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वेद पठन-पठान का सभी मनुष्यों को अधिकार

वेद

यजुर्वेद के 26/2 मन्त्र में उपमालङ्कार है। परमात्मा सब मनुष्यों के प्रति इस उपदेश को करता है कि वेदों के पढ़ने -पढ़ाने का सब मनुष्यों को अधिकार है, और विद्वानों को उनके पढ़ाने का। इसलिए ईश्वर आज्ञा देता है कि- हे मनुष्यों! जिस प्रकार मैं तुम को चारों वेदों का उपदेश करता हूं, उसी प्रकार से तुम भी उनको पढ़के सब मनुष्यों को पढ़ाया और सुनाया करो। क्योंकि यह चारों वेदरूप वाणी सब का कल्याण करने वाली है। तथा जैसे सब मनुष्यों के लिए मैं वेदों का उपदेश करता हूं, वैसे ही सदा तुम भी किया करो।

परमेश्वरोक्त ग्रन्थ वेद के सम्बन्ध में भांति- भांति की भ्रांतियां फैली हुई हैं। जैसे- वेदादि शास्त्रों के पठन- पाठन व श्रवण- श्रावण का अधिकार सब मनुष्यों को नहीं होने, वेदों के पढ़ने का अधिकार केवल तीन वर्णों- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य को ही होने, वेदों में शूद्रादि को वेदादि शास्त्र पढ़ने का निषेध किये जाने, द्विजों के पढ़ाने में भी केवल ब्राह्मण ही का अधिकार होने, आदि, आदि। इन विषयों को लेकर अक्सर ही विधर्मी और समाज के अहित में लगे सनातन विरोधी ईश्वर प्रदत्त सत्य ज्ञान की पुस्तक वेद पर विभिन्न प्रकार के आक्षेप करने से भी नहीं चुकते। लेकिन वैदिक ग्रन्थों के अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि वेदादि शास्त्रों के पठन- पाठन व श्रवण- श्रावण का अधिकार सब मनुष्यों का है, क्योंकि जो ईश्वर की सृष्टि है, उसमें किसी का अनधिकार नहीं हो सकता। जगत में यह देखा जा सकता है कि जो भी पदार्थ ईश्वर से प्रकशित हुए हैं, वे सब के उपकारार्थ हैं। और वेदों के पढ़ने का अधिकार केवल तीन वर्णों को ही होने, शूद्रादि को वेदादि शास्त्र पढ़ने का निषेध किये जाने, द्विजों के पढ़ाने में भी केवल ब्राह्मण ही का अधिकार होने आदि की बातें सब मिथ्या है।

स्वामी दयानन्द सरस्वती के अनुसार मूर्ख का नाम शूद्र है, और अतिमूर्ख का नाम अतिशूद्र है। उनके पठन – पाठन का निषेध इसलिए किया है कि उनको विद्याग्रहण करने की बुद्धि नहीं होती है। वैदिक मतानुसार मनुष्य जाति सब की एक है। मनुष्य जाति के ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र ये वर्ण कहाते हैं। वेदरीति से इन के दो भेद हैं- एक आर्य और दूसरा दस्यु। स्वामी दयानन्द सरस्वती सत्यार्थ प्रकाश के अष्टम समुल्लास में कहते हैं-

आदि सृष्टि में एक मनुष्य जाति थी। पश्चात- विजानीह्यार्य्यान्ये च दस्यवः। यह ऋग्वेद का वचन है। श्रेष्ठों का नाम आर्य, विद्वान् देव और दुष्टों के दस्यु अर्थात् डाकू, मूर्ख नाम होने से आर्य और दस्यु दो नाम हुए। उत शूद्रे उतार्ये वेद-वचन। आर्यों में पूर्वोक्त प्रकार से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र चार भेद हुए। द्विज विद्वानों का नाम आर्य और मूर्खों का नाम शूद्र और अनार्य अर्थात अनाड़ी नाम हुआ। इन दो भेदों का भान -असुर्या नाम ते लोका- इस मन्त्र से भी होता है। देव और असुर अर्थात विद्वान और मूर्ख ये दो ही भेद जाने जाते हैं। और इन्हीं दोनों के विरोध को देवासुर संग्राम कहते हैं। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ये चार भेद गुण कर्मों से किये गये हैं। इनका नाम वर्ण इसलिए है कि जैसे जिस के गुण कर्म हों, वैसा ही उस को अधिकार देना चाहिए। ब्रह्म अर्थात उत्तम कर्म करने से उत्तम विद्वान ब्राह्मण वर्ण होता है। परम ऐश्वर्य, बल वीर्य के होने से मनुष्य क्षत्रिय वर्ण होता है।

