विपक्षी पार्टियों के गठबंधन को भाजपा से यह गुण जरूर सीखना चाहिए कि घटक दलों के बीच वैचारिक विरोधों को किस तरह से हैंडल किया जाता है। विपक्षी पार्टियां तो मामूली बात पर आपस में लड़ने लगती हैं। लेकिन भाजपा बिल्कुल भिन्न विचार वाली पार्टी के साथ भी निभा लेती है। जैसे महाराष्ट्र में वह अजित पवार के साथ निभा रही है। अजित पवार ने महाराष्ट्र चुनाव प्रचार के बीच ‘बंटोंगे तो कटोगे’ के नारे का विरोध किया था। उन्होंने योगी आदित्यनाथ के दिए इस नारे के विरोध में यहां तक कहा कि उत्तर प्रदेश और बिहार में ऐसा नारा चलता होगा, महाराष्ट्र में नहीं चलेगा। उन्होंने भाजपा के साथ होते हुए भी उसकी सांप्रदायिक राजनीति को खारिज कर दिया था।
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इतना ही नहीं अजित पवार ने मुस्लिम उम्मीदवार भी उतारे और अपने एक मुस्लिम विधायक को राज्य की देवेंद्र फड़नवीस सरकार में मंत्री भी बनवाया है। नया घटनाक्रम यह है कि सरकार गठन के बाद महाराष्ट्र सरकार में शामिल तीनों पार्टियों के विधायकों को 19 दिसंबर को नागपुर में आरएसएस के मुख्यालय में बुलाया गया था। राज्य की दूसरी राजधानी नागपुर में ही विधानसभा का सत्र चल रहा था और वही आरएसएस का मुख्यालय भी है।
भाजपा और एकनाथ शिंदे की शिव सेना के सारे विधायक आरएसएस मुख्यालय गए लेकिन अजित पवार ने इनकार कर दिया। वे खुद भी नहीं गए और उनकी पार्टी के सिर्फ एक विधायक राजू कारमोरे संघ मुख्यालय में पहुंचे। बताया जा रहा है कि अजित पवार ने सभी विधायकों को निर्देश दिया था कि संघ मुख्यालय जाने की जरुरत नहीं है। ऐसा लग रहा है कि वे भले अभी भाजपा के साथ हैं लेकिन वे अलग होकर राजनीति करने की संभावना को जिंदा रखे हुए हैं। तभी वे अपने चाचा शरद पवार वाली राजनीति कर रहे हैं।