विदर्भ (दस सीटे) में बड़ी संख्या में, सभी जातियों के लोग उद्धव ठाकरे और शरद पवार के प्रति सहानुभूति रखते है। खासकर अधेड़ और बुजुर्ग और इस या उस राजनैतिक विचारधारा के प्रति प्रतिबद्ध जनसामान्य, उद्धव ठाकरे और शरद पवार के साथ जो हुआ, उससे दुखी और खफा प्रतीत होते हैं।
नागपुर से श्रुति व्यास
नागपुर। सूरज के तेवर जैसे-जैसे गर्म हो रहे हैं, वैसे-वैसे राजनीतिक गर्मी भी बढ़ रही है।मतदान के दूसरे चरण से पहले ही चुनाव प्रचार भावनात्मक मुद्दों ने तूल पकड़ लिया है। भाषण वे हो गए है जिसकी तल्खी का असर जमीन पर भी दिखने लगा है।
दिल्ली में या अपने-अपने शहरों में बैठे हुए हम लोग उस नैरेटिव पर सहज विश्वास कर लेते हैं जो हमारे सामने बार-बार और जोरदार तरीके से परोसा जाता है। हमें यह महसूस कराया जाता है कि 2024 का चुनाव, 2014 या 2019 जैसा ही है। हमें यह भरोसा दिलाया जाता है कि चुनाव असल में राहुल गांधी और नरेन्द्र मोदी के बीच में मुकाबला है – और चुनना हैडायनेमिक, कर्मवान नरेन्द्र मोदी और उनके आगे फिसड्डी से राहुल गांधी में से एक को।
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लेकिन जमीनी स्तर पर 2024 कुछ अलग है। चुनाव सिर्फ इन दोनों व्यक्तियों का मुकाबला नहीं है। यह कई व्यक्तियों के बीच का चुनाव है, भरोसे की कसौटियों परजनता द्वारा अनेक व्यक्तित्वों में एक को चुनने का अवसर है। और इसमें मुद्दों, समस्याओं और भावनाओं सभी का महत्व है।
इस सप्ताह मैंने विदर्भ के विभिन्न इलाकों का दौरा किया और मुझे यह महसूस हुआ कि ऐसे कई मुद्दे हैं जिनका लोगों के दिलो-दिमाग पर काफी प्रभाव है, उन पर बातचीत और लोगों में गंभीर विचार-विमर्श हैं। लोगों की निराशा और मायूसी साफ़ नज़र आती है। वे स्पष्ट शब्दों में बताते हैं कि वे किसे पसंद नहीं करते और किस वजह से नहीं करते। आज जब नेता लोग विचारधारा को महत्व नहीं दे रहे हैं तब लोगों के मुंह से यह सुनना सुखद है कि वे इस या उस विचारधारा में किस पर यकीन रखते हैं!
पर आगे बढें उससे पहले कुछ विदर्भ और वहां के लोगों के बारे में।
विदर्भ एक समय सेन्ट्रल प्रोविन्सेस एंड बरार का हिस्सा था और महाराष्ट्र का यह इलाका मध्यप्रदेश से सटा हुआ है। इस वजह से लोग धाराप्रवाह हिंदी बोल लेते हैं। और जैसा एक स्थानीय पत्रकार ने कहा, विदर्भ की बहुत सी बहुएं इंदौर की हैं और इसका उलट भी सही है। यहां के निवासी अपने घर आने वाले का बहुत गर्मजोशी से स्वागत करते हैं। अतिथि सचमुच उनके लिए ‘देवो भव’ है। इस भीषण गर्मी में, मैं जब भी बातचीत करने के लिए कहीं रूकी, तो पहले मुझे ठंडी लस्सी या आइसक्रीम पेश की गई और उसके बाद बातचीत शुरू हुई। चर्चाओें के दौरान मैंने पाया कि यहां के लोग स्पष्ट, खुल कर बात करते हैं। उनकी बातें तर्कसंगत और अर्थपूर्ण होती हैं। वे अपनी बात और अपनी राय बेझिझक आपके सामने रखते हैं। वे अपनी जाति को लेकर बहुत मुखर नहीं है लेकिन अपनी धार्मिक और वैचारिक आस्था को खुलकर प्रदर्शित करते हैं। रामनवमी, हनुमान जयंती और अम्बेडकर जयंती के समय में भगवा और नीला रंग मुझे यहाँ छाया दिखा। आस्था का मामला ही है जिसने 2024 के चुनाव को विदर्भ में इतना दिलचस्प बना दिया है। भारत में राजनीति भी, धर्म जितना ही जुनून पैदा करती है, यह यहां दिखा। आखिर जब नेताओं ने खुलेआम राजनीति और धर्म का घालमेल बनाया हैतो जनता अपनी आस्था के आधार पर अपनी राय बताने में क्यों हिचके?
