आसमान धधक रहा है। नीले, हरे, सफेद, भूरे- प्रकृति के सभी हसंते-खिलखिलाते विविध रंग रूआंसे हैं। अल सुबह 6 बजे ही मुझे घर के पर्दे खींचने पड़ते हैं क्योंकि उस समय भी सूरज के तेवर दोपहर जितने तीखे हो जाते हैं। हवा को जैसे बुखार चढ़ा हुआ है और मुझे महसूस होता है मानों मुझे बुखार हो। जहां एयर कंडीशनर ठंडक नहीं दे पा रहे हैं वही पंखे झुलसाने वाली गर्म हवा फेंक रहे हैं। हर कोने से, हर दिशा से गर्मी हमलावर है। घर के अंदर भी ऐसा महसूस हो रहा है कि मानों हम खुले में हैं। साथ ही जल संकट है और बिजली की खपत आसमान छू रही है। धरती मदद के लिए पुकार रही है। और सूरज भी।
लेकिन क्या कोई भी इसके बारे में बात कर रहा है? एकदम नहीं।
गर्मी साल-दर-साल अधिकाधिक खतरनाक और जानलेवा होती जा रही है। दिल्ली में एक दिन तापमान 52.7 डिग्री तक पहुँच गया था। 45-47 डिग्री का अधिकतम तापमान तो सामान्य बात है। इसके बावजूद पिछले हफ्ते तक मौसम और उसका हाल चर्चा का विषय नहीं था। यह इसके बाद भी कि हमने एक ऐसा चुनाव देखा है जिसमें नेता गर्मी के मारे बेहोश हो रहे थे, मतदाता वोट करने के लिए घरों से निकलने को तैयार नहीं थे और पत्रकार लू का शिकार बन रहे थे। सबका ध्यान राजनीति पर था – किसने कितनी सीटें जीतीं और मिली-जुली सरकार कैसी चलेगी या कब तक चलेगी।
चुनाव में नरेन्द्र मोदी और राहुल गांधी मुसलमान और संविधान की बातें करते रहे वही योगी आदित्यनाथ जनता के वोटों पर अपना अधिकार मानते रहे क्योंकि उन्होंने उन्हें उनके राज्य को मेट्रो, एयरपोर्ट और फिल्म सिटी दिए…”वो कर्फ्यू लगाते थे, हम कांवड़ यात्रा निकालते हैं, इसलिए भाजपा को वोट दो”। कांवड़ यात्रा से याद आया कि नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल को उत्तरप्रदेश सरकार ने बताया है कि अपर गंगा नहर के किनारे-किनारे गाजियाबाद के मुरादनगर से लेकर उत्तराखंड-उत्तरप्रदेश की सीमा पर स्थित पुरकाजी तक 111 किलोमीटर लंबी सड़क बनाने के लिए करीब 33,776 बड़े पेड़ों और 78,946 पौधों को काटना पड़ेगा। यह सड़क इसलिए बनाई जानी है ताकि कांवड़िये सुकून से चल सकें।
इससे ही साफ़ है कि किसी भी पार्टी ने अपने घोषणापत्र में जलवायु परिवर्तन को लेकर कोई स्पष्ट वायदे क्यों नहीं किए। सबने इन्फ्रास्ट्रक्चर की बातें कीं, नई रेल लाइनें बिछाने और हाईवे बनाने के वायदे किये, मंदिरों और कांवड़ियों के लिए कॉरिडोर के निर्माण की बात कहीं। पर यह वायदा किसी पार्टी ने नहीं किया कि सत्ता में आने पर वह ज्यादा पौधे लगाएगी, कार्बन फुटप्रिंट कम करेगी या धीरे-धीरे तेल, गैस और कोयले का इस्तेमाल खत्म करेगी। वैज्ञानिकों के अनुसार यह सब करना हमारे लिए आपातकालीन आवश्यकता है।
प्रदूषण फैलाने वाली गैसों के उत्सर्जन से मामले में अमेरिका और चीन के बाद भारत दुनिया में तीसरे नंबर पर है। ग्रीन हाउस गैसों के दुनिया के कुल उर्त्सजन का 10 प्रतिशत भारत में होता है। लेकिन हम प्राथमिकता किसे दे रहे हैं – मंदिरों के भव्य कॉरिडोर बनाने को, कई एकड़ में लगे पेड़ों को काटकर या उपजाऊ भूमि का अधिग्रहण कर एक्सप्रेसवे बनाने को या कांवड़ियों के लिए कोरिडोर के निर्माण को।
आखिर जब भगवान हमारे साथ है तो हम विज्ञान की क्यों चिंता करें? आखिर कांवड़ कॉरिडोर धरती को रहने लायक बनाए रखने में कितनी मदद करेगा!
