गाजा पिछले नौ महिनों से युद्ध की विभीषिका झेल रहा है। यूक्रेन पर रूस के हमले के दो साल बाद भी लड़ाई जारी है। मौत, विनाश, दहशत और आतंक के हालात लगातार बने हुए हैं। दुनिया इन युद्धों में से एक पर ध्यान दी रही है और दूसरे से नजरें फेर रही है। एक युद्ध में पाखंड है और दूसरे में नृशंसता। लेकिन यह सब अब आम लगने लगा है। एक दिन आक्रोश नजर आता है, दूसरे दिन भय और तीसरे दिन आशंकाओं के काले बादल मंडराने लगते हैं। हम सब दो युद्धों से उपजे संकट को झेल रहे हैं, और यह सब अब बहुत मामूली और साधारण सा लगने लगा है। क्या इस अंधेरी सुरंग से निकलने की कोई राह है? या फिर यह सब अनंत काल तक चलता रहेगा?
इतिहास हमें बताता है कि हर युद्ध की एक एक्सपायरी डेट होती है। विश्व युद्ध समाप्त हुए, देशों के बीच की दीवारें टूटीं और गिरीं, कम्युनिज्म कमजोर हुआ और शीत युद्ध के कारण हम विभाजित और परेशानहाल रहे। नए साथी बने, पुराने दूर हो गए। दुनिया बहुध्रुवीय (विश्व युद्धों के समय) से द्विध्रुवीय (शीतयुद्ध के दौरान) से एकल ध्रुवीय बनी। अमेरिका सारी दुनिया का दादा बन गया।
फिर हमने एक नए दौर में प्रवेश किया, जहां उम्मीदें एक बार फिर जाग उठीं और नए अरमानों ने अंगड़ाई ली। थोड़े समय के लिए ही सही, मगर सब कुछ सामंजस्पूर्ण और मैत्रीपूर्ण हो गया। लोकतंत्र नई ऊंचाईयों पर पहुंचा और वैश्विकरण ने जोर पकड़ा। हम सब एक वैश्विक ग्राम का हिस्सा बन गए, सब कुछ सुहावना और आनंदपूर्ण बन गया। लेकिन फिर धार्मिक पहचान पर आधारित आतंकवाद सामने आया।
ईश्वर के नाम पर यह वैश्विक ग्राम बंटने लगा। दरवाजे बंद होने लगे, और सारे देश एक बार फिर खुदगर्ज और मतलबी बनने लगे। लोकतंत्र डगमगाने लगा, हम लड़खड़ाने लगे, ठोकरें खाने लगे। आक्रमण, विनाश, सभ्यताओं का धूल-धूसरित होना, लोगों का बेघर होना, अपना देश छोड़कर दूसरे देशों में जाने को बाध्य होना – यह सब हुआ।
बहुत सारे नए शब्द प्रचलन में आए जो हमारे नए इतिहास को परिभाषित करने लगे। जनता को लुभाने वाली बातों का चलन आम हो गया और सस्ती लोकप्रियता के सहारे राजनीति करने वाले नेता, नए मसीहा बन गए। जनता झूठी बातों पर भरोसा करने लगी। यह इस तथ्य के बावजूद कि उनके गलत होने के साक्ष्य सबके सामने थे।
इस बीच अमेरिका का प्रभुत्व कम होने लगा। एक-ध्रुवीय विश्व का दादा होने का उसका दावा खोखला नज़र आने लगा। पूरब में नए दादाओं का उदय हुआ। चीन और रूस की दादागिरी बढ़ने लगी और वे मिलकर काम करने लगे। कई छोटे देश इनसे जुड़ गए। भारत, तुर्की और इजराइल जैसे देश भी अपने आपको शक्तिशाली मानने लगे। और इससे पहले कि हम कुछ समझ पाते, दुनिया पूरी तरह बदल गई। बहुध्रुवीय दुनिया में जन्म लेने वाली पीढ़ी बहुध्रुवीय दुनिया में मौत के मुंह में समाने के लिए विवश हो गई।
