भारतीय जनता पार्टी को 16वीं और 17वीं लोकसभा में संसदीय समितियों की चिंता नहीं करनी पड़ी थी। यहां तक की लोक लेखा समिति यानी पीएसी को लेकर भी वह चिंता में नहीं थी। हर जगह भाजपा के सांसद भरे हुए थे। संसद की ज्यादातर स्थायी समितियों की अध्यक्षता सीधे भाजपा के हाथ में थी या उसकी सहयोगी पार्टियों के हाथ में थी। जिन संसदीय समितियों की अध्यक्षता विपक्षी पार्टियों को मिली थी उनमें भी बहुमत भाजपा और एनडीए का ही था। 16वीं लोकसभा में भाजपा की अपनी सीटें 284 थीं और 17वीं लोकसभा में 303 थीं। एनडीए के सांसदों की संख्या साढ़े तीन सौ के करीब थी। तभी भाजपा को संसद की स्थायी समितियों की चिंता नहीं करनी पड़ती थी। लेकिन 18वीं लोकसभा में तस्वीर बदल गई है। भाजपा 240 सीटों पर है और एनडीए की संख्या तीन सौ से नीचे आ गई है।
एनडीए की सीटें कम होने और विपक्ष की सीटों में बढ़ोतरी होने का सीधा नतीजा यह हुआ है कि अनेक स्थायी समितियां सत्तारूढ़ गठबंधन के हाथ से निकल गई हैं। कांग्रेस को कुल पांच संसदीय समितियों की अध्यक्षता मिल गई है, जिसमें एक लोक लेखा समिति है। इसके अलावा विदेश, कृषि, शिक्षा जैसे अहम मंत्रालय हैं। विपक्षी पार्टियों को कुल नौ स्थायी समितियों की अध्यक्षता मिली है। इसका असर आगे संसद के कामकाज पर दिखेगा। भाजपा को इस स्थिति का अंदाजा है इसलिए उसने अपने मुखर और पढ़ने लिखने वाले सांसदों को एक से ज्यादा स्थायी समितियों में रखा है। आमतौर पर एक सांसद एक ही स्थायी समिति का सदस्य होता है। लेकिन इस बार भाजपा ने अपने 28 सांसदों को एक से ज्यादा स्थायी समितियों में रखा है। उनको ऐसी समितियों में खासतौर से रखा गया है, जिनकी अध्यक्षता विपक्षी सांसद कर रहे हैं। विपक्ष के सिर्फ एक ही सांसद को दो स्थायी समितियों में जगह मिली है। वह सांसद हैं तृणमूल कांग्रेस के सुदीप बंदोपाध्याय। पता नहीं इसके बाद उनके प्रति ममता बनर्जी का क्या रुख होता है। वे दिल्ली में अपने सांसदों की गतिविधियों को लेकर हमेशा आशंकित रहती हैं।