क्या अमेरिका के लिए दुःख है? बिलकुल नहीं। ट्रंप और अमेरिका दोनों को वह मिला है जिसके वे लायक थे। जैसे हमें वह मिला है जिसके हम लायक हैं।
डोनाल्ड ट्रंप की इतनी शानदार वापिसी क्यों और कैसे हुई? यह सवाल अचंभे, बल्कि सदमे का सोर्स बना रहेगा। लोगों को रह-रहकर सताता रहेगा। इससे एक कदम और आगे बढ़कर, लंबे समय तक सभी को अमेरिकियों की मानसिकता, उनकी बुद्धिमत्ता और नैतिकता पर प्रश्नचिन्ह लगाने का मौका मिलेगा। भला अमेरिकी कब से इतने सिद्धान्तहीन, नैतिकताविहीन है!
अमेरिका ने ट्रंप को असाधारण जीत दी है। वे पिछले दो दशकों में पहले रिपब्लिकन हैं जिसे मतदाताओं ने बहुमत से जीताया है। ट्रम्प के पहले 1892 में ग्रोवर क्लीवलैंड ऐसे राष्ट्रपति थे जिसके दो कार्यकालों के बीच अन्तराल रहा। द इकोनॉमिस्ट के अनुसार यह तुलना ट्रम्प की उपलब्धि के साथ न्याय नहीं करती क्योंकि ग्रोवर के काल का अमेरिका, ट्रंप के दौर के अमेरिका से बहुत अलग था।
कमला हैरेस ने अपनी एक रैली में नाराजगी भरे लहजे में कहा था कि डोनाल्ड ट्रंप अमेरिका का प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं। उन्होंने कहा था, “हम उनके जैसे नहीं हैं”। मेरे ख्याल से उनका आशय ट्रंप की नस्लवादी सोच, उनमें प्रतिशोध के भाव, महिलाओं के प्रति उनकी नफरत और उनके फासिज्म की तरफ बढ़ते क़दमों से था। लेकिन रिपब्लिकन पार्टी के लाल रंग से भरा, ट्रंप के असर से दहकता, अमेरिका का नया नक्शा बता रहा है कि अमेरिका भी ठीक ट्रंप जैसा ही है। ट्रंप के प्रति सहानुभूति के चलते अमेरिकी समाज के हर रंग, हर तबके ने उन्हें वोट दिया। उन्होंने न केवल परंपरागत रूप से कड़े मुकाबले वाले राज्यों में जीत हासिल की, बल्कि उन राज्यों में भी वे विजयी रहे जो डेमोक्रेट पार्टी के मजबूत गढ़ थे।
ट्रंप को जनादेश तो मिला ही है, साथ ही संसद पर भी उनका नियंत्रण कायम हो गया है, जो बिना रोकटोक के सरकार चलने के लिए जरूरी था। किसने सोचा होगा कि ट्रंप सारी दुनिया के लिए एक नए राजनैतिक दौर का प्रतीक बनेंगे। ट्रम्प ने राजनीति में सिर्फ इसलिए प्रवेश किया था कि उन्हें गंभीरता से लिया जाए और वे विद्वानों के साथ उठ-बैठ सकें। अप्रैल 2011 में व्हाईट हाऊस कॉरस्पोंडेंट एसोसिएशन के डिनर में उन्हें बराक ओबामा के निर्मम कटाक्षों का सामना करना पड़ा था। उन्हें एक बेहूदा व्यक्ति माना जाता था। फिर उन्होंने तय किया कि वे फुलटाइम राजनेता बनेंगे। इसका मकसद था राजनैतिक कुलीन वर्ग को उसकी औकात दिखाना। और उन्होंने वह कर दिखाया।
हर दूसरे अमेरिकी ने ट्रंप को वोट दिया क्योंकि उन्हें लगा कि राजनैतिक कुलीन वर्ग उनकी खिल्ली उड़ाता है। ओबामा, क्लिंटन, बाइडन, यहां तक कि बुश और कैनेडी तक, से एक औसत अमरीकी रिश्ता कायम नहीं कर सका। जनता के लिए इन कुलीनों तक पहुंचना लगभग असंभव था। इन कुलीनों को लोगों की ज़िन्दगी की सच्चाईयों की न तो जानकारी थी और न परवाह। लोगों को महसूस होता था कि उन्हें हाशिए पर पटक दिया गया है, उन्हें पूछने वाला कोई नहीं है। जब हैरिस ‘जॉय’ (आनंद) की बात करती थीं, तो उन्हें गुस्सा आता था। महंगाई आसमान छू रही थी, रईस और रईस होते जा रहे और श्रमजीवी वर्ग के लिए जीना मुहाल था क्योंकि तनख्वाहें बढ़ नहीं रही थीं, अवसर सीमित थे और भ्रष्टाचार ज़िन्दगी का हिस्सा बन गया था।
