यह लाख टके का सवाल है कि लालू प्रसाद और तेजस्वी यादव ने सारे किए धरे पर पानी क्यों फेर दिया? भाजपा और जनता दल यू के खिलाफ विपक्ष की साझा लड़ाई को दोनों ने क्यों कमजोर किया? क्या ये दोनों भी वैसे ही किसी परोक्ष दबाव में हैं, जैसे दबाव में बसपा की प्रमुख मायावती हैं? ध्यान रहे मायावती ने पिछला विधानसभा चुनाव पूरी तरह से निष्क्रिय होकर लड़ा और उसका नतीजा यह हुआ है कि 403 में उनकी पार्टी का सिर्फ एक विधायक जीता।
उसी तरह वे लोकसभा का चुनाव लड़ रही हैं। बिहार में लालू प्रसाद और तेजस्वी यादव भी बिल्कुल इसी अंदाज में लोकसभा चुनाव लड़ रहे हैं। उन्होंने कांग्रेस की मांगी लगभग सभी सीटों पर अपने उम्मीदवार उतार दिए। वह भी अपनी पार्टी के नेताओं को या अपने समीकरण के नेताओं को नहीं। ज्यादातर सीटों पर अपने समीकरण से बाहर के नेताओं और कई सीटों पर दूसरी पार्टियों से आए नेताओं को उम्मीदवार बनाया।
एक तरह से बिहार में लालू प्रसाद ने एनडीए को वॉकओवर दे दिया। अभी कांग्रेस और राजद का गठबंधन जिस स्थिति में दिख रहा है उसे देखते हुए लग रहा है कि अगर सब कुछ ऐसा ही रहा तो महागठबंधन को एक भी सीट नहीं मिलेगी। पिछली बार जीती किशनगंज सीट भी कांग्रेस गवां सकती है। लालू प्रसाद ने ऐसी स्थिति बना दी है कि कांग्रेस अकेले लड़े। इसका फायदा भाजपा गठबंधन को होगा। चुनाव से पहले ही धारणा बदल जाएगी। हालांकि राष्ट्रीय जनता दल के नेता किसी दबाव की बात को खारिज कर रहे हैं और उसे साजिश थ्योरी करार दे रहे है। उनका कहना है कि इसके पीछे राजनीतिक कारण है।
राजनीतिक कारण यह है कि लालू प्रसाद और तेजस्वी दोनों मान रहे हैं कि यह चुनाव उनका नहीं है। वे मान रहे हैं कि लोकसभा चुनाव भाजपा जीतती है तो जीत जाए वे विधानसभा चुनाव के लिए तैयारी कर रहे हैं। वे नीतीश कुमार और भाजपा के समीकरण में सेंध लगा रहे हैं ताकि विधानसभा चुनाव में मुस्लिम और यादव के अलावा दूसरा वोट जुड़े। वे अपने लोगों को टिकट देकर ज्यादा से ज्यादा सीटों पर संगठन और कैडर मजबूत कर रहे हैं ताकि विधानसभा चुनाव मजबूती से लड़ सकें। लेकिन लगातार दूसरी बार लोकसभा में जीरो पर आउट होने के बाद पार्टी मजबूती से लोकसभा का चुनाव लड़ पाएगी इसमें संदेह है।