वैदिक मतानुसार वेद संसार की सभी विद्याओं का मूल है। वैदिक धर्म- संस्कृति के मूलाधार वेद शिक्षाओं के आगार और ज्ञान के भण्डार हैं। वेद में मनुष्य जीवन की समस्त समस्याओं का समाधान है। वेद सांसारिक तापों से सन्तप्त लोगों के लिए शीतल प्रलेप तुल्य, अज्ञानान्धकार में पड़े हुए मनुष्यों के लिए प्रकाश स्तम्भ समान, भूले-भटके लोगों के लिए सन्मार्ग प्रदर्शक हैं। वेद निराशा के सागर में डूबने वालों के लिए आशा की किरण, शोक से पीड़ित लोगों के लिए उत्साह, आनन्द एवं उल्लास का सन्देश प्रदायक हैं। अमूल्य रत्नों के भण्डार वेद पथभ्रष्टों को कर्तव्य का ज्ञान, अध्यात्मपथ के पथिकों को प्रभु-प्राप्ति के साधनों का ज्ञान प्रदान करते हैं। वेद वैदिक विज्ञान, राष्ट्रधर्म, समाज व्यवस्था, पारिवारिक जीवन, वर्णाश्रम धर्म, सत्य, प्रेम, अहिंसा, त्याग आदि के सम्बन्ध में सत्य ज्ञान प्रदान करता है। इसमें प्रकृति, धर्म, प्रार्थना, सदाचार आदि विषयों से सम्बन्धित ज्ञान की बातें सम्मिलित हैं। इसीलिए वैदिक ग्रन्थ सहित दर्शन, स्मृति, इतिहास, पुराण सर्वत्र वेद की महिमा गान से आख्यान भरे पड़े हैं। संसार के प्रथम स्मृति ग्रन्थ के रचयिता मनु महाराज मनुस्मृति में कहते हैं- सर्वज्ञानमयो हि सः।- मनुस्मृति 2/7
अर्थात- वेद सब विद्याओं के भण्डार हैं।
मनुस्मृति में ही एक स्थान पर मनु कहते हैं- वेद पितर, देव और मनुष्य सबके लिए सनातन मार्गदर्शक, नेत्र के समान है। चारों वर्ण, तीन लोक, चार आश्रम, भूत, भविष्यत और वर्त्तमान विषयक ज्ञान वेद से ही प्रसिद्ध होता है। यह सनातन अर्थात नित्य वेदशास्त्र ही सब प्राणियों का धारण और पोषण करता है, इसलिए मैं इसे मनुष्यों के लिए भवसागर से पार होने के लिए परम साधन मानता हूँ। मनुस्मृति 2/166 में उन्होंने कहा है-तप करना हो तो ब्राह्मण सदा वेद का ही अभ्यास करे, वेदाभ्यास ही ब्राह्मण का परम तप है। मनुस्मृति 2/168 के अनुसार जो द्विज अर्थात ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य वेद न पढ़कर अन्य किसी शास्त्र अथवा कार्य में परिश्रम करता है, वह जीते-जी अपने कुल सहित शीघ्र शूद्रता को प्राप्त हो जाता है। मनुस्मृति 6/37 के अनुसार जो वेदाध्ययन और यज्ञ न करके मुक्ति पाने की इच्छा करता है, वह नरक अर्थात दुःख विशेष को प्राप्त होता है। मनुस्मृति 3/2 के अनुसार क्रम से चारों वेदों का, तीन वेदों का, दो वेदों का अथवा एक वेद का अध्ययन करके, अखण्ड ब्रह्मचारी रहकर गृहस्थाश्रम में प्रवेश करना चाहिए।
महर्षि मनु ने ईश्वर को नहीं मानने वाले को नास्तिक नहीं बल्कि वेदनिन्दक को नास्तिक कहा है-
नास्तिको वेद निन्दकः ।- मनुस्मृति 2/11
अर्थात- वेद की निन्दा करने वाला ही नास्तिक कहलाता है।
दर्शन शास्त्रों में वेद को स्पष्ट रूप से ईश्वरीय विद्या कहा गया है, और वेदवचन को स्वतः प्रमाण माना है। वैशेषिक दर्शन10/1/3 में ईश्वर द्वारा उपदिष्ट होने से वेद को स्वतः प्रमाण कहा गया है-
तद्वचनादाम्नायस्य प्रामाण्यम्।।
