अब यह लगभग तय हो गया है कि वरुण गांधी पीलीभीत सीट से चुनाव नहीं लड़ रहे हैं। वे पीलीभीत, सुल्तानपुर और फिर पीलीभीत से तीन बार सांसद रहे। इस बार भाजपा ने उनको इस सीट से टिकट नहीं दी। पहले से इसका अंदाजा लगाया जा रहा था उन्होंने केंद्र की भाजपा सरकार को लेकर जो स्टैंड लिया है उसमे उन्हें भाजपा से टिकट नहीं मिलेगी।
तभी यह भी कहा जा रहा था कि वे निर्दलीय चुनाव लड़ सकते हैं और कांग्रेस व समाजवादी पार्टी उनको समर्थन देंगी। पहले तो यह भी कहा जा रहा था कि उनकी वजह से उनकी मां मेनका गांधी को भी शायद टिकट नहीं मिले। लेकिन भाजपा ने उनको टिकट दे दी। क्या यह भाजपा की रणनीति थी कि परिवार के एक सदस्य को टिकट दे देंगे तो दूसरा सदस्य बागी नहीं होगा?
हो सकता है कि भाजपा ने रणनीति के तहत ऐसा किया हो लेकिन बड़ा सवाल यह है कि वरुण गांधी की क्या रणनीति थी? उन्होंने क्या सोच कर अपनी पार्टी की केंद्र सरकार का विरोध करना शुरू किया था और उसकी नीतियों पर सवाल उठाना शुरू किया था? क्या उनको लग रहा था कि पार्टी में बहुत लोकतंत्र है और वे जो सवाल उठा रहे हैं उन पर उनको शाबाशी मिलेगी? निश्चित रूप से उन्होंने ऐसा नहीं सोचा होगा।
उनको पता होगा कि वे जो कर रहे हैं उससे उनकी टिकट कट जाएगी। फिर भी उन्होंने सवाल उठाना जारी रखा तो निश्चित रूप से कोई योजना उनके दिमाग में रही होगी। उस योजना का क्या हुआ? क्या उनकी मां को टिकट देकर शह मात के इस खेल में पहली बाजी भाजपा ने जीत ली है और वरुण दूसरी बाजी का इंतजार करेंगे या चुनाव के बाद कोई दूसरा रास्ता लेंगे? अभी उम्र सिर्फ 44 साल है।
वे अभी से घर नहीं बैठ सकते हैं और न यह जोखिम ले सकते हैं कि परिस्थितियां उनका रास्ता बनाएं। सो, उनकी राजनीति सबसे दिलचस्प मोड़ पर है। कहा जा रहा है कि भाजपा चाहती थी कि वे अमेठी या रायबरेली सीट से लड़ें, जिसके लिए वे तैयार नहीं हुए। सो, फैमिली रियूनियन की बात भी चल ही रही है।