कर्नाटक की कांग्रेस सरकार कमाल कर रही है। वह पूरे देश में कांग्रेस से अलग राजनीति करती हुई दिख रही है। पूरे देश में राहुल गांधी यात्रा कर रहे हैं और दावा कर रहे हैं कि वे देश को जोड़ने के काम कर रहे हैं। Karnatak politics cm siddaramaiah
उन्होंने अपनी यात्रा के लिए कहा है कि वे नफरत के बाजार में मोहब्बत की दुकान खोल रहे हैं। लेकिन दूसरी ओर कर्नाटक प्रदेश कांग्रेस की ओर से खुल कर कन्नड़ अस्मिता की राजनीति की जा रही है।
राज्य सरकार एक के बाद एक ऐसे मुद्दे उठा रही है, जिससे विभाजन की संभावना बढ़ती है। राज्य सरकार ने दिल्ली में जंतर मंतर पर धरना दिया और कहा कि उसका एक लाख 87 हजार करोड़ रुपया केंद्र सरकार के पास बकाया है।
यह उसका जायज मांग है और अगर बकाया है तो केंद्र को उसे चुकाना चाहिए। इसे देश बांटने या तोड़ने वाला काम नहीं कह सकते हैं। लेकिन उसके बाद दो ऐसे काम राज्य सरकार ने किया है, जिससे भाषायी और जातीय पहचान का मुद्दा बना है।
कर्नाटक सरकार ने विधानसभा से एक बिल पास कराया है, जिसमें प्रावधान किया गया है कि सभी संस्थानों को अपने नाम कन्नड़ भाषा में लिखने होंगे। कम से कम 60 फीसदी साइनेज कन्नड़ में लिखना अनिवार्य किया गया है। ध्यान रहे कुछ समय पहले स्टेशनों के हिंदी में लिखे नाम मिटाने का आंदोलन भी चला था।
इसके अलावा अब राज्य सरकार ने एक नया फरमान जारी किया है, जिसके तहत देशी, विदेशी कंपनियों ने यह डाटा मांगा गया है कि उन्होंने कितनी संख्या में कन्नड़ भाषी लोगों को नौकरी दी है।
अभी उनके ऊपर किसी तरह का कानूनी दबाव नहीं बनाया गया है कि स्थानीय लोगों को भरती करना है लेकिन भाषा और जाति के नाम पर बहाली का आंकड़ा मांगना यह संदेह पैदा करता है कि कांग्रेस सरकार स्थानीयता की नीति की ओर बढ़ रही है। इस तरह के काम शिव सेना बहुत पहले करती थी।
सोचें, कर्नाटक भारत का आईटी हब है, जहां देश भर के बच्चे नौकरी करने जाते हैं। अगर राज्य सरकर को ऐसा लग रहा है कि कन्नड़ युवाओं से ज्यादा बाहरी युवाओं को नौकरी मिल रही है तो उसे यह भी देखना चाहिए कि कर्नाटक के इंजीनियरिंग व मेडिकल और प्रबंधन के संस्थानों में कहां के बच्चे ज्यादा पढ़ रहे हैं।
अगर राज्य सरकार को अपने यहां आने और फीस देकर पढ़ाई करने वाले बाहरी बच्चों की संख्या से ऐतराज नहीं है तो नौकरी करने वाले युवाओं से कैसे ऐतराज हो सकता है।
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