संयुक्त राज्य अमेरिका और सोवियत संघ एक समय वैश्विक महाशक्तियां कहलाते थे और पूरी दुनिया में उनकी तूती बोलती थी। दुनिया दोनों के बीच बंटी हुई थी। दोनों एक दूसरे से बड़े बनना चाहते थे। उनका संघर्ष तीखा और रूखा था। यद्यपि इन दोनों देशों के बीच तकनीकी रूप से शांति थी, वे आपस में जंग नहीं लड़ रहे थे। लेकिन दोनों के बीच आक्रामक और महंगी हथियारों की दौड़ चलती थी। लातिनी अमेरिका, अफ्रीका और एशिया में खूनी युद्ध होते थे। अमेरिका के नेतृत्व वाले पूंजीवादी देशों और सोवियत संघ के नेतृत्व वाले कम्युनिस्ट गुट के बीच दुनिया में अपना दबदबा कायम करने के लिए प्रतियोगिता चलती रहती थी। इसलिए इस नजर न आने वाले युद्ध को शीतयुद्ध का नाम दिया गया था। शीत यद्ध 46 साल तक रहा। वह सोवियत संघ के टूटने के साथ ही समाप्त हुआ।
तब से अब तक हमें कई शीतयुद्धों का सामना करना पड़ा है। बल्कि तीसरे विश्व युद्ध की बातें भी हो रही हैं। हालांकि हमारे कुछ समाचार चैनलों को देखकर ऐसा लगता है कि हम 50वें विश्व युद्ध तक पहुंच गए हैं!
पंकज मिश्रा इसे “गुस्से का युग” कहते हैं तो फरीद जकारिया ने अपनी ताज़ा पुस्तक में सुझाया है कि हम “क्रांतियों के युग” में जी रहे हैं। हैनरी किसिंजर का मानना था कि एआई के भयावह नतीजे हो सकते हैं और वे इसे “एआई का युग” बताते थे। फिर यह सर्वनाश का युग तो है ही।
निःसंदेह ऐसे हालात बनना शुरू हो गए हैं कि आज की दुनिया बीते गुज़रे ज़माने की दुनिया जैसी लगने लगी है, जिसमें साम्राज्य और बड़ी शक्तियां आपसी मुकाबलों में उलझी हुई साफ नजर आ रही हैं। दुनिया में अब दो की बजाय कई ध्रुव हैं। अब कई गैर-पश्चिमी बड़ी और मध्यम दर्जे की ताकतें भी बहुराष्ट्रीय गठबंधन बना रही हैं। कुछ मामलों में तो अलग-अलग उद्देश्यों की पूर्ति के लिए उनके मित्रों के अलग-अलग सेट हैं। फिर भी वैश्विक व्यवस्था में अमेरिका और रूस का वर्चस्व साफ नजर आता है।
पंद्रह अगस्त 2021 को हमने अफगानिस्तान से अमेरिका का नियंत्रण खत्म होते और बिना खून बहे तालिबान को वहां की सत्ता पर काबिज होते देगा। हमने वहां के हवाईअड्डे के रनवे पर अफरातफरी के हालात देखे, अफगानियों के भय और चिंता को देखा। अमेरिका का काबुल से भागना, 1975 में उसके सैंगोन के भागने जैसा था। वैश्विक भू-राजनीति में यह कम ही होता है कि दुनिया का सबसे बलशाली देश दूसरी बार फिर एक कमजोर शत्रु से पराजित हो जाए!
