हम 2024 के अंतिम दौर में हैं और पीछे मुड़ कर जायज़ा ले सकते हैं कि साल कैसा गुज़रा।
शुरू से शुरू करते हैं। सन 2024 की शुरूआत रामजी के स्वागत के साथ हुई। अयोध्या में राम मंदिर का उद्घाटन काफी तड़क-भड़क के साथ हुआ। भावनाओं का ज्वार उफान पर था। हर घर भगवान के स्वागत के लिए आतुर था और हर तरफ ‘जय श्रीराम’ के उद्घोष सुनाई दे रहे थे। भगवा रंग फैशन में था और यहां तक कि दिल्ली के खान मार्केट को ‘राम मार्केट’ तक कहा जाने लगा था। राजनीतिक पंडितों को पक्का भरोसा था कि नरेन्द्र मोदी की भाजपा जबरदस्त बहुमत के साथ सत्ता में वापिस आएगी। कहा जाता है कि जो नैरेटिव निर्धारित करता है, जीत उसी की होती है। नैरेटिव पर मोदीजी का कब्ज़ा था। जाहिर है जीत उन्हीं की होनी थी। यह भी कहा गया कि ‘विचारधारात्मक कारणों’ से आने वाला चुनाव महत्वपूर्ण होगा।
सर्दियाँ विदा हुईं और वसंत आया। चुनाव अब काफी नज़दीक थे। शुरू में माहौल में न तो रोमांच था और ना ही शोर-शराबा। बल्कि चुनावी परिदृश्य काफी उदास सा था। फिर, कांग्रेस छोड़कर भाजपा में जाने वाली के एक वक्तव्य ने देश का माहौल बदलकर रख दिया। पहले दौर का मतदान समाप्त होते-होते मूड में आया यह बदलाव भाजपा के स्टार प्रचारक मोदी की चाल-ढाल में दिखता होने लगा। ‘अब की बार चार सौ पार’ का नारा कहीं गुम हो गया। चुनावी भाषण काफी आक्रामक और निम्न स्तरीय हो गए। मंच से गालियाँ दी जानी लगीं। खतना, मुजरा आदि जैसे शब्द गूंजने लगे।
चुनाव प्रचार के दौरान अपनी यात्राओं में मुझे मोदी के बारे में कम, और विपक्ष के बारे में ज्यादा सुनाई देने लगा। महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे एक सशक्त आवाज़ बन कर उभरे और उनके फेंस की संख्या बहुत बढ़ गई। झारखंड में हेमंत सोरेन को जनता की हमदर्दी हासिल हुई। पश्चिम बंगाल में दीदी को जनता के दिल में अपनी जगह बनाए रखने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगाना पड़ा और शेष भारत में छोटी-सी लाल किताब (संविधान) लोकप्रिय हो गई। मतदान के सातों दौरों में, सूरज आग बरसाता रहा और मतदाता खामोश रहे। यहां तक कि मोदी के वाराणसी में भी कोई जोश नजर नहीं आया।
चार जून को भारत के मतदाताओं ने अहंकार और हेकड़ी को बुरी तरह से कुचला। उन्होंने अतीत के बारे में झूठी बातों, प्रोपेंगेंडा, मुखौटों और उन खतरों को भांप लिया जो भारत के इंडिया और इंडिया के भारत के सामने उपस्थित थे। भारत की जनता ने मोदी और उनके साथियों का कद घटा दिया। और उनके गठबंधन को भी कमज़ोर कर दिया। जनता का विवेक जागृत हुआ और उसने विपक्ष को सशक्त बनाया। सबसे बड़ी बात यह कि उसने विपक्ष में भरोसा दर्शाया। और एक क्षण के लिए ऐसा लगा कि लोकतंत्र पुनःस्थापित हो गया है।
जबरदस्त गर्मी में मोदी के प्रति उन्माद कम ही महसूस किया गया। वे भी कम सक्रिय रहे और चुनावी गर्मी तथा मौसमी गर्मी से बचने लिए अधिक विदेश यात्राएं करने लगे। उन्होंने घरेलू राजनीति, घरेलू राजनीतिज्ञों के भरोसे छोड़ दी। विज्ञापनों और उद्घाटन-शिलान्यास के कार्यक्रमों में कमी आई। हरियाणा और जम्मू-कश्मीर के चुनावों में भी उनकी भागीदारी कम ही रही।