अर्थात- ईश्वर द्वारा उपदिष्ट होने से वेद स्वतः प्रमाण हैं।
वेद की महिमा गान करते हुए वैशेषिक दर्शन 6/1/1 में कहा गया है कि वेद की वाक्य-रचना बुद्धिपूर्वक है-
बुद्धिपूर्वा वाक्यकृतिर्वेदे।
इस प्रकार स्पष्ट है कि वेद में सृष्टिक्रम विरुद्ध बातें नहीं हैं, इसलिए वह ईश्वरीय ज्ञान है। सांख्यकार महर्षि कपिल ने भी सांख्य दर्शन 5/ 46 में वेद को स्वतः प्रमाण मानकर कहा है कि वेद पौरुषेय-पुरुषकृत नहीं हैं, क्योंकि उनका रचयिता कोई पुरुष नहीं है। जीव अल्पज्ञ और अल्पशक्ति होने से समस्त विद्याओं के भण्डार वेद की रचना में असमर्थ है। वेद मनुष्य की रचना न होने से उनका अपौरूषेयत्व सिद्ध ही है। सांख्य दर्शन 5/49 के अनुसार वेद अपौरुषेयशक्ति से, जगदीश्वर की निज शक्ति से अभिव्यक्त होने के कारण स्वतः प्रमाण हैं। वेदान्त दर्शन1/1/3 के अनुसार भी वेदज्ञान ईश्वर-प्रदत्त है। वेदान्त दर्शन1/1/3 सूत्र का भाष्य करते हुए शंकराचार्य ने कहा है कि ऋग्वेदादि जो चारों वेद हैं, वे अनेक विद्याओं से युक्त हैं। सूर्यादि के समान सब सत्यार्थों का प्रकाश करने वाले हैं। उनको बनानेवाला सर्वज्ञत्वादि गुणों से युक्त सर्वज्ञ-ब्रह्म ही है, क्योंकि ब्रह्म से भिन्न कोई जीव सर्वगुणयुक्त इन वेदों की रचना कर सके ऐसा सम्भव नहीं है। मीमांसा कार जैमिनि ने तो धर्म का लक्षण ही वेद से सम्बद्ध बताया है-
चोदनालक्षणोर्थो धर्मः।।
– मीमांसा दर्शन 1/1/3
अर्थात- जिसके लिए वेद की आज्ञा हो, वह धर्म और जो वेदविरुद्ध हो वह अधर्म है।
इसी प्रकार मीमांसा 1/3/18 में कहा गया है-
नित्यस्तु स्याद्दर्शनस्य परार्थत्वात्।।
अर्थात- शब्द नित्य है, नाश रहित है, क्योंकि उच्चारण क्रिया से जो शब्द का श्रवण होता है, वह अर्थ ज्ञान के लिए ही है। यदि शब्द अनित्य होता तो अर्थ का ज्ञान न हो सकता।
इस प्रकार समस्त वैदिक ग्रन्थ एक स्वर से वेद के गौरव, नित्यता और स्वतः प्रमाणता का वर्णन करते हैं। ब्राह्मण ग्रन्थों में अनेक स्थानों पर वेद के महत्त्व का वर्णन किया गया है। तैत्तिरीय ब्राह्मण 3/10/11/3 में वेदों के अथाह ज्ञान के भंडार होने के सम्बन्ध में एक आख्यान अंकित है। आख्यान के अनुसार महर्षि भरद्वाज के द्वारा ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए तीन सौ वर्ष पर्यन्त वेदों का निष्ठापूर्वक गहन एवं गम्भीर का अध्ययन करते-करते भरद्वाज के अत्यन्त वृद्ध हो जाने के बाद भी उनको सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त नहीं हुआ। इस पर इन्द्र ने पर्वत के समान तीन ज्ञान राशिरूप वेदों को दिखाते हुए प्रत्येक राशि में से मुट्ठी भरकर भरद्वाज से कहा- -अनन्ता वै वेदाः। अर्थात- वेद तो अनन्त हैं। ज्ञान की राशिरूप वेद इन पर्वत के समान हैं, इनके ज्ञान का कहीं अन्त नहीं है। तीन सौ वर्ष में इस अनन्त ज्ञान-राशि से आपने तीन मुट्ठी ज्ञान प्राप्त किया है।