अब आएं 8 दिसंबर 2024 पर। सीरिया में सत्ता बशर-अल असद के हाथों से फिसलती गई और सीरियाई विद्रोहियों ने दस दिन से भी कम समय में देश पर कब्जा कर लिया। रूस तमाशा देखता रहा। भूमध्यसागर क्षेत्र में अपने पैर जमाने के लिए रूस दशकों से जो सैन्य एवं राजनैतिक प्रयास कर रहा था, वे खतरे में पड़ गए हैं। और साथ ही व्लादिमिर पुतिन के अहं और महत्वाकांक्षाओं को भी खासी चोट पहुंची है।
और सबसे चौंकाने वाली बात है कि इन दोनों महाशक्तियों को वैश्विक जिहादियों एक-एक बार बुरी तरह से पराजित किया है।
इससे महाशक्तियों के बारे में क्या निष्कर्ष निकाले? यदि मैं बेलाग शब्दों में कहूं तो इसका मतलब है कि जो गरजते हैं, वो बरसते नहीं। और उनका पाखंड भी साफ़ नज़र आता है।
रूस गंभीर आर्थिक, राजनैतिक और सामाजिक समस्याओं से जूझ रहा है। वह बूढों का देश बनता जा रहा है और 2050 तक उसकी जनसंख्या 10 प्रतिशत तक घट जाने का अनुमान है। भ्रष्टाचार बहुत ज्यादा है और क्रेमलिन तय करता है कि कौन समृद्ध बनेगा और समृद्ध बना रहेगा। हालांकि ओबामा ने रूस को एक अस्त होती शक्ति कहा था, पर पुतिन किसी तरह उसका महाशक्ति का दर्जा बनाए रखने में सफल रहें हैं। रूस के सर्वोच्च नेता का मानना है कि यदि रूस एक बड़ी शक्ति बना नहीं रह पाता तो बाकी सब बेकार है। और इस उद्धेश्य से वह एक आत्मनिर्भर वैश्विक शक्ति बना रहना चाहता है। एक हफ्ते पहले तक इसका मतलब होता कि जिस टकराव से रूस सीधे-सीधे जुड़ा हुआ है – यानि यूक्रेन – वहां हालात उसके काबू से बाहर न चले जाएं। इसका यह मतलब भी था कि अमरीका और रूस की सेनाओं के बीच सीरिया में जो टकराव हो रहे थे, वे युद्ध में न बदल जाएँ। या किसी बड़े साइबर हमले के जवाब में सेनाएं मैदान में न उतर जाएँ। मगर असद के पतन के साथ, यह सब बेमानी हो गया है। पुतिन जो चाहते हैं, उसके विपरीत, युद्ध का ‘शांतिपूर्ण’ अंत हो सकता है। ऐसी रपटें भी हैं कि सीरिया में शिकस्त से रूस, अफ्रीका में जो करना चाह रहा है, उस पर भी विपरीत असर पड़ सकता है।
जहाँ तक अमेरिका का सवाल है, सन 1970 के दशक में सोवियत संघ की प्रगति में ठहराव के बाद से उसे पहली बार एक गंभीर और संगठित विरोधी पक्ष का सामना करना पड़ रहा है, जिसका नेतृत्व चीन के हाथ में है। अगले महीने डोनाल्ड ट्रम्प अमरीका के राष्ट्रपति बनने जा रहे हैं और उसके बाद कई यूरोपीय देश भी चीन के शिविर में अपनी आमद दर्ज करवा सकते हैं। अमेरिका को एक जटिल और उसके प्रति शत्रुता का भाव रखने वाली दुनिया से सामना करना पड़ रहा है। देश के अन्दर भी राजनैतिक हालात बेहतर नहीं हैं। रिपब्लिकन पार्टी ‘एकला चलो रे” की नीति की हामी बन गई लगती है। अमेरिका की अफ़ग़ानिस्तान में दुर्गति हुई, पश्चिम एशिया में उसके कूटनीतिक प्रयास कामयाब नहीं हो रहे हैं और इजराइल उसे अंगूठा दिखा रहा है। इससे ऐसा लगता है कि वैश्विक परिदृश्य में उसका दबदबा कम हुआ है। युद्धों में अमेरिका की असफलता के चलते उस पर पाखंडी होने और युद्ध भड़काने के आरोप लग रहा हैं।
कुल मिलाकर, ऐसा लग रहा है कि अमेरिका, चीन और रूस – ये तीनों महाशक्तियां बूढी हो रही हैं। भारत में भी सफ़ेद बाल वालों की आबादी में इज़ाफा हो रहा है। भारत कुछ कर सकता है मगर यहाँ की राजनीति कटुतापूर्ण है। यूरोप अपने घर को ही नहीं सम्हाल पा रहा है। लोकलुभावनवाद वहाँ भी पहुँच गया है। ऐसी कई पुस्तकें और विद्वतजन हैं जो यह भविष्यवाणी कर रहे हैं कि पूरी दुनिया में तानाशाह उभरेंगें और प्रजातंत्र सिकुड़ता जाएगा।
सबके लिए आने वाला समय अंधकारमय लग रहा है। सिवाय इस्लामिक विद्रोहियों, वैश्विक जिहादियों के। उन पर आतंकी होने का लेबल चस्पा होने के बावजूद, वे एक मुस्लिम देश की नियति को पलटने में कामयाब रहे हैं। पश्चिम कमज़ोर हो रहा है, महाशक्तियां बुढा रही हैं और इस सबके बीच, जिहादियों की सफलताओं – पहले अफ़ग़ानिस्तान में और फिर सीरिया में – ने उन्हें गर्व और उम्मीद से भर दिया है। (कॉपी: अमरीश हरदेनिया)