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किसानों की आत्महत्याएं और मशाल!

चुनाव-2024, ग्राउंड रिपोर्ट: यवतमाल से श्रुति व्यास

‘मशाल जलेगी यहां, मशाल!’ ,प्रह्लाद राऊत ने ऊंचे स्वर में, हाथ में मशाल पकड़े होने की मुद्रा बनाते हुंकारा मारा। आवाज में गुस्सा तो सहानुभूति और दृढ़ संकल्प भी। और प्रहलाद राऊत जैसे बहुत से लोग यवतमाल में आपको मिलेंगे। यवतमाल की लड़ाई पूरी तरह से राजनैतिक है; शिवसेना (ठाकरे) बनाम शिवसेना (शिंदे)। यह लड़ाई अभिमान, प्रतिष्ठा वदबदबे को प्रमाणित करने की है।

लोकसभा क्षेत्र के हर कोने में सरगर्मी, उत्तेजना है। मुकाबला शिवसेना (ठाकरे) के संजयराव देशमुख और एकनाथ शिंदे की शिवसेना की पैराशूट उम्मीदवार राजश्री पाटिल की बीच है। मुकाबला तब और कड़ा और रोचक हो गया जब अविभाजित शिवसेना की पांच बार सांसद रही भावना गवली एक्टीव हुई। हालांकि वे क्या करेंगी वह अभी सस्पेंश में है। उनका इस सीट पर बहुत असर है। इस सीट पर गावली ने 1999 और 2004 में वाशिम सीट से और परिसीमन के बाद यवतमाल-वाशिम सीट से 2009, 2014 और 2019 के चुनाव जीते। वे राजनीतिज्ञों के परिवार से ताल्लुक रखती हैं। उनके पिता पुंडीकराव गवली, शिवसेना के वरिष्ठ नेता थे और सांसद भी रहे। उनके कारण गवली का राजनैतिक दबदबा बना।

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पर यवतमाल राजनीति के लिए प्रसिद्ध नहीं है। वह किसानों की आत्महत्याओं के लिए कुख्यात है। यहां कोई उद्योग नहीं है लगभग सभी लोग अपना पेट भरने के लिए काश्तकारी पर निर्भर हैं। किसान आत्महत्या का पहला मामला 1987 में सामने आया था और तब से आत्महत्या करने वाले किसानों की संख्या बढ़ती ही जा रही है। सन् 2001 से लेकर 2023 के बीच करीब 5,400 किसानों ने अपनी जान ले ली। अकेले 2003 में 302 किसानों ने आत्महत्या की। ये संख्याएं डरावनी हैं और जमीनी स्तर पर किसानों की दयनीय स्थिति को देखना आसान नहीं है।

लीलाधर चावरे पर पहले से ही कर्ज चढ़ा हुआ था। मगर जब यवतमाल में रेल की पटरी बिछाने का काम शुरू हुआ तब उन्हें आशा की एक किरण दिखी। उनकी जमीन तो जा रही थी मगर उन्हें एक बड़ी धनराशि मुआवजे के रूप में मिलनी थी। आज दो साल बाद उनकी जमीन छिन चुकी है, ट्रेन की पटरी बिछ चुकी है, हालांकि वह यवतमाल शहर तक नहीं पहुंचती लेकिन वे अब भी मुआवजे का इंतजार कर रहे हैं।

‘‘सब झूठे हैं, चोर हैं‘‘ वे कहते हैं। उनके चेहरे पर उतना ही गुस्सा है जितना प्रहलाद राऊत के चहरे पर।

राजू शिवराम दारे का दावा है ‘‘मशाल तो जलेगी’।

लोग गुस्से से उबल रहे हैं। लेकिन यह गुस्सा किसके लिए हानिकारक होगा, यह साफ नहीं है।

