकाज किसी मंत्री की बजाय सचिव और दूसरे अधिकारी संभाल रहे हैं।