सिर्फ दस साल पहले की बात है, मगर मानों ज़माना गुज़र गया हो। दस साल पहले भारत भूखा था नए विजन, नई दृष्टि का। हर कोई तरक्की और अच्छे दिनों के लिए फडफडाता हुआ था। दस साल पहले लग रहा था, सबकी फील थी, भारत बढ़ रहा है। भारतीय आगे बढ़ रहे हैं।
आज, लफ्फाजी और प्रोपेगेंडा है।
मैं, सन् 2007 में, स्काटलैंड में सेंट एंड्रयूज विश्वविद्यालय में पढ़ती थी। भारत की राजनीति की न सुध थी और न ज्यादा जानकारी। पतझड़ के आखिरी दिनों की एक सर्द दोपहर में, मैं, अंतर्राष्ट्रीय संबंधों पर अपनी टुटोरिअल क्लास शुरू होने का इंतजार कर रही थी। विश्वविद्यालय की इमारत खामोश थी, मानों आराम कर रही हो। सभी लोग लंच के लिए गए हुए थे। मैं लंच और सुकून चैन के मूड में थोड़ी जल्दी वापस पहुंच गई। मेरे अलावा वहां एक और व्यक्ति था, जो अपने कपड़ों से खांटी अमीर,कुलीन अंग्रेज लग रहा था। लेकिन वह था एक मेक्सिकन रईसजादा जो स्विटजरलैंड में रहता था। दुआ-सलाम के बाद हम आमने-सामने बैठ गए और मैं खाना शुरू करने ही वाली थी कि उसने मेरे पर सवाल दागा, “क्या तुम्हे इंडियन होने पर गर्व है”? मैंने हैरानी और नाराजगी से उसे देखा। वह मेरे चैन, इतमीनान से पैनिनी इम्बोटिटो के स्वाद में खलल थी। वो आंखे फैलाकर लगातार मुझे घूर रहा था। मेरा जवाब जानने को बेताब था। मैंने अपना सैंडविच लपेटते हुए उसकी ओर देखा और बेलौस जवाब दिया, “हां, बिलकुल है”। लेकिन वो मेरे जवाब से न तो खुश हुआ और ना उसे उस पर भरोसा हुआ। उसने दुबारा पूछा, “क्या वाकई तुम्हे गर्व है?” (Really, are you?) मैंने उसकी ओर सवाल उछाला, “क्या तुम्हे अपने मेक्सिकन होने पर गर्व नहीं है”। उसने तपाक से कहा “नहीं”। मैंने हैरानी से उसकी ओर देखा। मैं सोच रही थी कि किसी को अपने देश से प्यार न हो, भला ऐसा कैसे संभव है!
वह भी शायद मेरी ओर देखते हुए सोच रहा था कि इसका उलट कैसे संभव है। इसके पहले कि चर्चा आगे बढ़ती, छात्रों के लौटने का सिलसिला शुरू हो गया। हम दोनों अपने-अपने समूहों से घिर गए और बातचीत यहीं समाप्त हो गई। इसके बाद कभी वह अधूरी चर्चा पूरी न हो सकी।
लेकिन मेरे मन में हमेशा सवाल कौंधता रहा कि उसके मन में ऐसा सवाल क्यों आया?
जब मैं स्काटलैंड गई थी तब भारत द्रुत गति से फल-फूल रहा था जबकि ब्रिटेन मंदी में डूब-उतर रहा था। जैसा कि मैंने विदेशी विश्वविद्यालयों में प्रवेश हेतु आवेदनों में ‘अपने वक्तव्य’ में कहा था, “भारत बदलाव के कगार और सबसे तेजी से बढ़ने वाली अर्थव्यवस्था बनने की राह पर है।” इसमें तब संदेह की कोई गुंजाइश नहीं थी। हमारा शेयर बाजार तेजी से बढ़ रहा था, व्यापार-व्यवसाय में नए प्रयोग हो रहे थे, लोकतंत्र जिंदा था और माहौल उत्साहपूर्ण था। विकसित देशों में रह रहे मेरे मित्र कहते थे, “कम से कम तुम्हारे पास तो वापस जाने का विकल्प है ही। भारत में आसानी से तुम्हे काम मिल जाएगा”। मैं गर्वित और अच्छा फील करती थी। भारत बदल रहा था और हरेक व्यक्ति इसे देख और महसूस कर सकता था।
जब मैं बड़ी हो रही थी तब भी मुझे कभी ऐसा नहीं लगा कि ऐसी कोई चीज है जो मैं खो रही हूं, जो मेरे पास नहीं है। निश्चित तौर पर कुछ नियम-कानून और प्रतिबंध थे, जिनका पालन हमें करना पड़ता था। मगर जिंदगी इतनी बुरी भी नहीं थी। एक बच्ची बतौर मेरा जीवन उदास नहीं था। हम रोज एक घंटे कम्प्यूटर का इस्तेमाल कर सकते थे और शाम को केबिल टीवी देख सकते थे, हमें स्कूल ले जाने के लिए कार थी और समय-समय पर हमें नए आधुनिक खिलौने और गेम मिल जाते थे। ये सभी उस समय भारत में आसानी से उपलब्ध थे। हम लोगों को सिनेमा भी ले जाया जाता था और छुट्टियों में हम शहर के बाहर भी जाते थे।
