कैलाश विजयवर्गीय खांटी इंदौरी हैं। वे तब के इंदौरी हैं, जब यह शहर इतना चमकदार, इतना समृद्ध और इतना ग्लैमरस नहीं था।जबकि अब यह शहर जयपुर से कहीं आगे और पुणे से मुकाबले के लिए तैयार है। मेयर के रूप में इंदौर की नई शुरूआत वालों में विजयवर्गीय पहले थे।सो वे सारे शहर को जानते हैं, और सारा शहर उन्हें जानता है। और हकीकत है कि कैलाश विजयवर्गीय ने अपने 40 साल के राजनीतिक करियर में कभी हार का मुंह नहीं देखा। सन् 1990 से लेकर 2013 तक उन्होंने इंदौर शहर की अलग-अलग सीटों से लगातार छह विधानसभा चुनाव लड़े और जीते। वे चुनावी समर के अजेय योद्धा माने जाते हैं।
मगर इस चुनाव में ऐसी स्थिति जिसकी कल्पना नहीं कर सकते। वे बाहरी उम्मीदवार कहलाए। भाजपा के गढ़ इंदौर में कैलाश विजयनर्गीय की जीत सुनिश्चित करने के लिए नरेंद्र मोदी को इंदौर में रोड शौ करना पड़ा!
कैलाश विजयनर्गीय इस बार सचमुच मुश्किल लड़ाई में फंसे हैं । 67 साल के विजयवर्गीय को भाजपा ने इंदौर-1 से कांग्रेस के संजय शुक्ला के खिलाफ अपना उम्मीदवार बनाया है।और इस इंदौर-1 के इंदौरियों में विजयवर्गीय बाहरी‘ कहलाए। (वे इंदौर-2 विधानसभा क्षेत्र में रहते हैं)। कई लोगों ने माना कि विजयवर्गीय अब इंदौर के नेता नहीं रह गए हैं और उनका ध्यान दिल्ली की राजनीति पर ज्यादा है। वे कई सालों से इंदौर-1 में सक्रिय नहीं रहे हैं और इस कारण वे लोगों में दूर के, बाहरी है।
जबकि इंदौर-1के इंदौरियों में कांग्रेस के संजय शुक्ला को ‘अपना’ नेता‘ माना जा रहा है। उनका नारा है ‘नेता नहीं बेटा’।जाहिर है कि उनका जोर उनके स्थानीय होने पर है। शुक्ला को इस क्षेत्र में उनके काम के लिए भी जाना जाता है। एक दुकानदार ने मुझसे कहा, “संजय शुक्ला ने घरों-घर बोरिंग करवाई, टैंकर की फेसेलिटी करी”।इंदौर-1 लंबे समय से पेयजल संकट का शिकार रहा है और संजय शुक्ला ने इस संकट की गंभीरता को कम करने की कोशिश की। यह बात लोगों को याद है। शुक्ला को लोग कोरोना काल में उनके काम के लिए भी याद करते हैं। वे इसी क्षेत्र में रहते हैं और नुक्कड़ों, बाजारों और सड़कों पर लोगों को दिखते रहते हैं। लोगों से उनका एक किस्म का भावनात्मक लगाव है। फिर उनके हाथ में तुरूप का इक्का भी है – हिन्दू कार्ड। संजय शुक्ला ने अपने इलाके में कई कथाएं करवाई हैं और लोगों को मथुरा की मुफ्त यात्राएं भी करवाई हैं। लोगों को लगता है कि मुस्लिम परस्त कांग्रेस का उम्मीदवार होते हुए भी शुक्ला हिन्दूवादी हैं।
इंदौर पारंपरिक रूप से भाजपा का गढ़ रहा है।2018 के चुनाव में शहर की पांच सीटों में से चार भाजपा की झोली में गईं थीं। इंदौर-1 में भी भाजपा का दबदबा रहा है। हालांकि पिछले चुनाव में भाजपा की लगातार तीन जीतों के बाद संजय शुक्ला ने यह सीट पार्टी से छीन ली थी। उन्होंने भाजपा के सुदर्शन गुप्ता को 8,163 वोटों से हराया था। पिछली बार भी जीत का अंतर कम था और इस बार भी कम ही रहने की संभावना है – फिर चाहे जीत दोनों में से किसी की भी हो। अंकित बेलिया कहते हैं, “भले ही विजयवर्गीय बाहरी हैं लेकिन वे एक बड़ा चेहरा हैं”।
क्षेत्र के मतदाता जानते हैं कि उनके इलाके में दो हाथियों की लड़ाई हो रही है। और उन्हें समझ नहीं आ रहा है कि वे किसका साथ दें। दोनों ही हैवीवेट हैं। प्रधानमंत्री मोदी ने प्रचार समाप्त होने के दो दिन पहले इंदौर में एक बड़ा रोड शो किया। इससे ऐसा लगता है कि शहर में भाजपा की स्थिति बहुत अच्छी नहीं है। इंदौर-1 में मुकाबला कड़ा है परंतु मोदी का रोड शो और अंतिम क्षणों में भाजपा का पोलिटिकल मैनेजमेंट‘पांसा पलट सकता है। विजयवर्गीय यह साबित करना चाहते हैं कि वे असली इंदौरी हैं और कतई बाहरी नहीं हैं। उनके लिए यह चुनाव निश्चित ही प्रतिष्ठा का प्रश्न है।
