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भारत और अमेरिकी चुनाव में समानता!

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वहां के माहौल और हमारे देश में हाल में हुए आमचुनाव में एक चीज़ समान है – और वह है डर, खौफ।
….अमेरिकी चुनाव भी पिछली गर्मियों में हुए भारतीय चुनाव जितने ही विभाजनकारी हैं।

अगर आप अमेरिकी चुनाव पर नजर रखे हुए हैं तो महसूस हुआ होगा कि वहां के माहौल और हमारे देश में हाल में हुए आमचुनाव में एक चीज़ समान है – और वह है डर, खौफ।

संदेह नहीं खौफ से वोट मिल सकते हैं, सत्ता मिल सकती है, ग्लैमर और चमक-दमक मिल सकती है – लेकिन खौफ से समस्याएं हल नहीं होतीं। खौफ बहुत से अमेरिकी नागरिकों को घर से निकल कर अपना वोट डालने के लिए मजबूर करेगा। और यही खौफ कई अमेरीकियों को मतदान से दूर रहने के लिए भी मजबूर करेगा।

यह जाहिर हो रहा है कि अमेरिकी और ब्रितानी व यूरोप का मीडिया उत्साह से कमला हैरिस का समर्थन कर रहा है। जिन मशहूर लोगों को आप टीवी के परदे पर देखते हैं, जिन गायकों को आप शौक से सुनते हैं और जिन लेखकों को पढ़ते हैं – वे सभी हैरिस की संभावित जीत को लेकर गदगद हैं। आपने यह भी देखा होगा कि टिम वाल्ज़ की रैलियों में लोगों में भरपूर उल्लास रहता है।

पर खौफ आपको लड़ने की ताकत देता है। ट्रंप के चार साल के शासनकाल और उसके बाद 6 जनवरी की राजधानी में हिंसा ख्याल आते ही डोनाल्ड ट्रंप के और चार साल के लिए सत्ता में आने की कल्पना मात्र से सिहरन पैदा हो जाती है। रोमांच गायब हो जाता है और डरे हुए लोग, आगे भी डरे रहने से बचने की जुगत में लग जाते हैं।

दूसरे खेमे में भी डर है। कमला हैरिस के राष्ट्रपति बनने पर कौन-कौन सी विकट स्थितियां बन सकती हैं, उनके बारे में बातें करके ट्रंप ने जनता में डर पैदा कर दिया है। वे कह रहे हैं कि विक्षिप्त अपराधियों उर्फ अवैध आप्रवासियों उर्फ पशुवत लोग अमेरिका को बरबाद कर चुके है, अमेरिका को दुबारा महान नहीं बनने देंगे। देश में अपराध और हिंसा बढेगी, अमेरिका नस्लीय टकराव का शिकार होगा और श्वेतों का बोलबाला समाप्त हो जाएगा।

एक पक्ष हिंसा, प्रतिशोध और नफरत भरी बातें कर रहा है और दूसरा पक्ष समावेशिता, संतुलन और सद्भाव का वादा कर रहा है। एक तरफ है निरंकुशता और दूसरी ओर लोकतंत्र का संरक्षण। लेकिन खौफ दोनों तरफ है।

दोनों उम्मीदवार – हमारे देश के उम्मीदवारों की तरह – इस ध्रुवीकरण का उपयोग और अधिक ध्रुवीकरण करने के लिए कर रहे हैं। ट्रंप की हत्या के दो असफल प्रयासों से उनका बड़बोलापन भी बढ़ा है। चुनाव में उनकी स्थिति भी बेहतर हुई है। एपी/एनओआरसी के एक सर्वेक्षण के अनुसार तीन-चौथाई अमरीकी चुनावों के बाद की हिंसा के संभावित खतरे से चिंतित हैं। खबरों के मुताबिक व्यापारी, दुकानदार और संस्थान चुनाव नतीजे के बाद उत्पन्न होने वाली समस्याओं का मुकाबला करने की तैयारी गुपचुप तरीके से कर रहे हैं। औसत अमरीकी भी अपेक्षाकृत कम खर्चीले तरीके अपनाकर ऐसा कर रहे हैं। कुछ टाइलेट पेपर जमा कर  रहे हैं, कुछ  टासेर बंदूकें (जो बिजली से झटके से कुछ समय के लिए सामने वाले व्यक्ति को पंगु बना देती हैं) खरीद रहे हैं। कुछ तो अपनी पालतू मछलियों के लिए एंटीबायोटिक का भी स्टॉक जुटा रहे हैं! संभावित अशांति के मद्देनजर कुछ मीडिया संस्थाओं ने अपने प्रतिनिधियों को युद्धग्रस्त क्षेत्रों से वापिस बुलाकर अन्य स्थानों पर तैनात कर दिया है।