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लेकिन एक बात तो माननी पड़ेगी। और वह यह कि विदर्भ में बड़ी संख्या में सभी जातियों के लोग उद्धव ठाकरे और शरद पवार के प्रति सहानुभूति रखते है। पूरे विदर्भ में भाजपा के प्रति लोग अपना असंतोष व्यक्त करते हैं – “सही नहीं किया बीजेपी ने”, “बीजेपी चोर है” आदि, आदि। बड़ी संख्या में, खासकर अधेड़ और बुजुर्ग और इस या उस राजनैतिक विचारधारा के प्रति प्रतिबद्ध जनसामान्य, उद्धव ठाकरे और शरद पवार के साथ जो हुआ, उससे दुखी और खफा प्रतीत होते हैं। ऊपर से वहां के अख़बारों में भाजपालगातार ऐसे विज्ञापन दे रही है जिनमें मोदी के तस्वीर के ठीक ऊपर बालासाहेब ठाकरे की तस्वीर इस तरह लगी होती है मानों ठाकरे मोदी पर आशीर्वाद बरसा रहे हों (मैंने पाया कि विदर्भ में लोग अख़बार खूब पढ़ते हैं और ध्यान से पढ़ते हैं)। मगर इस तरह का प्रचार बालासाहेब के प्रति वफादार शिवसैनिकों में गुस्सा पैदा कर रहा है। वे समझ रहे है, देख सकते हैं कि क्या हो रहा है और क्या होने वाला है। वे भाजपा और उसकी राजनीति के शिवसेना पर दूरगामी प्रभाव से वाकिफ हैं।
दरअसल, शायद भाजपा ने महाराष्ट्र में जो कुछ किया, उसे करने से पहले उसने राजनेताओं के व्यक्तिगत प्रभाव, उनके प्रति लोगों की व्यक्तिगत वफ़ादारी को ध्यान में नहीं रखा। नरेन्द्र मोदी और उनकी टीम ठाकरे परिवार और शरद पवार के व्यक्तिगत प्रभाव, उनकी जनता में धमक का आंकलन सही नहीं कर सकी।तभी जो कुछ हुआ है उसके चलते उलटे इन दोनों का प्रभाव और बढ़ा ही है।
मोदी का चेहरा 2014 और 2019 में लोगों के लिए जिस तरह का आकर्षण रखता था – और उत्तर भारत के कई इलाकों में अब भी रखता है – वैसा ही आकर्षण विदर्भ में फिलहाल ठाकरे और पवार के लिए है।
चुनावी राजनीति में केवल अपने व्यक्तित्व के बल पर लोगों के मूड को बदलना एक महत्वपूर्ण हथियार होता है और कदाचित जीत के लिए ज़रूरी कारकों में से यह सबसे अहम है।
किसानों की बदहाली, आर्थिक परेशानियाँ और बेरोज़गारी – ये सब चर्चा के मुद्दे हैं और ये सब लोगों में गुस्सा जगा रहे हैं। खासदारों (वर्तमान सांसदों) के खिलाफ एंटी-इनकम्बेंसी भी है। औद्योगिक विकास का अभाव – जो अक्सर स्थानीय मुद्दा होता है और विधानसभा चुनावों में अहम भूमिका निभाता है – इस बार लोकसभा चुनाव में भी एक बड़ा मुद्दा बना है। इससे ऐसा लगता है कि विदर्भ की 10 सीटों में से अधिकांश में जीत की राह किसी भी पार्टी के लिए आसान नहीं है।आखिर कब-जब स्थानीय मुद्दे, पार्टियों के किलों और दुर्गों की नींव को हिला ही देते हैं। मगर इसका यह मतलब नहीं है कि राष्ट्रीय नैरेटिव की कोई अहमियत नहीं बची है।