आज जब मैं पीछे मुड़कर उस दौर को याद करती हूं तो मुझे लगता है कि हमारा बचपन खुशनुमा इसलिए था क्योंकि उस दौर में भारत और भारतीय दोनों खुश थे, फालतू की चिंताएं नहीं थी। सब आगे बढ़ रहे थे।
और तब उस समय, उसके पीछे थे डॉ. मनमोहन सिंह।
मुझे सन् 2004 की धुंधली यादें हैं जब सुषमा स्वराज ने एक बड़ा तमाशा किया था। उन्होंने धमकी दी थी कि अगर सोनिया गांधी प्रधानमंत्री बनी तो वे अपना सिर मुंडवा कर सन्यासिन बन जाएंगीं। मुझे यह भी याद है कि किस तरह सोनिया गांधी ने विपक्ष के भारी शोर-शराबे के बीच यह सिद्ध किया था कि उनका कद उन सबसे ऊंचा है। उन्होंने साफ़ कहा कि वे प्रधानमंत्री बनना नहीं चाहतीं और यह जिम्मेदारी उन्होंने डॉ. मनमोहन सिंह को सौंपने की घोषणा भी की। इस “एक्सीडेंटल प्राईम मिनिस्टर” ने उसी दिन कहा था कि “हम भविष्य को खुशियों से भर देंगे” और यही हुआ भी। प्रधानमंत्री बतौर वे भारत को सचमुच एक खुशियों भरे भविष्य की ओर ले गए। दुनिया में तब भारत पर विश्वास था।
सन् 1991 में उन्होने जो बीज बोए थे उनकी फसल काटने का वक्त आ चुका था। सन् 2004 से लेकर 2014 तक प्रधानमंत्री बतौर अपने कार्यकाल में उन्होंने भारत को आधुनिकता और समृद्धि के रास्ते पर आगे बढ़ाया। उसे पहले से ज्यादा शक्तिशाली बनाने में भी योगदान दिया। उनके कार्यकाल में अर्थव्यवस्था नौ प्रतिशत की गति से बढ़ी। इतना ही नहीं भारत को लंबे समय बाद अंतर्राष्ट्रीय मंच पर रुतबा हासिल हुआ। उन्होंने अमेरिका के साथ ऐतिहासिक परमाणु संधि की। आईटी सेवाओं के निर्यात के कारण देश में ढ़ेर सारे डालर आ रहे थे। 1991 के मध्य में भारत का विदेशी मुद्रा भंडार करीब एक अरब डालर का था। उनके कार्यकाल की समाप्ति के समय इस भंडार में 280 अरब डालर थे और अब उसके करीब दो गुना हैं। भारत शाईन कर रहा था और भारतीयों के चेहरों पर भी चमक थी – भारत में भी और विदेश में भी।
हमारे साथ कहीं दोयम दर्जे के नागरिकों जैसा व्यवहार नहीं होता था। हमें सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था। देश जिस तेज गति से आगे बढ़ रहा था उसे भी दुनिया प्रशंसा की निगाह से देख रही थी। हम चीन से मुकाबिल थे और विकसित देशों के क्लब की सदस्यता हासिल करने की ओर बढ़ रहे थे। आर्थिक मामलों की डॉ मनमोहन सिंह की समझ और उनकी बृद्धिमत्ता ने उन्हें पूरी दुनिया में सम्मान का पात्र बनाया था। देश में एक तरह का चैन और सुकून था। सबको पता था कि शीर्ष पर बैठा आदमी समाज को बांटने वाला नहीं है, वह लोगों को आपस में लड़ाना नहीं चाहता और उसके राज में किसी को भी असुरक्षित महसूस करने की जरूरत नहीं है।
उन दिनों मैं भारतीय राजनीति से दूर थी परंतु मुझे यह जरूर याद है कि उस दौर की राजनीति परिपक्व थी, अर्थपूर्ण थी और काफी तक विचारधारा पर आधारित थी। दिल्ली संकीर्ण सोच वाले बेईमान राजनीतिज्ञों से भरी नहीं थी और ना ही राजनीति का उद्धेश्य केवल अपनी भलाई करना था। संसद में भी एक तरह का खुलापन था। सरकार अपनी आलोचना सुनने को तैयार थी – चाहे वह आलोचना विपक्ष कर रहा हो या प्रेस। संसद में शेरो-शायरी होती थी और असहमतियां, सहमतियों में और सहमतियां, असहमतियों में बदलती रहतीं थीं। सबकी अपनी-अपनी वफादारियां थीं और अपनी-अपनी पसंद-नापसंद भी, मगर एक-दूसरे से नफरत का भाव
नहीं था।