जिन लोगों से मैंने बात की उनमें से कई भावना गवली से नाराज नहीं हैं। बल्कि उन्हें उनके प्रति सहानुभूति है। इलाके के खबरनवीस पूरे विश्वास से कहते हैं कि अगर मोदी और शाह ने भावना को टिकट दिया होता तो लड़ाई कांटे की होती और शायद परिणाम एकनाथ शिंदे की शिवसेना के पक्ष में जाता।

तो क्या मोदी का जादू काम करेगा, जैसा कि यवतमाल के युवा कहते हैं। विडंबना यह है कि यवतमाल के ये युवा भारतीय अर्थव्यवस्था की प्रगति से तो प्रसन्न हैं परंतु उनके अपने यवतमाल की अर्थव्यवस्था की बदहाली उन्हें क्या परेशान नहीं करती?

‘‘बहुत प्राब्लम तो हैं हमारे यहां मगर मोदीजी का काम देश में सबसे बेस्ट है”। यह कहना है इस बार पहली बार वोट देने जा रहे कृष्णा ठाकरे का।
‘‘क्या काम बेस्ट है”, मैं पूछती हूं।

‘‘इकोनोमी कितनी आगे हो गई है”। वे प्रशंसा भाव से कहते हैं।

यह दिलचस्प है कि प्रधानमंत्री मोदी ने 2014 और 2019 के चुनावों में अपना प्रचार यवतमाल से शुरू किया था और इस बार भी उन्होंने इसी इलाके को अपने चुनाव अभियान के उद्घाटन के लिए चुना।

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2024 के चुनाव में यहाँ प्रतिष्ठा,अहंम, बदले की जिद्द में आर-पार की लड़ाई है। एक ओर है उद्धव ठाकरे का अहं और दूसरी ओर मोदी-शाह का। मगर इससे जाति समीकरणों की भूमिका कम नहीं हो जाती।

यवतमान-वासिम सीट पर कोई 21 लाख मतदाताओं में से लगभग पांच लाख कुनबी-मराठा और मराठा हैं। जबकि करीब 3.25 लाख से लेकर 3.75 लाख तक बंजारा समुदाय के मतदाता हैं। इस क्षेत्र में करीब 2.75 लाख आदिवासी और उतने ही दलित मतदाता भी हैं। करीब 2.50 लाख वोटर मुसलमान हैं और इतने ही ओबीसी भी हैं।
एकनाथ शिंदे की शिवसेना की उम्मीदवार राजश्री पाटिल को मराठाओं के वोट मिलने की संभावना है वहीं गवली की जाति के घटोले मराठा और गैर-ओबीसी मराठा शायद इस बार ठाकरे की शिवसेना का साथ देंगे। बंजारा नेता जैसे मंत्री संजय राठौड (शिंदे शिवसेना) और यवतमाल के इंद्रनील नायक सत्ताधारी दल के पक्ष में प्रचार कर रहे हैं। मगर सुनील महाराज के नेतृत्व में बंजारों के एक तबके ने ठाकरे से हाथ मिला लिया है। फिर यह संभावना भी है कि मुसलमान और दलित ठाकरे की शिवसेना के साथ होंगे और बीजेपी अपने पारंपरिक ओबीसी व सामान्य वर्ग के मतदाताओं को अपने साथ जोड़े रखे।

किसी को भी ऐसा लग सकता है कि यवतमाल में किसानों की बदहाली और उनकी आत्महत्याएं चुनावी मुद्दा होना चाहिए मगर उसकी वजाय यहां जाति, गुस्सा, भावनाएं और अहं मुख्य मुद्दे और उस पर लड़ाई हैं। भाजपा के कहने पर शिंदे की शिवसेना द्वारा अंतिम क्षणों में गवली की जगह राजश्री पाटिल को उम्मीदवार बनाने का फैसला मुश्किल भरा हो सकता है।

