भारत में कॉरपोरेट वार के कम ही किस्से हैं। देश में चुनिंदा कारोबारी हैं और सब मिल कर देश के संसाधनों का अपने फायदे के लिए इस्तेमाल करते हैं। रिलायंस समूह के धीरूभाई अंबानी और बॉम्बे डाइंग के नुस्ली वाडिया को छोड़ दें तो किसी बड़े कॉरपोरेट वार की चर्चा देश में नहीं हुई है। अगर कहीं हुई भी तो वह बहुत छोटा विवाद था, जिसे आसानी से निपटा लिया गया। लेकिन अब ऐसा लग रहा है कि क्रोनी कैपटलिज्म के बढ़ते दायरे और वित्तीय एजेंसियों को नियंत्रित करने के प्रयासों की वजह से देश में कॉरपोरेट वार की नई संस्कृति शुरू हुई है। सेबी और माधवी पुरी बुच का जो विवाद चल रहा है उसमें भी कॉरपोरेट वार का पहलू है। अन्यथा कोई कारण नहीं था कि जी समूह के सुभाष चंद्र इस मामले में कूदते और सीधे सेबी प्रमुख पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाते।
सुभाष चंद्रा की कंपनी के ऊपर दो हजार करोड़ रुपए के घोटाले का मामला चल रहा है, जिसकी जांच सेबी कर रही है। उन्होंने दावा किया है कि मयंक नाम का कोई व्यक्ति उनसे मिला था और उसने एक निश्चित कीमत के बदले केस खत्म कराने का प्रस्ताव दिया था। सुभाष चंद्रा इतने पर नहीं रूके। उन्होंने यह भी कहा कि सेबी ज्वाइन करने से पहले माधवी पुरी के परिवार की सालाना आय एक करोड़ थी, जो 40 करोड़ रुपए से ज्यादा हो गई है।
कॉरपोरेट वार का ही नतीजा है कि माधवी पुरी का विवाद शुरू होने के इतने दिन के बाद आईसीआईसीआई बैंक से उनको हुए भुगतान का ब्योरा सामने आया। ध्यान रहे अडानी समूह को लेकर हिंडनबर्ग रिसर्च की पहली रिपोर्ट आई थी उसी समय यह खबर आई थी कि एक दूसरे बड़े कॉरपोरेट घराने की शह पर यह रिपोर्ट आई है। एक बार फिर हिंडनबर्ग ने ही सेबी की जांच में अडानी समूह को क्लीनचिट मिलने के मामले पर सवाल उठाया और माधवी पुरी बुच के बारे में खुलासा किया। पिछले दिनों अनिल अंबानी सहित अनेक लोगों पर भारी भरकम जुर्माना सेबी ने लगाया और शेयर बाजार में कारोबार करने पर पाबंदी लगा दी। यह भी कॉरपोरेट वार का ही नतीजा लगता है। असल में शेयर बाजार अब अखाड़े में तब्दील हो गया दिख रहा है।