ऐसी अटकलें हैं कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी यूक्रेन जा सकते हैं। इन अटकलों से कई लोगों की भौहें तन गयीं हैं। वह इसलिए क्योंकि जहाँ इस यात्रा से नई संभावनाएं जन्म ले सकती हैं वहीं नई चिंताएं और खतरे भी उत्पन्न हो सकते हैं।
प्रधानमंत्री की यह यात्रा, अगर वह हुई तो, यूक्रेन युद्ध के खलनायक व्लादिमिर पूतिन की साथ उनकी गलबहियों के कोई एक महीने बाद होगी। उस मुलाकात को पश्चिम ने विवादास्पद माना था और उसे लेकर व्यापक नाराजगी व्यक्त की गई, खासकर इसलिए क्योंकि वह बहुत ही मनहूस समय हुई थी। उस समय नाटो शिखर बैठक चल रही थी। और जिस दिन पुतिन और मोदी भाई-भाई खेल रहे थे, उसी दिन रूस ने कीव में बच्चों के एक अस्पताल पर हमला किया और यूक्रेन के विभिन्न भागों में उसके हवाई हमलों में कम से कम 42 नागरिक मारे गए। यूक्रेन के राष्ट्रपति व्लादिमिर जेलेंस्की ने मोदी-पुतिन मुलाकात को “अत्यंत निराशाजनक और शांति के प्रयासों को जबरदस्त धक्का पहुंचाने वाली घटना” बताते हुए कहा था कि उस दिन दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के शीर्ष नेता ने दुनिया में सबसे ज्यादा खूनखराबा करने वाले अपराधी को गले लगाया।
सवाल है उस विवादास्पद आलिंगन, और पुतिन द्वारा मोदी को रूस के उच्चतम नागरिक पुरस्कार से नवाजे जाने के बाद जेलेंस्की मोदी का कितनी गर्मजोशी से स्वागत करेंगे? क्या मोदी दोनों पक्षों के बीच संतुलन कायम करने का प्रयास कर रहे हैं? या वे जानते हैं कि वे आग से खेल रहे हैं?
युद्ध की शुरूआत से लेकर अब तक भारत तटस्थ रहा है। या यू कहें कि उसने तटस्थ रहने की कोशिश की है। दाम और दंड की नीति का अनुसरण करते हुए भारत ने अभी तक युद्ध छेड़ने के लिए रूस की आलोचना नहीं की है और संयुक्त राष्ट्र संघ की साधारण सभा में युद्धविराम का आव्हान करने वाले प्रस्तावों पर कई बार हुए मतदान में भाग नहीं लिया है। पुतिन की आलोचना में जो सबसे कड़े शब्द भारत ने कहे वे हैं: “यह दौर युद्धों का दौर नहीं है”।
रूस से भारत पंगा लेना क्यों नहीं चाहता यह समझना मुश्किल नहीं है। भारत और रूस के घनिष्ठ संबंध शीत युद्ध के समय से हैं। उसके बाद के काल में हमने रूस से हथियार खरीदे और अब हम उससे तेल खरीद रहे हैं। भारत का 86 प्रतिशत सैन्य साजोसामान रूसी है। जाहिर है कि वे ख़राब होते रहते हैं और हमें उनके कलपुर्जों के ज़रुरत पड़ती है। युद्ध की शुरूआत के समय से ही रूस भारत का कच्चे तेल का सबसे बड़ा सप्लायर बना हुआ है। हम रूस को इसलिए भी नाराज नहीं करना चाहते ताकि चीन द्वारा तंग किए जाने पर वह हमारे साथ खड़ा हो।
पश्चिमी देश भारत की “संतुलन बनाकर रखने” की नीति से प्रसन्न नहीं है लेकिन उसे भारत की मजबूरियों का अहसास है। लेकिन पिछले महीने की मोदी की रूस यात्रा के बाद उसका सब्र जवाब दे गया। अमेरिका के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार ने चेताया कि रूस से मजबूत संबंध रखकर भारत “गलत दांव” चल रहा है। वहीं भारत में अमेरिका के राजदूत एरिक गार्सेटी ने चेतावनी दी कि नई दिल्ली को वाशिंगटन से अपनी मित्रता को हल्के में नहीं लेना चाहिए।
हालांकि भारत ने अमरीका की आलोचना पर तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए विदेशी मामलों में “अपनी मर्जी से विकल्पों को चुनने” के अधिकार की बात कही है लेकिन इस आलोचना ने हमारे विदेश मंत्रालय को हिला दिया। पन्द्रह दिन पहले भारत के उपराष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार पवन कपूर कीव गए। इस यात्रा का एकमात्र उद्देश्य यूक्रेन की नाराजगी को कम करना ही हो सकता है। आने वाले दिनों में मोदी की जिस यूक्रेन यात्रा के कयास लगाए जा रहे हैं उसका मकसद उस संतुलन को दुबारा कायम करना हो सकता है जो पिछले माह खत्म हो गया था।
मोदी को अपनी यूक्रेन यात्रा के दौरान अपना मानवीय पक्ष दर्शाना होगा। उन्हें वहां हुई तबाही के प्रति दुःख प्रदर्शित करना होगा। दुख के साथ ही उन्हें चिंता भी व्यक्त करनी होगी और एक सख्त वक्तव्य देना होगा। ऐसा करने पर रूस के गुस्से का सामना करना पड़ सकता है। हाल में मोदी को दोनों देशों के संबंध मजबूत करने में असाधारण योगदान के लिए रूस के सबसे बड़े नागरिक पुरस्कार से नवाजने वाले पुतिन तब भारत से नाराज हो सकते हैं। हाल के वर्षों में भारत ने पश्चिम से संबंध बेहतर बनाए हैं, खासकर चीन से बढ़ते तनाव के मद्देनजर। लेकिन भारत रूस के साथ अपने रिश्तों की उपेक्षा भी नहीं कर सकता, भले ही उससे अमेरिका कितना ही नाराज क्यों न हो।
यह भारत की कूटनीतिक कुशलता का इम्तहान है और उसके लिए बड़ी चुनौती है। एक माह पहले तक उसने जो संतुलन कायम रखा था वह बिगड़ गया है। अब उसे दोनों देशों और पश्चिम का भरोसा हासिल करने के लिए ठोस प्रयास करने होंगे। या हिम्मत करके एक पक्ष के साथ खड़ा होना होगा। यदि हम चाहते हैं कि दुनिया हमें विश्वगुरू माने तो यह साबित करने के लिए यह एक उपयुक्त अवसर है। फिलहाल भारत एक कूटनीतिक असमंजस में फंसा हुआ है। विश्वगुरू ऐसे हालातों से जूझ रहा है जो भविष्य में उसके लिए चुनौतियां और संकट पैदा कर सकते हैं। (कॉपी: अमरीश हरदेनिया)