मुझे खेल देखना पसंद है, सिवाय नए जमाने के क्रिकेट के। अब मैं क्रिकेट की भूतपूर्व फैन हूं। टेनिस, तैराकी, फुटबाल, तलवारबाजी, बेडमिंटन, गोल्फ या कोई भी खेल, यदि आंखे किसी मुकाबले पर टिकी और एड्रेनालाईन से जुड़ी तो रोमांच से तरबतर मैं फिर टकटकी लगाए देखती रहती हूंष। यही वजह है मुझे ओलंपिक खेल बहुत अच्छे लगते हैं। मैं खेल पत्रकार नहीं हूं और ना ही मुझे खेलों की खबरें देने वालों के काम में कभी जाना है लेकिन दुनिया के सबसे बड़ा उत्सव ओलंपिक को रिटायर होने के पहले कवर करना मेरी बकैट लिस्ट में जरूर है। आखिर उत्तेजना, जोशो-खरोश और इंसानी श्रेष्ठता के कंपीटिशन को देखना और फील करना, सब तो ओलंपिक का हिस्सा हैं। ओलंपिक में ही तो सर्वोत्तम, सबसे अच्छे और उसके कुछ ही पीछे के कंपीटिटर के इंसानी जुनून की फील संभव है, रोमांचित होने का मौका है।
इसलिए ओलंपिक या पेराओलंपिक के दौरान मेरा मन उत्साह और उमंग से भर जाता है। मुझे ओलंपिक उतने ही अच्छे लगते हैं जितना टेनिस। इस बार ओलंपिक रोशनी और प्यार के शहर, पेरिस में हो रहे थे इसलिए मेरी उमंग और उत्साह दस गुना थे। पेरिस में खेलों की पृष्ठभूमि बेजोड़ थी – एफिल टावर की छांव में वॉलीबॉल, वर्सायी के प्रांगण में घुड़सवारी, ग्रेंड पैलेस के गुबंद के नीचे तलवारबाजी – निसंदेह इससे बढ़िया भला क्या हो सकता है।
ऐसे में 26 जुलाई की शाम को अपने टाटा स्काई एकाउंट को रिचार्ज करवा कर 27 जुलाई की दोपहर को मैं टेलीविजन के सामने जम गई। मैंने नौकायन प्रतियोगिता की पहली हीट देखी, उसके रोमांच का अनुभव किया, उसकी विस्मित करने वाली तकनीक और खूबसूरती को देखा, भारत के बलराज पंवार को चीयर किया, जो हीट में चौथे स्थान पर रहे (अंत में वे कुल 33 प्रतियोगियों में 23वें स्थान पर थे)। मैं जितना समय दे सकती थी, उतना समय मैंने खेलों को देखने के लिए दिया। मैंने भारतीय हाकी टीम को पाइंटस टेबिल में अपनी स्थिति सुधारते देखा। मैंने भारतीय टीम को उत्साह से चीयर किया, उनकी जीत की प्रार्थना की जब उनका ग्रेट ब्रिटेन और जर्मनी से कांटे का मुकाबला हुआ तो मैंने उनकी आक्रामकता और उनके उत्साह को विस्मय से देखा। विश्वास नहीं हुआ ऐसा खेल! मैंने लक्ष्य सेन की चपलता को अवाक होकर देखा, मैं स्टीपलचेज़ में अविनाश साबले की दृढ़ता की गवाह बनी, मैंने अर्जुन बाबूता का दुःख और उनकी आंखों में नजर आ रही पीड़ा को भी महसूस किया, जब वे थोड़े से अंतर से कांस्य पदक से वंचित रह गए।
इसके विपरीत, मैंने नोवाक जोकोविच की आंखों में सिद्धी वाली चमक तब देखी जब उन्होंने स्वर्ण पदक जीता, सिमोन बाइल्स की ऊर्जा और उत्साह देखा और हर चीनी खिलाड़ी की यंत्रवत प्रवीणता से लेकर अल्जीरिया के मुक्केबाज का सच्चा उल्लास देखा जिन्होंने विश्वव्यापी आलोचना का सामना करते हुए भी जीत हासिल की।
