हम उस लोकलुभावनवाद के दौर में हैं जहां सबकुछ भावनाओं से हैं। नस्ल, धर्म और चेहरों से बनती-भडकती वे भावनाएं जो अंतिम क्षण तक मूड बदलती रहती है। अब पुरानी धारणाएं और गणित सही नहीं बैठतीं। एक अश्वेत पुरूष ठीक उसी तरह ट्रंप और रिपब्लिकन पार्टी को वोट दे रहा है, जैसे एक दलित भाजपा और मोदी को वोट देता है।
मुकाबला नजदीकी और कड़ा था। सभी बता रहे थे, मान रहे थे। मगर नतीजे ऐसे नहीं है। डोनाल्ड जे. ट्रंप की न केवल रोमांचक जीत है बल्कि दो टूक बहुमत वाली हैं। वे संसद, सीनेट के बहुमत से अमेरिका के 47वें राष्ट्रपति बन रहे है।
जाहिर चुनाव नतीजे कई लोगों को धक्का पहुंचाने और हैरान करने वाले है। असल में ऐसा है नहीं। इस चुनाव में ट्रम्प पिटे हुए मोहरे थे, बेचारे थे। वे मुकदमों से घिरे हुए थे, कई प्रकरणों में दोषसिद्ध घोषित किये जा चुके थे, उनके आलोचक उनकी अनवरत निंदा कर रहे थे, प्रबुद्धजन उनका मखौल बना रहे थे और 6 जनवरी की उनकी कारगुजारियों के कारण वे डरावने लग रहे थे। कुल मिलकर, मुकाबले की शुरूआत में उनकी छवि विलेन की थी।
वहीं कमला हैरेस, जो बाइडन के मैदान छोड़ने के बाद जब मुकाबले में उतरीं तो प्रचार, चर्चाओं, शोर-शराबे और हंगामे के केन्द्र में थी। ट्रंप और बाइडन दोनों की तुलना में युवा और जोशीली कमला हैरेस का अपना कथानक था, जो आपके और मेरे जैसे सहज विश्वासी लोगों की आँखों में आंसू लाने और उन्हें गौरवान्वित महसूस करवाने वाला था। वे मानों आधुनिक सीता थीं, जो रावण का मुकाबला करने के लिए तैयार थीं और पूरी मजबूती से खड़ी थीं। उनमें वह सब कुछ था जो उन्हें अख़बारों के पहले पन्ने पर जगह दे सकता था। जनमत संग्रह भी इसी धारा में बह रहे थे। उनका ध्यान प्रचार-प्रसार की ओर था। उन्हें मूड में बदलाव महसूस हो रहा था। वे दुबारा उत्साह-उमंग को बढ़ते देख रहे थे, खासतौर पर डेमोक्रेटस में।
मगर सबने अंडरकरेंट को अनदेखा किया। सभी जनमत संग्रहों में हैरेस को आगे बताया जाने लगा और बाकि लोग भी उसे सही मानने लगे।
चुनावी सर्वेक्षणों और ओपिनियन पोलों में यही कमी है। वे किसी भी राज्य में जिस दल का प्रचार-प्रसार अधिक देखते है, उसके पक्ष में जनता है, ऐसा मान लेते हैं और फिर अपनी इस मान्यता को अन्य राज्यों पर भी लागू कर देते हैं। हमने भारत में देखा कि सर्वेक्षणकर्ता और एक्जिट पोल करने वाले इस हद तक गलत साबित हुए कि वे उपहास का पात्र बन गए। यही अमेरिका में दिखा हैं। सभी स्थानों पर जनता की नब्ज पकड़ने की बजाए, उन्होंने सारे देश को एक ही रंग में रंग दिया – और अमेरिका में वह रंग कमला हैरिस का था।
चुनाव की तारीख नजदीक आते-आते चुनावी सर्वेक्षण कमला हैरेस को निर्णायक रूप से आगे बताने लगे, जबकि ट्रंप को कुंठाग्रस्त और थका हुआ देखा जा रहा था। ऐसे दावे किए जा रहे थे कि हैरेस के साथ चुनावी बहसों में ट्रंप घबराए हुए और व्यग्र हैं। उनकी रैलियों को चमक-दमक हैरेस की रैलियों की तुलना में फीकी है। लेकिन असल में ट्रंप मतदाताओें के मन को छू रहे थे। उन्होंने अपनी 900 रैलियों में आप्रवासन, अर्थव्यवस्था और विदेशी मामलों को लेकर कठोर डायलाग बोले। मतदाताओं पर असर हुआ। यदि ऐसा नहीं होता तो ट्रंप फ्लोरिडा की मियामी-डाडे काउंटी में 1988 के बाद जीत हासिल करने वाले पहले रिपब्लिकन नहीं बन पाते। इस काउंटी में हिस्पैनिकों का जबरदस्त बहुमत है। इसकी एक वजह यह भी हो सकती है कि पुराने आप्रवासियों को नए घुसपैठिए फूटी आंख न सुहा रहे हों।
कल्पना कीजिये कि आप अमरीकी भारतीयों की दूसरी पीढ़ी हैं। आपने अमेरिका में रोजगार और अच्छी जिंदगी हासिल करने के लिए कड़ा संघर्ष किया। अंततः अपनी योग्यता के बल पर सफलता हासिल की। अब सीरियाई, अफगान, फिलिस्तीनी और अन्य देशों के लोग अवैध रूप से अमेरिका पहुंच रहे हैं और अपनी दुःख भरी दास्तानों की वजह से अमेरिकी समाज में स्थान बना रहे हैं। आपको नौकरी हासिल करने में और आपके बच्चे को विश्वविद्यालय में प्रवेश के लिए प्रतियोगिता का सामना करना पड़ रहा है। जबकि र उन्हें योग्यता नहीं बल्कि मानवीयता के आधार पर काम मिल रहा है, उनके बच्चों को दाखिले मिल रहे हैं। आप किसे चुनेंगे – उस श्वेत पुरूष को जो आपको पसंद आने वाली बातें करता है या उस अश्वेत महिला को जोअपने अप्रवासी माता-पिता के संघर्षपूर्ण जीवन का रोना रो रही है?
