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विकल्प नहीं पर मुद्दे है और मार्केटिंग फेल!

सन् 2024 का चुनाव उलझन भरा है। यह एक ऐसा चुनाव है जिसमें कोई  विकल्प मौजूद नहीं है, लेकिन फिर भी बहुत से विकल्प हैं। यह एक मुद्दे पर जैसे 370 या राम मंदिर पर केन्द्रित चुनाव नहीं है, बल्कि इसमें बहुत से मुद्दे हैं – महंगाई, बेरोजगारी, झूठ, सहानुभूति, भय और मोहभंग।

पहली बात मोदी के चेहरे और विकल्प की। हर चुनाव में अंहम सवाल होता हैं कि मतदाताओं को भला क्यों सत्ताधारी को हटाना चाहिए?फिर सवाल है क्या कोई विकल्प है, जिसे वोट देकर सत्ता सौंपी जाए?

इस चुनाव में भी यह सवाल है कि विकल्प कौन है? जब संसदीय प्रणाली के चुनाव को राष्ट्रपति चुनाव जैसा बना दिया गया है तो मीडियाकर्मियों को यह पूछने का मौका मिलेगा ही कि “मोदी नही तो कौन?”

तभी जनता, जिसके बारे में कहा जाता है कि वह सब जानती है, इस सवाल में फंस जाती है क्योंकि उसके पास इस सवाल का कोई उत्तर नहीं है। इसमें उनकी गलती भी नहीं है, ना ही यह आश्चर्यजनक है।इसलिए क्योंकि पिछले  दस सालों में मीडिया, प्रेस, सोशल मीडिया, फिल्में, रेडियो, किताबों और पत्रिकाओं के कवर से लेकर  होर्डिगों पर तथा हाईवे के उद्घाटन के फीते काटते हुए सिर्फ एक व्यक्ति दिखा है, सारी नजरें सिर्फ उसी पर केन्द्रित रही हैं। और वह व्यक्ति है नरेन्द्र दामोदरदास मोदी।

संपादकीय लिखते आए हैं कि मोदीजी काम करना और करवाना जानते हैं – 370 हटाए जाने से लेकर राम मंदिर के निर्माण तक; जम्मू और कश्मीर को भारत का अटूट अंग बनाए जाने से लेकर भगवान राम को वापिस लाने तक – सारा प्रचार उन पर केन्द्रित रहा है। हर चीज़ का श्रेय उन्हें और केवल उन्हें दिया गया है। सोशल मीडिया सावधानीपूर्वक तैयार की गई रीलों से दर्शकों को मंत्रमुग्ध करते आ रहे है जिनमें मोदी देश को  ‘विकसित भारत’, नया भारत, नया इंडिया बनाने की ओर ले जाता हुआ दिखाया जाता है। फिल्में ऐसी जो सरकार का यह गुणगान करते हुए कि वह “घर में घुसकर दुश्मन को मारती है।”

पिछले दो वर्षों से, चौबीस घंटे, 365 दिन मोदी का गुणगान दिखाया जा रहा है। पूरा देश मानों मोदी भक्त  हो। मोदी शो लगातार चला है। एक्स पर किसी ने लिखा कि नरेन्द्र मोदी ने पिछले 10 सालों में छह सौ से अधिक रैलियों को संबोधित किया है। इसका अर्थ यह हुआ लगभग हर दिन मोदी की एक रैली।

तभी आश्चर्य नहीं जो दो महीने पहले तक सभी ओर ‘अब की बार 400 पार’ की हवा बह रही थी। तालियां बज रही थीं, जोर-जोर से नारे लगाए जा रहे थे, लेकिन कतिपय तबकों में भय था और चिंता भी थी। ऐसा लग रहा था जीत का ताज पहनने की स्थिति में केवल नरेन्द्र मोदी ही हैं, और कोई दूसरा  दावेदार है ही नहीं।