पेरिस उत्साह से झूम रहा था। वह हर खिलाड़ी की शक्ति, धैर्य और दृढ़ता का गवाह बना। इसके अलावा वहां मौजूद भीड़ भी उल्लासित और रोमांचित थी। पेरिस के लोगों ने खेलों की शुरूआत के समय शिकायतें की लेकिन अंततः 97 लाख टिकट खरीदकर एक नया ओलंपिक रिकार्ड बनाया।
भारत में ओलंपिक को लेकर अधिक दिलचस्पी नहीं थी। मैंने किसी रेस्टोरेंट या कैफे में न तो टीवी पर खेल देखे ना ही ये चर्चा का विषय बने। बहुत से लोगों को तो पता ही नहीं था कि ओलंपिक चल रहे हैं। अनवरत खबरों और सूचनाओं के इस दौर के बावजूद ऐसी स्थिति थी। और मेरा व्यक्तिगत अनुभव इसका गवाह है।
7 अगस्त को दिल्ली में मानसून पूरे शबाब पर था। काले, डरावने बादल आकाश में छाये हुए थे और शहर बारिश से सराबोर था। ऐसे समय मनु भाकर दिल्ली पहुंचीं। लेकिन मीडिया के अलावा शूटिंग के इस सितारे का स्वागत करने के लिए बहुत कम संख्या में लोग मौजूद थे। जब वे मालाओं से लदी और प्रफुल्लित चेहरे के साथ एअरपोर्ट से बाहर निकलीं तो दिल्ली की मीडिया ने उन्हें घेर लिया। लेकिन आसपास खड़े बहुत से लोगों को इस होहल्ले की वजह मालूम नहीं थी और ना ही वे यह जानते थे कि मनु भाकर कौन हैं।
“इन्होंने दो ओलंपिक पदक जीते हैं,” एक पत्रकार ने एक जिज्ञासु को बताया। कई लोगों ने आश्चर्य व्यक्त करते हुए कहा “अच्छा भारत ओलंपिक खेल रहा है? इंडिया ने ओलंपिक में मैडल जीता है!”
लेकिन मुझे इन लोगों के आश्चर्यचकित होने से जरा भी हैरानी नहीं हुई। मुझे तो तब विस्मय होता यदि उन्हें पता होता कि मनु भाकर कौन है!
भारत में किसी भी खेल को लेकर बहुत कम उत्साह है, लगभग नहीं के बराबर। सिवाय क्रिकेट के। कुछ हफ्ते पहले जब भारत ने टी-20 विश्व कप जीता था, तब जश्न मनाने, खिलाड़ियों का स्वागत करने और उनका यशगान करने के लिए पूरा देश सड़कों पर उतर आया था। जब वे दिल्ली पहुंचे तो मीडिया को वहां मौजूद क्रिकेट के दीवानों और आम जनता के जनसमुद्र में सबसे आगे रहने के लिए धक्का-मुक्की करनी पड़ी। पूरा देश फाईनल मैच देखने के लिए देर रात तक जागता रहा। लेकिन भारत के जर्मनी के खिलाफ खेले गए हाकी सेमीफाईनल को देखने के लिए ज्यादा लोगों ने अपनी नींद खराब नहीं की। क्रिकेट, जो हमें गुलाम बनाने वालों का खेल है, के पीछे अरबों लोग पागल हैं, वहीं भारत का राष्ट्रीय खेल हाकी उपेक्षित और अनजान है। हाकी में भारत का दबदबा रहा है और उसने अब तक इस खेल में 8 ओलंपिक स्वर्ण पदक, एक रजत और चार कांस्य पदक हासिल किए हैं, लेकिन न तो यह खेल अधिक लोकप्रिय है, न उसके प्रति दीवानापन और सम्मान है। जैसे यही हाल इन दिनों प्रिंट पत्रकारों, विपक्षी नेताओं और अल्पसंख्यकों का है। उन्हें भी कोई नहीं पूछता।
कुछ दिन पहले मैंने एक वीडियो देखा जिसमें एक इन्फ्युलेंसर लोगों का औरी और पी आर श्रीजेश की फोटो दिखाकर पूछ रहा है कि ये कौन हैं। फोटो देखने वाला हर व्यक्ति औरी को पहचान गया मगर कोई नहीं जानता था कि श्रीजेश कौन हैं।
