भारतीय जनता पार्टी ने झारखंड में पहले गैर आदिवासी मुख्यमंत्री का प्रयोग किया था। 2014 में विधानसभा चुनाव जीतने के बाद उसने रघुवर दास को मुख्यमंत्री बनाया था। यह प्रयोग काफी हद तक सफल रहा था। हालांकि 2019 के विधानसभा चुनाव में भाजपा हार गई और खुद रघुवर दास भी हार गए। लेकिन उसे 25 सीटें मिली थीं और सबने माना था कि कुछ सीटों पर टिकट का फैसला गलत हुआ और आजसू के साथ तालमेल नहीं करना भाजपा को भारी पड़ गया। तभी भाजपा ने अपने प्रयोग की दिशा बदल दी। 2019 की हार के बाद पार्टी ने बाबूलाल मरांडी की वापसी कराई। पहले उनको विधायक दल का नेता बनाया गया और बाद में वे प्रदेश अध्यक्ष बने। इस बार लोकसभा चुनाव में पार्टी के पास उनका आदिवासी चेहरा था और आजसू से तालमेल था तब भी पार्टी सभी पांच आदिवासी आरक्षित सीटों पर हार गई। भाजपा को एक एससी सीट और सात सामान्य सीट पर जीत मिली है। एक सामान्य सीट उसकी सहयोगी आजसू ने जीती है।
ऐसा नहीं है कि भाजपा ने आदिवासी राजनीति साधने के लिए सिर्फ एक बाबूलाल मरांडी पर भरोसा किया था। उनके साथ साथ कई बार राज्य के मुख्यमंत्री रहे और केंद्रीय मंत्री अर्जुन मुंडा को भी पार्टी ने बहुत तरजीह दी। उनको केंद्रीय मंत्री तो बनाया गया था साथ ही पिछले साल नरेंद्र सिंह तोमर के इस्तीफा देने के बाद उनको कृषि जैसा बड़ा मंत्रालय मिला था। लेकिन वे खुद अपनी सीट भी हार गए। तीसरे आदिवासी नेता मधु कोड़ा को भाजपा ने पार्टी में शामिल कराया था और उनकी पत्नी गीता कोड़ा को टिकट दी थी। लेकिन गीता कोड़ा भी चुनाव हार गईं। झारखंड के संस्थापक और सबसे बड़े आदिवासी नेता शिबू सोरेन की बहू और तीन बार की विधायक सीता सोरेन को भाजपा में शामिल करके दुमका से चुनाव लड़ाया गया था लेकिन वे भी चुनाव हार गईं। सोचें, तीन पूर्व मुख्यमंत्री- बाबूलाल मरांडी, अर्जुन मुंडा और मधु कोड़ा का आदिवासी नेतृत्व भी भाजपा के काम नहीं आया। भाजपा राज्य की पांचों आदिवासी आरक्षित सीटों- लोहरदगा, खूंटी, सिंहभूम, दुमका और राजमहल में हार गई। राज्य में दिसंबर में लोकसभा का चुनाव होना है। उससे पहले भाजपा को अपनी रणनीति के बारे में नए सिरे से विचार करना होगा।