चुनाव परिणामों से साफ़ है कि मतदाताओं ने दोनों विकल्पों में से किसे चुना।
हैरेस ने मतदाताओं की उस पीढ़ी को तो प्रभावित किया जो अमेरिका में अमेरिकी की तरह बड़े हुए, लेकिन वे उन लोगों को अपने पक्ष में करने में असफल रहीं जो अपने माता-पिता के साथ अमेरिका पहुंचे थे। इसी का नतीजा है कि ट्रंप ने शानदार जीत हासिल की। उन्हें शहरी और ग्रामीण दोनों क्षेत्रों के मतदाताओं का समर्थन 2020 में जो बाइडन के खिलाफ लड़े गए चुनाव की तुलना में काफी अधिक मात्रा में मिला। वे लैटिन अमरीकी और अश्वेत पुरूषों सहित गैर-श्वेत समुदायों का पहले से ज्यादा समर्थन हासिल करने में सफल रहे। और आश्चर्यजनक रूप से हिस्पैनिक्स का भी। कमला हैरेस के लिए सबसे निराशाजनक नतीजा टेक्सास का रहा जहां हिस्पेनिक्स का काफी बोलबाला है। इस बात की प्रबल संभावना है कि ट्रंप को हासिल होने वाले कुल मतों की संख्या भी हैरेस से अधिक रहे। इसके अलावा, यह अनुमान भी गलत साबित हुआ कि पहली महिला राष्ट्रपति को चुनने के लिए महिलाएं बड़े पैमाने पर मतदान करेंगीं।
आने वाले दिनों में इस मुद्दे पर बहुत कुछ लिखा जाएगा कि कमला क्यों हारीं? अखबार कहेंगे कि जो बाइडन ने उम्मीदवारी छोड़ने की घोषणा करने में बहुत देर की, पॉडकॉस्टों में कहा जाएगा कि डेमोक्रेट्स ने अपना आकर्षण खो दिया। लेकिन हमें यह स्वीकार करना होगा कि अमेरिका एक महिला राष्ट्रपति के लिए अभी भी तैयार नहीं है। एक अश्वेत महिला का राष्ट्रपति पद हासिल करने का सपना, खासकर श्वेत अमरीका के लोग कतई साकार नहीं करना चाहते।
अब, जबकि चुनावी साल समाप्ति की ओर है तो चुनावी सर्वेक्षणकर्ताओं और भविष्यवक्ताओं को लम्बी छुट्टी पर जाकर आत्मचिंतन करना चाहिए। हम उस लोकलुभावनवाद के दौर में हैं जहां सबकुछ भावनाओं से हैं। नस्ल, धर्म और चेहरों से बनती-भडकती वे भावनाएं जो अंतिम क्षण तक मूड बदलती रहती है। अब पुरानी धारणाएं और गणित सही नहीं बैठतीं। एक अश्वेत पुरूष ठीक उसी तरह ट्रंप और रिपब्लिकन पार्टी को वोट दे रहा है, जैसे एक दलित भाजपा और मोदी को वोट देता है।
जहां तक लोकतंत्र का सवाल है, वह शायद खतरे में है लेकिन दिखावा यही किया जाता है कि ऐसा नहीं है। जैसा कि हमने भारत में और अब अमेरिका में देखा, तीव्र ध्रुवीकरण के बावजूद बहुमत हासिल किया जा सकता है। जब तक ट्रंप और मोदी जैसे लोगों का हाथ जनता की नब्ज पर रहेगा, और वे जनता को लुभाने वाली वाली बातों और भावनाओं का खेला बनाते रहेंगे, कमला हैरेस और राहुल गांधी के लिए जीत सपना बनी रहेगी। पूरब से पश्चिम तक लोकलुभावन राजनीति का बोलबाला है। और यह इस समय का अंतिम सत्य है। (कॉपी: अमरीश हरदेनिया)