यवतमाल में ज्यादा राजनीति दिखी। वैसे यह ध्यान रहेयह वह इलाका है जहां से चुने गए उम्मीदवार 13 साल तक राज्य के मुख्यमंत्री रहे हैं।यह सीट पुरानी यवतमाल एवं वाशिम सीटों के कुछ हिस्सों को मिलाकर यवतमाल-वाशिम सीट बनी है। 2009 में सीट बनी और उसके बाद से यह शिवसेना का गढ़ बन गई। इसके पहले तक यवतमाल एवं वाशिम दोनों लोकसभा सीटों पर कांग्रेस की गढ़ थी। सन् 1951 से 1991 तक कांग्रेस उम्मीदवार यवतमाल सीट से जीतते रहे। 1996 में भाजपा ने इस सीट से विजय प्राप्त की लेकिन 1998 में वह इस सीट से हार गई। फिर 2004 में भाजपा ने इस सीट पर दुबारा कब्जा कर लिया।

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पुरानी वाशिम लोकसभा सीट पर 1977के बाद ज्यादातर चुनावों में कांग्रेस जीती. उसके बड़े नेताओं जैसे महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री वसंतराव नाईक (1977), अनंतराव देशमुख (1989 एवं 1991) और पूर्व मुख्यमंत्री सुधाकरराव नाईक (1998) ने इस सीट का प्रतिनिधित्व किया। दिलचस्प बात यह है कि कश्मीरी मुसलमान और जम्मू एवं कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री गुलाम नबी आजाद वाशिम सीट से दो बार विजयी हुए। सन् 1980 के चुनाव में उन्होंने 1,51,378 वोटों के बड़े अंतर से जीत हासिल की और फिर 1989 में वे दुबारा इसी सीट से जीते। सन् 1991 तक कांग्रेस यहां से विजयी होती रही। लेकिन 1996 में शिवसेना ने यह सीट जीती और 1998 में कांग्रेस ने यह सीट दुबारा हासिल कर ली। लेकिन 1999 और 2004 में शिवसेना ने फिर से यहां जीत का परचम लहराया।

शिवसेना और कांग्रेस के बीच झूलती यवतमाल-वाशिम सीट पर अंततः शिवसेना ने अपनी मजबूत पकड़ बनाई। कांग्रेस आंतरिक खींचतान के चलते राजनीतिक दृष्टि से कमजोर होती गई, जिसका लाभ बाद में एक हद तक शिवसेना की भावना गवली को मिला। इसलिए मुकाबला उद्धव ठाकरे बनाम मोदी-शाह-शिंदे में प्रतिष्ठा की लड़ाई है। मगर यवतमाल (पूरे विदर्भ) में भी चुनाव की स्थिति को वर्णित करने के लिए जो सबसे सही वाक्य मुझे लगा है वह यही है कि “जो है, वह दिखता नहीं है और जो दिखता है वह होता नहीं है”। (कॉपी: अमरीश हरदेनिया)

By श्रुति व्यास

संवाददाता/स्तंभकार/ संपादक नया इंडिया में संवाददता और स्तंभकार। प्रबंध संपादक- www.nayaindia.com राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय राजनीति के समसामयिक विषयों पर रिपोर्टिंग और कॉलम लेखन। स्कॉटलेंड की सेंट एंड्रियूज विश्वविधालय में इंटरनेशनल रिलेशन व मेनेजमेंट के अध्ययन के साथ बीबीसी, दिल्ली आदि में वर्क अनुभव ले पत्रकारिता और भारत की राजनीति की राजनीति में दिलचस्पी से समसामयिक विषयों पर लिखना शुरू किया। लोकसभा तथा विधानसभा चुनावों की ग्राउंड रिपोर्टिंग, यूट्यूब तथा सोशल मीडिया के साथ अंग्रेजी वेबसाइट दिप्रिंट, रिडिफ आदि में लेखन योगदान। लिखने का पसंदीदा विषय लोकसभा-विधानसभा चुनावों को कवर करते हुए लोगों के मूड़, उनमें चरचे-चरखे और जमीनी हकीकत को समझना-बूझना।

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