मैंने डॉ सिंह और प्रधानमंत्री के रूप में उनके कार्यकाल का बहुत विस्तार से अध्ययन नहीं किया है लेकिन मैं एक बात जानती हूं और वह यह कि उन्होंने मुझे फलती-फूलती अर्थव्यवस्था पर गर्व करने का मौका दिया। सन् 1991 के आर्थिक सुधारों के बाद से भारतीयों को लगने लगा था कि उनके बच्चों का जीवन उनके जीवन से बेहतर होगा। उस समय भारत सपने देख रहा था। उसके दिल में ढेर सारी महत्वाकांक्षाएं हिलोरें मार रहीं थीं। आने वाला समय खुशनुमा और सुनहरा लग रहा था।
परंतु अच्छा दौर बहुत लंबा नहीं चलता। जब मैं भारत वापिस आई तब तक मनमोहन सिंह का सुनहरा काल और उस दौर की राजनीति अस्त हो चली था। भ्रष्टाचार के ढेर सारे आरोप थे और झूठ का बहुत बड़ा जाल बुना जा चुका था। अपने दूसरे कार्यकाल में वे अधिकांश समय चुप्पी साधे रहे। उनका खूब अपमान हुआ। जो काम उन्होंने किया था, उसे भुला दिया गया। उन्हें शर्मिंदा किया गया और उन पर एक नाकाम प्रधानमंत्री का लेबल चस्पा कर दिया गया। मगर वे कभी अपने विरोधियों के स्तर पर नहीं उतरे। सन् 2014 में यह घोषणा करते समय कि वे तीसरा कार्यकाल पाने की कोशिश नहीं करेंगे उन्होंने मुस्कराते हुए लेकिन मजबूती से कहा था कि “आज के मीडिया या विपक्ष की तुलना में इतिहास मेरे प्रति अधिक उदार होगा”।
उनके शब्द कितने सही थे! उनकी मृत्यु ने आज भारतीयों को उस पुराने दौर को याद करने को मजबूर कर दिया है। वह समय इतना अच्छा था कि आज वह सपने जैसा अवास्तविक लगता है। केवल एक दशक पहले हमारे पास एक ऐसा प्रधानमंत्री था जो सत्ता के पीछे पागल नहीं था। बल्कि उसने हम सबको थोड़ी-थोड़ी सत्ता देने का प्रयास किया। हमारे पास एक ऐसा प्रधानमंत्री था जिसकी जबरदस्त आलोचना हुई पर जो कभी प्रेस का सामना करने में नहीं हिचकिचाया; एक ऐसा प्रधानमंत्री जिसने विपक्ष के गुस्से का खुलकर सामना किया; एक ऐसा प्रधानमंत्री जो चुप्पी साधे रहा ताकि उसके आसपास के लोग उसकी निंदा कर सकें, उसे खरी-खोटी सुना सकें, उससे असहमत हो सकें और उसके प्रति अपने गुस्से का इजहार कर सकें। जिस समय डॉ सिंह पर चौतरफा हमले हो रहे थे तब रामचंद्र गुहा ने कहा था कि इतिहास में मनमोहन सिंह का नाम भारत के पहले सिक्ख प्रधानमंत्री के तौर पर तो दर्ज होगा ही मगर एक ऐसे प्रधानमंत्री के तौर पर भी दर्ज होगा जिसे यह नहीं मालूम कि उसे कब रिटायर हो जाना चाहिए। गुहा ने कहा था, “यह साफ है कि वे थके हुए हैं, गाफिल हैं और उनमें जरा सी भी ताकत नहीं बची है”। यह सही हो या गलत मगर एक बात तो तय है कि आज जिस भारत को डॉ सिंह अपने पीछे छोड़ गए हैं, वह सचमुच थका हुआ है, गाफिल है और उसमें जरा सी भी ताकत नहीं बची है। न कोई जोश है और न सुकून और न सुख। चंद लोग आगे बढ़ रहे हैं और हम सब केवल पुराने दिनों को याद कर रहे हैं। हमें बताया गया है कि हम अमृत काल में जी रहे हैं। लेकिन न तो हमारी थाली में और न हमारी कटोरी में अमृत की एक भी बूंद है।
और मैं जानती हूं कि यदि आज वह मेक्सिकन मुझसे पूछे कि क्या मुझे ‘इंडियन’ होने पर गर्व है तो मैं उसे इस बेसिरपैर का प्रश्न पूछने के लिए उसे तुनक कर बुरा-भला कहूंगी। मैं उससे कहूंगी कि क्या उसे नहीं मालूम कि भारत दुनिया की पांचवी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है। मगर मैं यह भी जानती हूं कि मेरे ‘तुनकने’ के पीछे जो अनकहा है, उसे वह समझ जाएगा। हम दोनों एक-दूसरे की तरफ देखेंगे, हम दोनों को एक-दूसरे के प्रति सहानुभूति महसूस होगी और मुझे तब समझ आ जाएगा कि वह खुद भी मेक्सिकन होने में गर्व का अनुभव क्यों नहीं करता। (कॉपी: अमरीश हरदेनिया)