अभी इस विवादित बहस में पड़ने की कोई जरुरत नहीं है कि भारतीय प्रतिभूति और विनियम बोर्ड यानी सेबी की प्रमुख माधवी धवल बुच किसी भ्रष्टाचार में शामिल हैं या नहीं या उन्होंने देश के सबसे अमीर कारोबारी गौतम अडानी की कोई मदद की है या नहीं क्योंकि यह जांच का विषय है। लेकिन जो तथ्य सामने आए हैं उनसे पहली नजर में यह स्पष्ट दिख रहा है कि हितों का टकराव का मामला बनता है। हिंडनबर्ग रिसर्च की ओर से जारी नए दस्तावेजों में बताया गया है कि माधवी और धवल बुच ने मॉरीशस स्थित कंपनी आईपीई प्लस वन फंड में निवेश किया था। इस फंड में गौतम अडानी के भाई विनोद अडानी का निवेश था और इसके पैसे का इस्तेमाल कथित तौर पर भारतीय शेयर बाजार में उतार चढ़ाव लाने के लिए किया गया था।
माधवी और धवल बुच ने स्वीकार किया है कि अनिल आहूजा उस कंपनी से जुड़े थे, और आहूजा बचपन से ही धवल बुच के साथी रहे हैं। दोनों स्कूल में साथ पढ़े थे और फिर दिल्ली आईआईटी में भी साथ रहे थे। इसलिए बुच दंपति ने उस फंड में निवेश किया था और 2018 में जब आहूजा उससे अलग हुए तो दोनों ने अपना फंड निकाल लिया। जाहिर है इस फंड के साथ जुड़ाव को बुच दंपति से स्वीकार किया है। तभी सवाल है कि जब सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर सेबी ने हिंडनबर्ग की पहली रिपोर्ट यानी जनवरी 2023 में आई रिपोर्ट के आधार पर अडानी समूह की जांच शुरू की तब माधवी बुच ने इस बारे में खुलासा क्यों नहीं किया?
गौरतलब है कि सेबी ने करीब दो दर्जन मामलों की जांच की, जिसमें दो को छोड़ कर बाकी मामलों की जांच रिपोर्ट सुप्रीम कोर्ट को सौंप दी गई। जिस समय सेबी ने यह जांच की उस समय माधवी बुच सेबी की प्रमुख थीं और जिन ऑफशोर कंपनियों या फंड की जांच की गई उसमें आईपीई प्लस वन फंड भी शामिल था। सो, भले बुच दंपति अपना फंड बेच चुके थे लेकिन जब उसकी जांच हो रही थी तब इसके बारे में खुलासा होना चाहिए था और माधवी बुच को इस जांच से अलग होना चाहिए था। भ्रष्टाचार का पता नहीं लेकिन यह हितों के टकराव का स्पष्ट मामला है।