लेकिन हम-आपको डरना चाहिए। यदि आप जनता के तौर पर और मैं पत्रकार के तौर पर इसके बारे में नहीं बोलेंगे, इसे मुद्दा नहीं बनाएंगे, तो आने वाली पीढ़ियां गर्मी में जिंदा जल जाएंगी। धरती कंक्रीट का ऐसा रेगिस्तान बनेगी जिसमें जीवन नहीं होगा, सिर्फ मुर्दे होंगे।
भारत तेजी से बदलती हकीकत का सामना करने के लिए जरा भी तैयार नहीं है। एक ओर जहां हमारी जनसंख्या बढ़ रही है, विभिन्न चीज़ों की मांग बढ़ रही है और बढ़ती आबादी की ज़रूरतों को पूरा करने का दबाव बढ़ रहा है, वहीं दूसरी ओर जलवायु भीषण और भयावह स्वरूप लेती जा रही है। जलवायु और पर्यावरण सम्बन्धी में भारत की घरेलू नीति में शामिल है ग्लेशियरों का संरक्षण, रेल्वे स्टेशनों और पटरियों के किनारों को हरा-भरा बनाना, केवल एक बार इस्तेमाल हो सकने वाले पोलिथीन के इस्तेमाल को घटाना और खाना पकाने के लिए स्वच्छ ईधन का उत्पादन करना। लेकिन ये सब फाईलों में कैद कोरे शब्द बनकर रह गए हैं। जमीनी हकीकत वैसी की वैसी है। आपको बाजार जाते हुए कितने लोगों के हाथ में कपड़े के थैले या बुने हुए बास्केट नजर आते हैं? क्या हम यह नहीं देख रहे हैं कि भीषण गर्मी में प्लास्टिक की बोतलों में मिनरल वाटर और कोक-जूस वगैरह की बेतहाशा बिक्री हो रही है।
इन हालातों में सरकार की प्रस्तावित योजनाओं को काफी मानना बहुत मुश्किल है। वैज्ञानिकों के अनुसार, साल दर साल, घने बसे सिंधु-गंगा मैदान, जिसके रहवासियों में गरीबों की बहुतायत है, में लगातार कई दिनों या हफ्तों के लिए रहना अधिकाधिक कठिन होता जाएगा। यहाँ तक कि बहुत ही सक्षम सरकार के लिए भी इसे रोकना बहुत कठिन होगा और इसका नतीजा भयानक तबाही के रूप में सामने आएगा। भारत को इस तबाही का मुकाबला करने के काबिल नहीं माना जा रहा है।
और वह होगा भी कैसे?
जनता से लेकर नेता तक कोई भी, वाकई कोई भी, पत्रकारों से लेकर नागरिक समाज तक, कोई भी, सचमुच कोई भी, जलवायु से जुड़ी चुनौतियों का सामना करने में भारत की ज़रुरत से बहुत कम तैयारी की भयावह स्थिति के बारे में न कुछ कह रहे हैं और ना ही कर रहे हैं। सभी लोग।
क्लाइमेट चेंज हमारे अस्तित्व के लिए सबसे बड़ा खतरा है। इस साल हम इस हकीकत के थोड़े और नजदीक पहुंच गए हैं।
इसलिए जरूरी है कि राजनीति का कवरेज करने वाले पत्रकार, किसी भी क्षेत्र से जुड़े पत्रकार और जनता – सभी जलवायु की समस्या को अपनी बातों और अपने सवालों का हिस्सा बनाए। नेताओं को यह याद दिलाना जरूरी है कि कांवर कॉरिडोरों की कोई जरूरत नहीं है। अगर हमें अच्छा भविष्य चाहिए तो इसके लिए हमें अपने वर्तमान को बेहतर बनाना होगा। हालांकि सरकार यूएनएफसीसीसी और पेरिस समझौते में किए गए जलवायु परिवर्तन संबंधी लक्ष्यों के बारे में अपनी प्रतिबद्धता बार-बार दुहराती रहती है, लेकिन वायदों को हकीकत में बदला जाना जरूरी है।
बहुत कुछ दांव पर लगा है, और यह जरूरी है कि हम इस मुद्दे को अखबारों के पन्नों और टीवी की स्क्रीन पर जगह दें और सोशल मीडिया पर हमारे स्टेटस गर्मी के इस मौसम में हर घंटे हमें हो रहे कष्टों को दर्शाने वाले हों। यदि ऐसा नहीं हुआ तो हकीकत ‘द मिनिस्ट्री फॉर द फ्यूचर‘ के शुरूआती दृश्यों जितनी भयावह और मनहूस होगी, जिनमें अमरीकी उपन्यासकार किम स्टेनले राबिनसन हीटवेव झेल रहे एक काल्पनिक छोटे भारतीय शहर का चित्रण करते हैं। सड़कें सूनी हैं, छतों पर उन लोगों के कंकाल पड़े हैं जो सांस लेने के लिए उस हवा की खातिर वहां सोए थे, जो वहां थी ही नहीं। बिजली के ग्रिड और कानून व्यवस्था दोनों बिगड़ चुके हैं। नर्क की कल्पना साकार हो रही है। स्थानीय झील में लाशें पड़ी हैं। उत्तर भारत में एक हफ्ते में 2 करोड़ लोग जान गवां चुके हैं। (कॉपी: अमरीश हरदेनिया)