2024 का जनादेश लोगों को अब रियलटाइम पॉलिटिक्स का स्वाद लेने का मौका देगा।लोकतंत्र कमजोर और थका-थका सा नजर आ रहा था, वह अप्रभावी सा लग रहा था। लेकिन अब ऐसा नहीं लगेगा।..4 जून इतिहास की किताबों में कई पीढ़ियों तक जनता में महान राजनैतिक जागृति की अभिव्यक्ति के दिन की रूप में दर्ज रहेगा।
श्रुति व्यास
वाह! क्या बात है! गजब कर डाला। देश का हमारा वोटर, सचमुच स्तुत्य।आप लोगों ने इतनी कष्टदायी गर्मी, उबलती दोपहर और लू का सामना करते हुए भी, बुलंद इरादों के साथ ईव्हीएम का बटन दबाकर भारत के लोकतंत्र की शान ऊंची कर दी। पूरी दुनिया में भारत का मान बढ़ा दिया। अब दुनिया नहीं कहेगी कि भारत में लोकतंत्र का क्षरण है, वह खतरे में है।
नतीजा मोदी सरकार के दरबारियों और उनकी भजन मंडलियों के लिए भले बड़ा झटका हों, लेकिन मेरे लिए और मेरे जैसे अन्य पत्रकारों के लिए, जो देश भर में घूम रहे थे और जिन्हें जनता का चुनावी मूड सूंघना आता है – के लिए चुनाव का यह नतीजा उम्मीद के अनुसार ही था।
चुनाव शुरू से ही वैसा नहीं था जैसा नैरेटिव मार्च से बनाया जा रहा था। यह चुनाव कभी भी ‘अब की बार 400 पार’ का चुनाव नहीं था। इस चुनाव में मतदाता मौन था और मुकाबला नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता और जनता के उनसे मोहभंग के बीच था। या यूं कहें कि मुकाबला मोदी बनाम जनता में था।
जनता होश में आ चुकी थी। कुछ लोगों को हवा में खतरनाक और झूठ के पुलिंदे पर आधारित जहरीली, अतिवादी राजनीति की गंध का अहसास हुआ। सच्चाई को छिपाकर, अनभिज्ञता और अज्ञान को बढ़ावा देकर उसका फायदा उठाने और धर्म और राष्ट्रवाद का घालमेल करने की साजिशें लोगों को समझ आ गईं थी।साथ ही उन्हें पहले कही गई झूठी बातें, आधारहीन प्रोपेगेंडा भी याद आ रहा था। उन्हें दिख रहा था कि इंडिया का भारत और भारत का इंडिया खतरे में हैं।
आप असहमत हो सकते हैं, लेकिन सच यह है कि 2014 और 2019 की जीत ने मोदी को तानाशाह और दंभी बना दिया था और यही अंततः उनके पतन का कारण बना। और आज सुबह, बहुत बड़े और महान नजर आने वाले मोदी बहुत बौने नजर आने लगे। सन् 2019 में वाराणसी से जनसमर्थन की लहर पर सवार होकर 4,79,505 वोटों के अंतर से जीतने वाला नेता केवल 1,52,513 वोटों से जीत सका।
तो इस सबका का क्या अर्थ है?
यह लोकतंत्र की शक्ति को दर्शाता है। दस सालों में भले ही हमारी संस्थाएं लड़खड़ाई हों, कमजोर हुई हों या मीडिया तबाह हो गया हो, लेकिन जनता को न तो खरीदा जा सका, न दबाया जा सका और ना पटाया जा सका। मंगलसूत्र और मुस्लिम, घुसपैठियों और ज्यादा बच्चे पैदा करने वालों जैसी नकारात्मक बातें बड़े पैमाने पर की गईं लेकिन इनसे जनता के मन में डर बिठाने का लक्ष्य हासिल नही हो सका। जो मुद्दा चला वह था ‘संविधान खतरे में है’।ज्योति मिर्धा के एक बयान ने जनता के दिमाग की बत्तियां ऑन कर दी। महाराष्ट्र में लोग चिंतित थे।नतीजों के बाद मुझे मराठीभाषी लोगों पर गर्व है क्योंकि उन्होंने जो कहा वही किया। उनके मन में इस बात को लेकर कोई दुविधा नहीं थी और वे इस बात पर आमादा थे कि नरेन्द्र मोदी, देवेन्द्र फड़नवीस, एकनाथ शिन्दे और अजीत पवार को सबक सिखाना है। उन्होंने लोकलुभावन बातें करने वाली वाशिंग मशीन सरकार को शिद्दत से नकारा है।
ऐसा ही पश्चिम बंगाल में हुआ। जाधवपुर विश्वविद्यालय के बाहर सुरीश घोष ने पूरे विश्वास से दावा किया था कि भाजपा बंगाल से 8-10 से ज्यादा सीटें नहीं जीत पाएगी। और उनका दावा पूरी तरह सही निकला। बीजेपी 18 से घटकर 10 पर आ गई। मैं यह मानूंगीं कि मुझे पश्चिम बंगाल में भाजपा के पक्ष में अडंरकरंट नजर आया था लेकिन फिर राजनीति में अनापेक्षित होता रहता है। संदेशखाली का फिरकापरस्त प्रोपेगेंडा बंगालियों को प्रभावित नही कर सका, और भद्रलोक को तो बिल्कुल भी नहीं तो यह मामूली बात नहीं है।
2024 का जनादेश लोगों को अब रियलटाइम पॉलिटिक्स का स्वाद लेने का मौका देगा। इससे लोकसभा में जनता की बात सशक्त ढंग से पहुंचायी जा सकेगी। यह वोट भले ही बदलाव के लिए न हो, लेकिन लोकतांत्रिक प्रणाली को पुनः सशक्त करने के पक्ष में अवश्य है। लोकतंत्र कमजोर और थका-थका सा नजर आ रहा था, वह अप्रभावी सा लग रहा था। लेकिन अब ऐसा नहीं लगता। निश्चित ही यह सरकार बदलने के पक्ष में वोट नहीं है लेकिन, इससे लोकतांत्रिक प्रणाली सशक्त होगी। लोगों को यह अहसास हो गया है कि उनकी आँखों के सामने पर्दा डाल दिया गया था और उन्होंने ऐसा करने वालों को सबक सिखा दिया है। जैसा कि अलेक्सी डे टोकावील ने कहा था, “प्रजातन्त्र आग लगाता है, तो आग बुझाता भीहै।”
4 जून इतिहास की किताबों में कई पीढ़ियों तक जनता में महान राजनैतिक जागृति की अभिव्यक्ति के दिन की रूप में दर्ज रहेगा। इस दिन लोगों ने अपने वोट के जरिए सारे राजनीति के पंडितों और चुनावी सर्वेक्षणकर्ताओं को गलत साबित किया और दस साल तक सत्ता के नशे में चूर रहे लोगों के होश ठिकाने लगा दिए।1977 और 2004 की तरह, 2024 को भी याद रखा जाएगा। यह नए भारत में लोकतांत्रिक प्रणाली के एक नए अध्याय की शुरूआत है। (कॉपी: अमरीश हरदेनिया)