वेद मत में सब स्त्री पुरुषों का वेदादि शास्त्र पढ़ने सुनने का अधिकार है। ईश्वर ने तो स्वयं सब मनुष्यों के लिये वेद के पढ़ने और सुनने का अधिकार देने की घोषणा यजुर्वेद में किया है- यथेमां वाचं कल्याणीमावदानि जनेभ्यः। ब्रह्मराजन्याभ्यां शूद्राय चार्याय च स्वाय चारणाय।। प्रियो देवानां दक्षि॑णायै दातुरिह भूयासमयं मे कामः समृध्यतामुप मादो नमतु।।

-यजुर्वेद 26/2

अर्थात- यह चारों वेदरूप कल्याणकारिणी वाणी सब मनुष्यों – ब्राह्मण, क्षत्रिय, शूद्र, वैश्य, स्वाश्रित स्त्री- भृत्य आदि और अतिशूद्र आदि के के हित के लिए मैंने उपदेश की है, इस में किसी को अनधिकार नहीं है, जैसे मैं पक्षपात को छोड़ के सब मनुष्यों में वर्तमान हुआ प्यारा हूँ, वैसे आप भी होओ। ऐसे करने से तुम्हारे सब काम सिद्ध होंगे।

इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। परमात्मा सब मनुष्यों के प्रति इस उपदेश को करता है कि वेदों के पढ़ने -पढ़ाने का सब मनुष्यों को अधिकार है, और विद्वानों को उनके पढ़ाने का। इसलिए ईश्वर आज्ञा देता है कि- हे मनुष्यों! जिस प्रकार मैं तुम को चारों वेदों का उपदेश करता हूं, उसी प्रकार से तुम भी उनको पढ़के सब मनुष्यों को पढ़ाया और सुनाया करो। क्योंकि यह चारों वेदरूप वाणी सब का कल्याण करने वाली है। तथा जैसे सब मनुष्यों के लिए मैं वेदों का उपदेश करता हूं, वैसे ही सदा तुम भी किया करो।

कुछ लोग मन्त्र में अंकित जनेभ्यः – पद से सिर्फ द्विजों का ही अर्थ ग्रहण करते हुए सूत्र और स्मृति ग्रन्थों में पढ़ने के अधिकार से सम्बन्धित अंकित सभी विवरणियों में केवल द्विजों का ही ग्रहण करते हैं, जो ठीक नहीं। इसलिए सिर्फ द्विजों को ही वेद के पठन – पाठन का अधिकार होने की बात कहना भी झूठी बात है, क्योंकि जो ईश्वर का अभिप्राय द्विजों ही के ग्रहण करने का होता, तो मनुष्यमात्र को उनके पढ़ने का अधिकार कभी न देता। इस मन्त्र में ही इसका प्रत्यक्ष विधान करते हुए कहा गया है-

ब्रह्मराजन्याभ्यां शूद्राय चार्य्याय च स्वाय चारणाय।

अर्थात- वेदाधिकार जैसा ब्राह्मणवर्ण के लिए है, वैसा ही क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, पुत्र, भृत्य और अतिशूद्र के लिए भी बराबर है। क्योंकि वेद ईश्वर प्रकाशित है। जो विद्या का पुस्तक होता है, वह सब का हितकारक है। और ईश्वररचित पदार्थों के दायभागी सब मनुष्य अवश्य होते हैं। इसलिए उसका जानना सब मनुष्यों को उचित है। क्योंकि यह सब के पिता का सब पुत्रों के लिए है, किसी वर्णविशेष के लिए नहीं।