इंदौर के भंवरकुआं में एक कॉफी शॉप के मालिक अभिषेक भाजपा के पुराने समर्थक हैं। उनका कहना है कि “जहां तक शहर की सीटों का सवाल है, सभी भाजपा के खाते में जाएंगी और कड़े मुकाबले के बाद इंदौर-1 से भी विजयवर्गीय जीतेंगे”।परंतु यह भाजपा भक्त भी मानता है कि इंदौर जिले की राऊ सीट से जीतू पटवारी की जीत तय है। वे कहते हैं ‘जीतू युवा चेहरा है। मधु वर्मा बुड्ढा है और उसे कोई नहीं जानता”।
जीतू पटवारी मध्यप्रदेश कांग्रेस के उभरते सितारे हैं। ऐसा कहा जाता है कि वे राहुल गांधी के बहुत नजदीक हैं। वे तेजतर्रार नेता माने जाते हैं। पटवारी पहली बार राजनैतिक गलियारों और मीडिया में चर्चा में 2017 में तब आए जब मंदसौर में किसानों के एक प्रदर्शन के दौरान पुलिस की गोलियों से कुछ किसान मारे गए। इसको लेकर पूरे प्रदेश में बहुत गुस्सा था। राहुल गांधी मृतक किसानों के परिवारों से मिलना चाहते थे मगर तत्कालीन भाजपा सरकार ने इसकी इजाजत नहीं दी। तब राहुल गांधी एक मोटरसाईकिल पर सवार होकर उनसे मिलने पहुंचे थे और इस मोटरसाईकिल को जीतू पटवारी चला रहे थे। दोनों का फोटो सोशल मीडिया पर खूब वायरल हुआ।
जीतू की छवि विशुद्ध किसान की है जो किसानों के साथ खड़ा है और उनसे जो वायदे करता है उन्हें पूरा करता है। जीतू ने पहली बार सन् 2013 में राऊ से चुनाव लड़ा और वे विधायक बन गए। सन् 2018 में वे फिर जीते और कमलनाथ सरकार में केबिनेट मंत्री बने। सन् 2018 में उनकी जीत का अंतर केवल 5,703 था। उस चुनाव में मधु वर्मा उनके सामने थे और इस बार भी वे ही उनके सामने हैं। राऊ विधानसभा क्षेत्र इंदौर के शहरी और ग्रामीण दोनों इलाकों में फैला हुआ है। इस क्षेत्र के 3.56 लाख मतदाताओं में किसानों की खासी संख्या है। बड़ी संख्या में किसान भाजपा सरकार द्वारा प्रस्तावित इकोनोमिक कोरिडोर के लिए कृषि भूमि के अधिग्रहण की प्रक्रिया से नाखुश हैं। मनोज और रामभगवा जैसे कुछ किसान इसके लिए मधु वर्मा को दोषी ठहरा रहे हैं। वे कहते हैं कि इंदौर विकास प्राधिकरण के अध्यक्ष के रूप में कृषि भूमि के अधिग्रहण में मधु वर्मा की भी भूमिका थी।
जीतू पटवारी को युवा लोग एक तेजतर्रार नेता के रूप में देखते हैं और राऊ के किसानों के लिए तो वे मसीहा हैं ही। परंतु 47 साल के पटवारी की राह में फूल नहीं बिछे हैं। इस क्षेत्र का उतना विकास नहीं हुआ है जितना कि शेष इंदौर का हुआ है। मुख्य सड़क के आसपास बहुमंजिला आवासीय इमारतें और मॉल बन गए हैं परंतु क्षेत्र के अन्य हिस्सों में अच्छी सड़कों का अभाव है। अस्पताल और कालेज खोलने के वायदे हर साल किए गए परंतु न तो अस्पताल और ना ही कालेज धरती पर उतरे। जिन मतदातओं से मैंने बात की उनमें से अधिकांश किसान थे और वे पटवारी के समर्थक हैं। परंतु कुछ लोग मधु वर्मा की तरफ भी झुकाव रखते हैं। पारसराम अलारिया कहते हैं, “मोदी का रोड शो हो गया, 17 नवंबर को इसका असर दिखेगा:”।
कुल मिलाकर भाजपा के गढ़ इंदौर में किसी की भी राह आसान नहीं है। यह अनुमान लगाना कि कितनी सीटें भाजपा को और कितनी कांग्रेस को मिलेंगी, तो अनुचित होगा। परंतु यह साफ है कि मसला अब केमिस्ट्री का है। मतदाता काफी कन्फ्यूजड हैं और विरोधाभासी तर्क दे रहे हैं। हर चीज को तौला जा रहा है – उम्मीदवार कौन है, वह बाहरी है या अपना है और लोगों से उसका कितना जुड़ाव है। और फिर मोदी मैजिक तो है ही। ये सारे कारक मिलकर तय करेंगे कि कौन मध्यप्रदेश की विधानसभा में पहुंचेगा और कौन नहीं। (कॉपी: अमरीश हरदेनिया)