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हुड्डा पर अति निर्भरता का भी नुकसान

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कांग्रेस पार्टी का सामाजिक समीकरण भूपेंद्र सिंह हुड्डा की वजह से भी बिगड़ा। कांग्रेस उनके ऊपर बहुत ज्यादा निर्भर हो गई थी। टिकट बंटवारे से लेकर प्रचार तक में हर जगह भूपेंद्र सिंह हुड्डा और उनके बेटे दीपेंद्र हुड्डा दिख रहे थे। कांग्रेस ने उनको मुख्यमंत्री का उम्मीदवार घोषित नहीं किया था लेकिन हरियाणा के मतदाताओं में यह मैसेज था कि कांग्रेस की सरकार बनी तो हुड्डा मुख्यमंत्री होंगे। इससे जाट मतदाताओं में तो उत्साह था लेकिन गैर जाट वोटों की अंदर अंदर गोलबंदी भी शुरू हो गई थी। पहलवानों के प्रदर्शन और उनके लेकर पूरे प्रदेश में घूमने का भी मैसेज यह गया कि कांग्रेस सब कुछ जाट राजनीति के हिसाब से कर रही है।

इस बीच यह खबर आई की कांग्रेस ने राज्य की 90 में से 72 सीटें हुड्डा के कहने से दी हैं। इसमें कोई दो दर्जन जाट उम्मीदवार थे। भाजपा के मुकाबले कांग्रेस ने डेढ़ गुना जाट उतारे। इससे भाजपा को जाट और गैर जाट का विभाजन बनाने में कामयाबी मिली। दलित वोट पूरी तरह से कांग्रेस के साथ जाता तो उसको फायदा होता। लेकिन पहले कुमारी सैलजा की नाराजगी और उसके बाद पूरे चुनाव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा गोहाना और मिर्चपुर की घटना की याद दिलाना कांग्रेस को भारी पड़ गया। हुड्डा के राज में दो जगह दलित अत्याचार की वीभत्स घटनाएं हुई थीं। सो

, दलित भी पूरी तरह से कांग्रेस के साथ नहीं आया। दूसरी ओर गैर जाट गोलबंदी में पिछड़ों के साथ गुर्जर, ब्राह्मण और अन्य वोट जुड़ गए। इससे भाजपा का वोट भी बढ़ा। जो भाजपा 2014 में 33 फीसदी की और 2019 में 36 फीसदी वोट वाली पार्टी थी वह 40 फीसदी पहुंच गई। कांग्रेस का भी वोट बढ़ा क्योंकि हुड्डा पर निर्भरता की वजह से इनेलो और जजपा को छोड़ कर जाट पूरी तरह से कांग्रेस से जुड़ा, जिससे कांग्रेस भी 28 फीसदी से बढ़ कर 40 फीसदी पहुंची लेकिन जीतने लायक वोट नहीं हासिल कर सकी।

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