इस सबके बीच हैरिस ने कभी ऐसा कुछ नहीं कहा जिससे ऐसा लगता कि वे बदलाव लाएंगी। निसंदेह एक व्यक्ति के रूप में वे स्वयं बदलाव की प्रतिनिधि थीं मगर उनकी नीतियां और अमेरिका व अमेरीकियों के लिए उनकी योजनाओं में बदलाव कहीं नज़र नहीं आ रहा था। ऐसा लगता था कि अगर वे राष्ट्रपति बनीं तो मानों बाइडन का कार्यकाल चार साल और बढ़ जाएगा। वे पूर्व राष्ट्रपति की राह पर ही चलेंगी। जब वे कहती थीं कि “हम पीछे नहीं हटेंगे” तो वे लोगों में स्थायित्व की आशा जगाने की बजाय, यह भय पैदा करती थीं कि हालात वैसे के वैसे रहेंगे। गार्डियन की एक रपट के मुताबिक, जब उसके संवाददाता ने एक मुसलमान महिला से पूछा कि अरब मूल के लोग और मुसलमान आखिर क्यों ट्रम्प का इतना ज़बरदस्त समर्थन कर रहे हैं तो उसका ज़वाब था, “हमें उनमें विश्वास है….हम मानते हैं कि वे युद्ध ख़त्म करवा सकते हैं क्योंकि जब वे राष्ट्रपति थे उन चार सालों में एक भी युद्ध नहीं हुआ।” संवाददाता भौचक्का रह गया।
निंसंदेह करोड़ों मतदाताओं ने ट्रम्प के खिलाफ वोट दिया। लेकिन वे उनसे ज्यादा संख्या में लोगों को यह समझाने में सफल रहे कि जिस अमेरिका को वे जानते-पहचानते हैं, वह गायब हो रहा है। और आर्थिक, सांस्कृतिक और जनसांख्यिकीय दृष्टियों से उनका देश खतरे में है। अब अमेरिका आल्हादित है कि उसने एक मुजरिम को अपना राष्ट्रपति चुना है। उसे कोई पछतावा नहीं है। ट्रम्प बेझिझक झूठ पर झूठ बोलते गए, उनके खिलाफ की जा रही काल्पनिक साजिशों के किस्से सुनाते रहे, मगर लोग उन्हें सच्चा मानते रहे। ट्रम्प को अदालतों ने भले ही अपराधी माना हो, भले ही उन पर धोखाधड़ी और यौन शोषण के गंभीर आरोप हों, भले ही वे अपनी भद्दी भाषा और दूसरों को बदनाम करने के लिए जाने जाते हों मगर अमेरीकियों ने मान लिया है कि अगर ट्रम्प कह रहे कि उन्हें प्रताड़ित किया जा रहा है, उन्हें निशाना बनाया जा रहा है, तो वे ठीक ही कह रहे होंगे।
फिर, उनकी एक स्ट्रोंगमैन की छवि भी थी। एक ऐसा आदमी जिसने पिछले चार सालों में अनेक राजनैतिक और कानूनी ठोकरें खाईं मगर हार नहीं मानी। वर्ल्ड रेसलिंग एंटरटेनमेंट (डब्ल्यू.डब्ल्यू. ई) के प्रमुख पहलवानों जैसे अंडरटेकर और हल्क होगन ने ट्रम्प का समर्थन कर उनकी स्ट्रोंगमैन की छवि को और मजबूत किया। सर्वेक्षणों के अनुसार, बहुसंख्यक पुरुषों – चाहे वे श्वेत हों या अश्वेत- ने ट्रम्प को वोट दिया। हैरिस महिलाओं के एक तबके को अपने पक्ष में करने में सफल रहीं। मगर हैरिस-समर्थकों से असहमत महिलाओं की कमी नहीं थी। ऐसी ही एक महिला की टिपण्णी मैंने किसी अंतर्राष्ट्रीय रिपोर्ट में पढी थी। उसने कहा, “अगर ये (हैरिस समर्थक) महिलाएं सोच रही हैं कि गर्भपात का अधिकार ही असली समस्या है तो समस्या उनके साथ है। वे ज़िन्दगी के यथार्थ से दूर हैं…ट्रम्प यथार्थ की बातें करते हैं।”
इसमें कोई संदेह नहीं कि अमेरिका और ट्रम्प एक हो गए हैं? क्या अमेरिका के लिए दुःख है? बिलकुल नहीं। दोनों को वह मिला है जिसके वे लायक थे। जैसे हमें वह मिला है जिसके हम लायक हैं।
मगर मुझे यह दुःख ज़रूर है कि पिछले दस सालों से मैं एक ऐसी दुनिया में रह रही हूँ जो बुरी तरह विभाजित और ध्रुवीकृत है। और आगे भी रहेगी। और ऐसा भी नहीं है कि ये विभाजन विचारधारात्मक अंतरों के कारण है, या इनके पीछे दुनिया को देखने के अलग-अलग नज़रिए हैं। बिलकुल नहीं। आज हालात ये हैं कि यदि आप उनका समर्थन नहीं करते, तो आप बहिष्कृत हो जाते हैं। अगर आप उनकी भाषा में नहीं बोलते तो आपको चुप करा दिया जाता है, आपको कठघरे में खड़ा कर दिया जाता है। मैं ऐसी दुनिया में अपने आप को पाकर दुखी हूँ जिसमें ईंट का जवाब पत्थर से देना एकमात्र विकल्प माना जाता है, जहाँ विश्वास का संकट है। मगर हमें शांत रहना है और इसी दुनिया में रहना है जिसमें उम्मीद पर डर हावी रहेगा। (कॉपी: अमरीश हरदेनिया)