वैसे तो भाजपा में किसी भी प्रदेश के नेता का कोई खास मतलब नहीं रह गया है। खासतौर से चुनाव के समय तो प्रदेश के नेता और हाशिए में डाल दिए जाते हैं। सारे फैसले सर्वेक्षण करने वाली एजेंसियों की रिपोर्ट के आधार पर होते हैं। सर्वे के अलावा प्रदेश प्रभारी और प्रदेश के चुनाव प्रभारी की भूमिका होती है और अंत में सब कुछ नरेंद्र मोदी और अमित शाह को तय करना होता है। हर राज्य में लगभग यही तस्वीर दिखाई देती है। लेकिन हरियाणा में प्रदेश के नेता कुछ ज्यादा ही बेमतलब हो गए हैं। माना जा रहा है कि पूर्व मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर ही ज्यादातर फैसले करा रहे हैं। टिकट बंटवारे में भी खट्टर और कुछ हद तक आरएसएस की भूमिका सामने आ रही है। बचा खुचा काम प्रदेश के चुनाव प्रभारी धर्मेंद्र प्रधान और संगठन के प्रभारी बिप्लब देब कर रहे हैं।
तभी ऐस लग रहा है कि टिकट बंटवारे में न मुख्यमंत्री की कोई भूमिका रही और न प्रदेश अध्यक्ष की। अनिल विज और रामबिलास शर्मा जैसे पुराने और बड़े नेता तो पहले ही किनारे कर दिए गए हैं। लेकिन माना जा रहा था कि मुख्यमंत्री नए हैं और उनके चेहरे पर चुनाव लड़ा जा रहा है और प्रदेश अध्यक्ष भी नए हैं, जिनके जरिए ब्राह्मण वोट साधने की कोशिश हो रही है तो चुनाव लड़ाने में इनकी भूमिका होगी। लेकिन हकीकत यह है कि प्रदेश अध्यक्ष मोहनलाल बडौली की टिकट कट गई और उनको पता ही नहीं था। इस बार पार्टी ने उनको टिकट ही नहीं दिया। वे सोनीपत की राई सीट से विधायक हैं लेकिन उनकी जगह पार्टी ने कृष्णा गहलावत को टिकट दे दिया है। इससे पहले मुख्यमंत्री नायब सिंह सैनी की सीट बदल दी गई थी। वे करनाल से विधायक हैं लेकिन उनको लाडवा सीट पर लड़ने भेज दिया गया। मुख्यमंत्री को भी पता नहीं था कि उनकी सीट बदल रही है क्योंकि टिकटों की घोषणा से पहले तक वे कहते रहे थे कि वे करनाल ही लड़ेंगे। सोचें, जिन नेताओं की अपनी टिकट का पता नहीं है उन्होंने दूसरों को क्या टिकट दिलवाई होगी और क्या चुनाव लड़वाएंगे!