महाकाव्य भी वेद महिमा गान से अछूते नहीं हैं। इनमें वेद के स्वाध्याय की महिमागान मुख्य रूप से की गई है। वाल्मीकि रामायण अयोध्या काण्ड 54/24/25 में श्रीराम वनगमन के समय अनेक ब्राह्मण उनके साथ वनगमन का निश्चय कर कहते हैं -हे वत्स ! हमारा मन जो अब तक केवल वेद के स्वाध्याय की ओर ही लगा रहता था, अब उस ओर न लग आपकी वनयात्रा की ओर लगा हुआ है। हमारा परम धन वेद हमारे हृदय में है और हमारी स्त्रियाँ अपने-अपने पतिव्रत्य से अपनी रक्षा करती हुई घरों में रहेंगी। वेद की गौरव गरिमा का गान करते हुए महाभारत शान्तिपर्व 232/24 में कहा गया है कि सृष्टि के आरम्भ में स्वयम्भू परमेश्वर ने वेदरूप नित्य दिव्यवाणी का प्रकाश किया, जिससे मनुष्यों की प्रवृत्तियाँ होती हैं।
महर्षि यास्क रचित निरुक्त 1/18 के अनुसार वेद पढ़कर उसके अर्थों को नहीं जानने वाला भारवाही पशु अथवा वृक्ष के ठूँठ के समान है, परन्तु अर्थ को जानने वाला उस पवित्र ज्ञान के द्वारा अधर्म से बचकर परम पवित्र होता है। वह कल्याण का भागी होता है और अन्त में दुःखरहित मोक्ष-सुख को प्राप्त होता है। महर्षि दयानन्द सरस्वती ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, पठनपाठनविषयः में कहते हैं -वेद का पढ़ना-पढ़ाना और सुनना-सुनाना प्रत्येक आर्य का परमधर्म है। प्रतिदिन वेदपाठ कीजिए। न पढ़ने से पढ़ना उत्तम है। अर्थज्ञानसहित पढ़ने से ही परमोत्तम फल की प्राप्ति होती है, परन्तु न पढ़ने वाले से तो पाठमात्र-कर्त्ता भी उत्तम होता है। जो शब्दार्थ के विज्ञानसहित अध्ययन करता है वह उत्तमतर है, जो वेदों का अध्ययन कर उनके अर्थों को जानकर शुभ गुणों का ग्रहण और उत्तम कर्मों का आचरण करते हुए सर्वोपकारी होता है वह उत्तमोत्तम है। पुराण भी वेद की महिमा से भरे हुए हैं। श्रीमद्भागवत पुराण 6/1/40 के अनुसार जो वेद में कहा है, वही धर्म है और जो वेद के विरुद्ध है, वही अधर्म है। भगवान के श्वासमात्र से स्वयं प्रकट होने के कारण वेद साक्षात नारायण स्वरूप हैं।
कूर्म पुराण 46/129 के अनुसार एक ओर इतिहास सहित सम्पूर्ण पुराण और एक ओर परम वेद रखे जाने पर भी इनमें वेद ही परम हैं, महान हैं, श्रेष्ठ हैं। देवीभागवत पुराण 11/1/26-27 में वेद के महत्व को प्रतिपादित करते हुए कहा गया है कि धर्म के विषय में वेद ही प्रमाण है। -सर्वथा वेद एवासौ धर्ममार्गप्रमाणकः। भारतीय पुरातन ग्रन्थों में धर्म के विषय में वेद को ही प्रमाण माना गया है। जो कुछ वेद अविरुद्ध एवं वेदानुकूल है वही प्रामाणिक है, वेद के विरुद्ध एवं प्रतिकूल कुछ अन्य नहीं। वेद की महान महिमा का गान से पुराण आदि ग्रन्थ भरे पड़े हैं। वेद से बढ़कर कोई शास्त्र नहीं है और एकमात्र ॐ नामधारी परमात्मा से बढ़कर कोई देव नहीं है। वैदिक संस्कृति और सभ्यता के मूलाधार वेद संस्कृत साहित्य के मुकुटमणि हैं। वेद के समान दैदीप्यमान अन्य कोई ग्रन्थ नहीं। वेद मनुष्यमात्र की उन्नति और प्रगति के लिए दिव्य प्रकाश स्तम्भ के समान हैं। वेद की जितनी भी महिमा गान की जाय, कम ही है। तो बोलो वेद भगवान की जय।