एक तरफ भाजपा में पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व ने चुनाव प्रचार की कमान संभाली है और प्रदेश के नेताओं को चुनाव लड़ने में लगाया है तो दूसरी ओर कांग्रेस में ज्यादातर बड़े नेता चुनाव नहीं लड़ रहे हैं और केंद्रीय नेतृत्व को भी चुनाव से कोई खास मतलब नहीं दिख रहा है। पहले चरण के मतदान वाले इलाकों में राहुल गांधी की दो दिन रैलियां जरूर हुईं लेकिन कोई फॉलोअप नहीं है और न दूसरा कोई राष्ट्रीय नेता प्रचार करता दिख रहा है। कांग्रेस ने चुनाव से तीन महीने पहले केशव महतो कमलेश को प्रदेश अध्यक्ष बनाया। लेकिन वे न तो चुनाव लड़ रहे हैं और न लड़वा रहे हैं। पूर्व प्रदेश अध्यक्ष राजेश ठाकुर भी चुनाव नहीं लड़ रहे हैं। करीब पांच साल विधायक दल के नेता रहे आलमगीर आलम जेल में हैं और उनकी पत्नी चुनाव लड़ रही हैं। विधायक दल के मौजूदा नेता रामेश्वर उरांव की सेहत ऐसी नहीं है कि वे अपने क्षेत्र से बाहर जाकर प्रचार करें।
अगर राष्ट्रीय नेतृत्व की बात करें तो पता नहीं किस जीनियस रणनीतिकार की सलाह पर कांग्रेस ने जम्मू कश्मीर के रहने वाले गुलाम अहमद मीर को झारखंड का प्रभारी बनाया और उसके बाद बिहार के तारिक अनवर को चुनाव प्रभारी या चुनाव का पर्यवेक्षक बनाया। सबको पता है कि मुस्लिम वोट कांग्रेस छोड़ कर कहीं नहीं जा रहा है। लेकिन दो मुस्लिम नेताओं को कांग्रेस ने झारखंड में कमान सौंपी। इनमें से कोई भी झारखंड में प्रचार करता नहीं दिख रहा है। गुलाम अहमद मीर तो खैर प्रचार कर भी नहीं सकते हैं क्योंकि वे पिछले दो साल में रांची के अलावा संभवतः कहीं गए भी नहीं हैं और न किसी को जानते हैं। तारिक अनवर जरूर प्रचार कर सकते हैं लेकिन उनकी भी सक्रियता नहीं दिख रही है। अगर भाजपा के चुनाव प्रभारियों से उनकी तुलना करें तो उनका प्रदर्शन 10 फीसदी भी नहीं दिखाई देगा। कांग्रेस इस भरोसे चुनाव लड़ रही है कि हेमंत सोरेन के प्रति सद्भाव होगा तो जेएमएम के साथ कांग्रेस को भी वोट मिल जाएगा। इसके लिए अलग से मेहनत करने की जरुरत नहीं है।