विदर्भ की दसों सीटों में तेली और कुनबी जातियों के अलावा, मुसलमानों की खासी आबादी है। यह हार-जीत के अंतर को कम-ज्यादा भी कर सकती है और पाट भी सकती है। उत्तर भारत के विपरीत, विदर्भ के दलित मतदाता राजनैतिक दृष्टि से जागरूक हैं और बाबासाहेब अम्बेडकर के प्रति असीम श्रद्धाभाव रखते हैं। इसीलिये कहा जा रहा है कि प्रकाश अम्बेडकर और उनकी वंचित बहुजन अघाड़ी यहाँ दलित वोटों में सेंध लगाकर भाजपा को फायदा पहुंचा सकती है। मगर ज़मीन पर ऐसा नहीं लगता। स्थानीय पत्रकार कहते हैं कि प्रकाश अम्बेडकर का अपना कोई प्रभाव नहीं हैं और ना ही लोगों में उनकी कोई पैठ है। उनकी नाव के खेवनहार केवल बाबासाहेब हैं। यह बात उनके समुदाय का एक तबका समझता है। उनके लिए संविधान पर मंडरा रहा खतरा ज्यादा महत्वपूर्ण है। और यही मुसलमानों के बारे में भी सच है। विपक्ष का यह दावा कि यदि भाजपा 400 पार जाती है तो वो संविधान में आमूलचूल बदलाव कर देगी, लोगों के दिलों में घर कर गया है और प्रकाश अम्बेडकर इस डर से लोगों को मुक्त करने में सक्षम नहीं हैं।
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सन 2019 में विदर्भ की दस में से पांच सीटें जीतकर भाजपा सबसे आगे थी। उसने वर्धा, नागपुर, गढ़चिरोली-चिमूर, भंडारा-गोंदिया और अकोला सीटें जीती थीं। मगर उस समय नरेन्द्र मोदी का चेहरा लोगों को पसंद था और शिवसेना एक थी। बालासाहेब ठाकरे के नाम और उनकी विरासत के तब दो दावेदार नहीं थे।
मगर 2024, न तो 2014 है और न ही 2019।हर राज्य, हर राज्य के हर क्षेत्र में अलग-अलग नैरेटिव हैं और अलग-अलग व्यक्तित्वों का प्रभाव है। यह कहना गलत होगा कि विदर्भ में किसी भी एक पार्टी या व्यक्तित्व की बढ़त है। विदर्भ में कई मुद्दे है और यहाँ कई व्यक्तित्वों का प्रभाव है। सहानुभूति भी है, आस्था भी है, टूटे हुए वायदे हैं और नए वायदे भी। हमारे टीवी और टाइमलाइनों पर जो एक-तरफ़ा नैरेटिव हमें दिखाई दे रहा है वह आभासी है।उसका जमीनी लड़ाई में कोई अर्थ नहीं है। जहाँ जीत-हार का अंतर कम है, वहां स्थानीय मुद्दे निर्णायक हो सकते हैं और इन्हें दिल्ली की प्रेस, राष्ट्रीय नैरिटिव अक्सर नज़रअंदाज़ करता है।
और अंत में, किस बात का, किस चीज़ काअसर हुआ और किस का नहीं यह तो 4 जून को ही पता चलेगा। (कॉपी: अमरीश हरदेनिया)