मन्त्र में आगे ईश्वर कहता है- जैसे मैं इस वेदरूप सत्यविद्या का उपदेश करके विद्वानों के आत्माओं में प्रिय हो रहा तथा जैसे दानी वा शीलवान् पुरुषों को प्रिय होता हूं, वैसे ही तुम लोग भी पक्षपातरहित होकर वेदविद्या को सुना कर सब को प्रिय हो। जैसे यह वेदों का प्रचाररूप मेरा काम संसार के बीच में यथावत् प्रचरित होता है, इसी प्रकार की इच्छा तुम लोग भी करो, कि जिस से उक्त विद्या आगे को भी सब मनुष्यों में प्रकाशित होती रहे। जैसे मुझ में अनन्त विद्या से सब सुख हैं, वैसे जो कोई विद्या का ग्रहण और प्रचार करेगा, उस को भी मोक्ष तथा संसार का सुख प्राप्त होगा।

इसके  अगले मन्त्र यजुर्वेद 26/2 बृहस्पतेऽअति यदर्यो में भी परमेश्वर ही का ग्रहण किया है। इससे सबके लिए वेदाधिकार है-

बृहस्पतेऽअति यदर्योऽअर्हा॑द् द्युमद्विभाति क्रतुमज्जने॑षु। यद्दीदयच्छवसऽ ऋतप्रजात तदस्मासु द्रवि॑णं धेहि चित्रम्। उपयामगृहीतोऽसि बृहस्पतये त्वैष ते योनिर्बृहस्पतये त्वा।।

-यजुर्वेद 26/2

अर्थात- हे मनुष्यो! जिससे बड़ा दयावान् न्यायकारी और अत्यन्त सूक्ष्म कोई भी पदार्थ नहीं वा जिसने वेद प्रकट करने द्वारा सब मनुष्य सुशोभित किये वा जिसने अद्भुत ज्ञान और धन जगत् में विस्तृत किया और जो योगाभ्यास से प्राप्त होने योग्य है, वही ईश्वर हम सब लोगों को अति उपासना करने योग्य है, यह तुम जानो।

वर्णाश्रमव्यवस्था भी गुणकर्मों के आचार विभाग से होती है। मनुस्मृति 10/ 65 में कहा गया है–

शूद्रो ब्राह्मणतामेति ब्राह्मणश्चैति शूद्रताम्।

क्षत्रियाज्जातमेवन्तु विद्याद्वैश्यात्तथैव च।।- मनुस्मृति 10/ 65

अर्थात- शूद्र ब्राह्मण और ब्राह्मण शूद्र हो जाता है। अर्थात गुण कर्मों के अनुकूल ब्राह्मण हो तो ब्राह्मण रहता है तथा जो ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के गुण वाला हो तो वह क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र हो जाता है। वैसे शूद्र भी मूर्ख हो तो वह शूद्र रहता और जो उत्तम गुणयुक्त हो तो यथायोग्य ब्राह्मण क्षत्रिय और वैश्य हो जाता है। वैसे ही क्षत्रिय और वैश्य के विषय में भी जान लेना।

यदि शूद्र को वेदादि पढ़ने का अधिकार न होता तो वह ब्राह्मण, क्षत्रिय वा वैश्य के अधिकार को कैसे प्राप्त हो सकता?  इससे यह निश्चित जाना जाता है कि पच्चीसवें वर्ष में वर्णों का अधिकार ठीक ठीक होता है , क्योंकि पच्चीस वर्ष तक बुद्धि बढ़ती है। इसलिए उसी समय गुण कर्मों की ठीक ठीक परीक्षा करके वर्णाधिकार होना उचित है। आपस्तम्बसूत्र – प्रपाठक 2/ पटल 5/ खं॰ 11/ सू॰ 10- 11 के अनुसार धर्माचरण करने से नीचे के वर्ण पूर्व पूर्व वर्ण के अधिकार को प्राप्त हो जाते हैं। सो केवल कहने ही मात्र को नहीं,  किन्तु जिस-जिस वर्ण को जिन जिन कर्मों का अधिकार है, उन्हीं के अनुसार वे यथावत प्राप्त होते हैं। तथा अधर्माचरण करके पूर्व पूर्व वर्ण नीचे नीचे के वर्णों के अधिकारों को प्राप्त होते हैं, इससे यह सिद्ध है कि वेदों के पठन- पाठन व श्रवण- श्रावण का अधिकार सब मनुष्यों को बराबर है।

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By अशोक 'प्रवृद्ध'

सनातन धर्मं और वैद-पुराण ग्रंथों के गंभीर अध्ययनकर्ता और लेखक। धर्मं-कर्म, तीज-त्यौहार, लोकपरंपराओं पर लिखने की धुन में नया इंडिया में लगातार बहुत लेखन।

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