मैं जानती हूं कि भारत में खिलाड़ी होना आसान नहीं है। जब मेरा भाई विधान टेनिस खेलता था तो हमारी कॉलोनी के लोग और हमारे रिश्तेदार मेरे माता-पिता को ताने मारते थे कि उन्होंने उसे ऐसे खेल से जोड़ा है जिसका ‘कोई भविष्य’ नहीं है। वे कहते थे कि उस पर खर्च किया जा रहा पैसा पानी में जाएगा। विधान का साथ देने के बजाए वे उसे इस खेल को छोड़ देने की सलाह देते थे। अंततः इस सबका दुष्प्रभाव हुआ – मानसिक, मनोवैज्ञानिक और भावनात्मक, विशेषकर विधान पर। नतीजा यह हुआ कि उसने टेनिस छोड़ दिया। मैंने उसके आसपास और भी कई ऐसे लोगों को देखा है जिनकी आंखों में सपने थे लेकिन वे खेल-विरोधी समाज के नजरिए के चलते टूट गए, चूर-चूर हो गए। यहां सवाल सिर्फ खिलाड़ी को समझने, उसका साथ देने और उसे लेकर उल्लासित होने का नहीं है, बल्कि यह खेल, उसकी उत्तेजना, उसके आनंद की कदर करने का भी है। आप मनु भाकर को नहीं समझ सकते जब तक आप खेल और उसके लिए जरूरी एकाग्रता की समझ नहीं रखते। आप साईमन बाइल्स और उनकी दृढ़ता की सराहना नहीं कर सकते यदि आप उनके भाव और खेलों के हुनर को नहीं समझते।
एक बार फिर ओलंपिक की बात करें। चीन और अमरीका ने अपना शीर्ष स्थान कायम रखा जबकि भारत एक रजत और पांच कांस्य पदकों के साथ 71वें स्थान पर रहा। नीरज चोपड़ा से जिस स्वर्ण पदक की उम्मीद थी वह पाकिस्तान ले गया जिससे उसे पदक तालिका में 62वां स्थान मिला। सेण्ट लूसिया ने एक स्वर्ण और एक रजत के साथ 55वां स्थान हासिल किया। भारत के लिए हालात जस के तस रहे। जिन्होंने पदक जीते उनकी तारीफों के पुल बांधे जाएंगे, सरकार उन पर पैसे की बरसात करेगी, मीडिया उन पर ध्यान केन्द्रित करेगा। और जो नहीं जीत पाए उन्हें भुला दिया जाएगा। हमें उनकी जिंदगी, उनके सतत संघर्ष, उनकी उम्मीदों और अरमानों के बारे में कुछ पता नहीं लगेगा। और कल को जब अगला क्रिकेट मैच खेला जाएगा, तब हम मनु भाकर और हरमनप्रीत सिंह के वैश्विक ओलंपिक खेल को भी भूला बैठेगै!
भारत भले ही दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बने जाए, लेकिन खेल के एक देश के तौर पर हम निचले पायदान पर रहने हैं। हम इस पुरानी सामाजिक सोच से अपंग रहने है कि पढ़ाई और नौकरी ही जिंदगी है न कि न कि खेल कूद। ओलंपिक में भाग लेने के 100 वर्षों में, भारत ने सिर्फ 35 पदक जीते हैं – उनमें से स्वर्ण पदक सिर्फ दस हैं।
ओलंपिक के लिए, कल भव्य तमाशे का आखिरी दिन है। मेरी दोपहर अब तक हर कल्पनीय खेल का एक संश्लेषित, अत्यधिक क्यूरेटेड नजारा लिए हुए थी जिसे मैंने पूरे आनंद से किया। और अब उस पेरिस ओलंपिक का समानपन है जिसने ओलंपिक के इतिहास में यह छाप छोड़ी है कि कला, संस्कृति का जिंदादिल वैश्विक शहर खेलों के आयोजन में भी अपना खास, निराला ही मिजाज लिए हुए है!