लेकिन सात महीने और एक जोरदार मानसून के बाद चार राज्यों में चुनाव हुए और मोदी व उनके लोगों का कद और ताकत दुबारा बढ़ गए। खासतौर पर महाराष्ट्र में एक आश्चर्यजनक जबरदस्त जीत के बाद ऐसा लगता है कि मोदी ने अपना खोया हुआ आत्मविश्वास दुबारा हासिल कर लिया। इस बीच विपक्षी एकता में दरारें साफ नजर आने लगीं। उनकी एकता टूटने लगी और उस पर सवालिया निशान लग गए। इंडिया गठबंधन का भविष्य एक बार फिर कम सुनहरा लगने लगा। टूट-फूट, ताने, अनुचित टिप्पणियां होने लगीं, अहं के टकराव होने लगे, नेतृत्व को लेकर खींच-तान होने लगी और राज्यों के चुनाव अलग-अलग लड़ने का सिलसिला जारी रहा।
जहां तक राहुल गांधी का सवाल है, लोकसभा चुनाव के बाद से एक समृद्ध विरासत के ये वारिस केवल संसद के सत्रों के दौरान अतिसक्रिय नजर आते हैं। बाकी समय वे वही दिखते हैं जिसके लिए वे मशहूर हैं – राजनीति के प्रति उदासीन। यह भारतीय राजनीति के लिए दुर्भाग्यपूर्ण है कि राजनीति के मूलभूत तत्वों – संगठन, मतदाताओं को जोड़ने और उत्साहित करने – में राहुल गांधी सक्षम और कुशल नज़र नहीं आ रहे हैं। यह भी भारतीय राजनीति और विचारधारा के नैरेटिव की दृष्टि से दुर्भाग्यपूर्ण है कि राहुल गांधी सक्रिय राजनीति से दूर होकर नेतृत्व किसी और को, मसलन अपनी बहन प्रियंका गांधी को, सौंपने के लिए तैयार नहीं हैं। इन सात महीनों के दौरान अडानी के बारे में सही बातें कहने के बावजूद वे लोकसभा चुनाव में हासिल बढ़त को इस्तेमाल कर अपनी स्थिति और मजबूत बनाने में विफल रहे। वे अपनी कमजोर होती और बिखरती पार्टी को पुनर्जीवित करने और उसे सुधारने में भी विफल रहे। बल्कि जिस विचारधारा को अपनाया है, उसके चलते पार्टी काफी हद तक वामपंथ की ओर खिसक गई है – वह पार्टी जो पिछली पीढ़ियों में उच्च-जातियों की एक मध्यमार्गी पार्टी मानी जाती थी।
अब साल खत्म होने को है। ठिठुरन भरी सर्दी और धुंध का दौर दुबारा आ गया है। उसके साथ ही पिछले साल की अनिश्चितता की स्थिति भी दुबारा बन गई है। यह साल हमारे देश में लोकतंत्र के लिए अच्छा रहा। क्या नए साल में लोकतंत्र दुबारा लड़खड़ाने लगेगा? क्या नरेन्द्र मोदी दुबारा वह सब हासिल कर लेंगे जो 2024 में उनसे छिन गया था? या फिर राहुल गांधी को जनता के रूख और उनकी जरूरतों का अहसास होगा और वे एक फुलटाइम राजनीतिज्ञ की तरह व्यवहार करना शुरू करेंगे? पहली स्थिति बनने की संभावना अधिक नजर आती है।
क्या हम देश में एक पूर्णतः नया माहौल बनते देखेंगे? क्या मतदाता अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करेंगे? क्या युवा, जिन्होंने मोदी के राज में सिर्फ बेरोजगारी भुगती है, हवा का रूख बदलेंगे? क्या भारत में बांग्लादेश जैसा कुछ होगा? या युवा भारत ‘बटोगे तो कटोगे‘ के नैरेटिव में खौया रहेगा। यह वह समय है जब हमें आने वाले वक्त के बारे में सोचना होगा, सोचना चाहिए। (कॉपी: अमरीश हरदेनिया)