हर देश का आर्थिक नीतियों, स्वतंत्रता, युद्ध, तकनीकी और समाज को लेकर अपना-अपना दृष्टिकोण बन गया। और विश्व युद्ध के बाद बनाई गईं संस्थाएं अपनी प्रासंगिकता खोती गईं।
दुनिया के बहुध्रुवीय होने से स्थिरता और अस्थिरता दोनों पैदा होती हैं। लेकिन शक्ति के कई केन्द्र होने का नतीजा होता है दुनिया का युद्धोन्मुख और अस्थिर हो जाना।
अब आज के समय की बात करें। 2024 में विश्व न केवल दो बड़े युद्धों से भयाक्रांत है बल्कि कई बगावतों और गृहयुद्धों को देखने के लिए भी अभिशप्त है। पिछले 36 महीनों में अफ्रीका के छः देशों में तख्ता पलट दिया गया। अजरबेजान और अरमेनिया का युद्ध हुआ, जिसमें जातीय नरसंहार के हालात बने। सूडान गृहयुद्ध में उलझा है और अफगानिस्तान पर एक बार फिर तालिबान काबिज़ हैं। म्यांमार में अशांति और अराजकता के हालात हैं और सत्ता पर काबिज सेना ने सैनिक कानून लागू कर दिए हैं।
चारों ओर अफरातफरी की स्थिति है। हर संकट, उथलपुथल और अफरातफरी न केवल दुश्मनियों को जन्म दे रही है, वरन् उनमें बहुत से अन्य देश भी अलग-अलग प्रकार की भूमिकाएं अदा कर रहे हैं। जहाँ यूक्रेन ने इस साल दक्षिण कोरियाई गोला-बारूद से युद्ध लड़ा वहीं उत्तर कोरिया यूक्रेन के खिलाफ युद्ध लड़ने के लिए रूस को हथियार मुहैया करा रहा है। इस बीच तुर्की ने दुनिया के अपने कोने में स्वयं को हथियारों के एक बड़े निर्यातक के रूप में स्थापित कर लिया है। उसकी सैन्य तकनीकी और सैन्य सलाहकार लीबिया, सीरिया और अजरबेजान में जारी संघर्षों को अलग-अलग तरह से प्रभावित कर रहे हैं। यू
रोपीयन काउंसिल ऑन फारेन रिलेशन्स नामक एक थिंक टैंक द्वारा करवाई गई रायशुमारी से पता लगा हैं कि 61 प्रतिशत से अधिक रूसी और चीनी, 51 प्रतिशत तुर्क और 48 प्रतिशत भारतीय यह मानते हैं कि भविष्य की दुनिया या तो बहुध्रुवीय होगी या उसमें चीन का दबदबा होगा।
यह नयी उभरती बहुध्रुवीय व्यवस्था, अतीत में कई बार बनी बहुध्रुवीय दुनिया से अलग नहीं होगी। लेकिन एटमी हथियारों के प्रसार, जलवायु संकट, खस्ताहाल होते लोकतंत्र और पोस्ट-ट्रुथ (वह स्थिति जब जनता अपनी राय भावनाओं की आधार पर बनाती है, तथ्यों के आधार पर नहीं) के चलते इसका सामना करना बहुत चुनौतीपूर्ण होगा। अनिश्चितता और अस्थिरता बहुत बढ़ जाएगी। यही कारण है युद्धों का चलते रहना एक सामान्य और आम बात हो गई है। यूक्रेन और गाजा भविष्य की दुनिया की एक झलक पेश कर रहे हैं। हालांकि हर युद्ध के समापन की एक तिथि होती है, लेकिन उसके बाद एक नया युद्ध शुरू हो जाता है। यह बहुध्रुवीय विश्व की एक कमी है, जहां हर मुकाबला, हर प्रतिस्पर्धा युद्ध का स्वरुप अख्तियार कर लेती है। (कॉपी: अमरीश हरदेनिया)