दूर से देखने पर यह बदलाव नहीं बल्कि तबाही का मंजर नजर आता है। हम जानते हैं कि अमेरिकी चुनाव भी पिछली गर्मियों में हुए भारतीय चुनाव जितने ही विभाजनकारी हैं। ध्रुवीकरण, साम्प्रदायिक हिंसा, अल्पसंख्यक, असहिष्णुता, गृहयुद्ध आदि जैसी शब्दावली हम पिछले दस वर्षों से हर चुनाव के दौरान बार-बार सुनते आ रहे हैं। ऐसा ही अमेरिका में भी हो रहा है। हम भी पिछले चुनाव के समय चिंताग्रस्त थे। दिलों की धड़कनें तेज थीं और व्यग्रता शिखर पर थी। आगे क्या होगा, इसकी चिंता सभी के मन में थी। राजनीति घातक हो सकती है और ध्रुवीकरण नुकसानदायक। लेकिन भारत ने सफलतापूर्वक इन सबका सामना किया। मुझे लगता है कि अमेरिका भी ऐसा कर लेगा। गृहयुद्ध की आशंकाएं आधारहीन हैं। भले ही हैरिस और ट्रंप में कड़ा मुकाबला हो, लेकिन जब भय हावी हो और भावनाएं प्रबल हों, तब जनता का मूड भांपने में गलती हो सकती है।

भय और अधिक भय उत्पन्न करता है। राजनीतिक हिंसा भड़कने की संभावना के भय के चलते लोग मुस्तैद हैं। अमेरिका में स्थानीय अधिकारियों ने हालात का मुकाबला करने की मुकम्मल तैयारी की है। मिशिगन और फिलेडेलफिया जैसे क्षेत्रों के संवेदनशील इलाकों में कटीली बाड़ लगा दी गई है, चुनावी कार्यों से जुड़े कर्मचारियों को विशेष फोन नंबर दिए गए हैं जिन पर डराए-धमकाए जाने पर वे  कानून लागू करने वाली संस्थाओं से संपर्क कर सकते हैं। पुलिस भी पूरी तरह तैयार है।  पैनिक बटन फिट कर दिए गए हैं और ड्रोन तैनात हैं। चुनाव अधिकारियों ने भी मतदान पेटियों के सीधे प्रसारण सहित कई उपाय किए हैं, ताकि चुनावी प्रक्रिया पर लोगों का भरोसा बढ़ाया जा सके।

इस साल पतझड़ में हो रहे अमरीकी चुनावों पिछली ग्रीष्म ऋतु में हुए भारतीय चुनावों जैसे ही है। भय लोकतंत्र का इम्तहान लेता लग रहा है। थोड़ी गड़बड़ी और अफरातफरी होना स्वाभाविक है, लेकिन इतिहास अपने आपको बहुत जल्दी नहीं दुहराता। प्रबल संभावना यही है कि अमेरिकी लोकतंत्र को भी – भारतीय लोकतंत्र की तरह – कोई हानि नहीं होगी। सब सामान्य होगा!        (कॉपी: अमरीश हरदेनिया)

By श्रुति व्यास

संवाददाता/स्तंभकार/ संपादक नया इंडिया में संवाददता और स्तंभकार। प्रबंध संपादक- www.nayaindia.com राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय राजनीति के समसामयिक विषयों पर रिपोर्टिंग और कॉलम लेखन। स्कॉटलेंड की सेंट एंड्रियूज विश्वविधालय में इंटरनेशनल रिलेशन व मेनेजमेंट के अध्ययन के साथ बीबीसी, दिल्ली आदि में वर्क अनुभव ले पत्रकारिता और भारत की राजनीति की राजनीति में दिलचस्पी से समसामयिक विषयों पर लिखना शुरू किया। लोकसभा तथा विधानसभा चुनावों की ग्राउंड रिपोर्टिंग, यूट्यूब तथा सोशल मीडिया के साथ अंग्रेजी वेबसाइट दिप्रिंट, रिडिफ आदि में लेखन योगदान। लिखने का पसंदीदा विषय लोकसभा-विधानसभा चुनावों को कवर करते हुए लोगों के मूड़, उनमें चरचे-चरखे और जमीनी हकीकत को समझना-बूझना।

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