महाराष्ट्र में चुनाव समझते हुए पुणे में मेरा ड्राईवर प्रभात था।कोई 25 साल का और पूणे में इसलिए काम कर रहा हैं क्योंकि उसके गृहनगर नांदेड़ में रोजगार के अवसर नहीं है।प्रभात भी उन युवा भारतीयों के उस छोटे से हिस्से में से एक हैं जो एक मिनट की भी फुर्सत मिलती है तो  सोशल मीडिया खंगालते है। एक दिन शाम को मुझे होटल छोड़ने के बाद उसने पूरी संजीदगी से मुझसे पूछा, ‘‘मैडम अभी तक मैं यही मानता था कि मोदीजी 400 से ज्यादा सीटें जीतेंगे, उनका मुकाबला करने की स्थिति में कोई नहीं है। लेकिन पांच दिन आपके साथ घूमने और लोगों की बातें सुनने के बाद समझ आया यह सब कितना झूठ है।”

देश में अनेकानेक प्रभात हैं। सबमें यह बात पैंठाने की मार्केटिंग हुई है कि “अब की बार फिर से एनडीए सरकार” (400 पार वाला नारा अब छोड़ दिया गया है)।

जाहिर है एक धारणा, एक नैरेटिव और एक व्यक्ति जो उस नैरेटिव का हीरो है, उसके बारे में जब बार-बार, अलग-अलग तरह से कहा जाता है, तो अन्य सभी धारणाएं और नैरेटिव बेकग्राउंड में चले जाते है। मन की बात, अनुभव सब दरकिनार हो जाते है। मतदाता मन को झिड़क देता है और हवा में बहता है।

लेकिन यह भी हकीकत है कि किसी भी चीज की अति से अंततः दिल भर जाता है। और यह बात राजनीति पर भी लागू है।‘झूठ‘ धीरे-धीरे ही सही लेकिन आखिरकार सामने आ ही जाता है।

महाराष्ट्र में बीस दिन और झारखंड में एक सप्ताह बिताने के बाद और इसके पहले नरेन्द्र मोदी की लहर वाले दो चुनावों का प्रत्यक्षदर्शी बनने के बाद, मैं यह कह सकती हूं कि 2024 का चुनाव न तो मोदी पर केन्द्रित है और न उनके विकल्प पर। यह किसी नैरेटिव या धारणा पर भी केन्द्रित नहीं है।

सतह के नीचे नाराज़गी है, गुस्सा है। लोग विभाजित हैं, दुविधा में हैं और आक्रोशित हैं। मगर उनके गुस्से में भी दुविधा है। साथ ही आक्रोश को प्रकट करने में  लोगों को डर भी लगता है।

“नाम रहने दीजिए, आप दिल्ली से हो, हम कुछ भी बोलेंगे तो हमारे यहा ईडी आ जाएगी”। यह उन बहुत से लोगों का कहना था जिनसे मैं चुनाव को लेकर बातचीत करती थी।

“बोला गरीबी हटाएंगे पर गरीब ही हटा रहे हैं,” एक आदिवासी ने कहा।

‘क्यों वोट करें? जिसको करेंगे मोदी जी उसकी सरकार गिरा देंगे,” एक मराठा ने कहा, जिसे मिलने वाला रोजगार उसके हाथ से फिसल गया क्योंकि सम्बंधित उद्योग उसके राज्य महाराष्ट्र से गुजरात चला गया था।

निश्चित ही दस सालों में उम्मीदें कम हुई है, खत्म हो गई हैं। सन् 2014 में आशाओं के उफान के बाद लोग झूठ की नाउम्मीदी भरी अंधेरी गुफा में अपने को फंसा पा रहे हैं। आशाओं के दाता, गरीबों के मसीहा नरेन्द्र मोदी की आभा उड गई हैं।कुछ लोग वास्तव में “घुसकर मारेंगे” याकि उन्हें अपनी ही पार्टी का कबाड़ा करने वाले की तरह देख रहे है। एक समय नरेन्द्र मोदी लोगों के लिए एक चमत्कार थे। मगर अब वे उनसे निराश हैं। वे मोदी सरकार को अमीरों-कुलीनों की पार्टी बताते हैं और उनके सांसदों को ‘बिसलेरी आदमी‘ या ‘बड़ी मेमसाहब’ कहते हैं। हर मौजूदा सांसद, जिसे इस बार भी टिकट दिया गया है, एंटी-इन्कम्बेंसी का सामना कर रहा है क्योंकि उनका घमंड बहुत बढ़ गया है।तभी उनके निर्वाचन क्षेत्र और वहां के निवासियों का उनसे  मोहभंग है।  विश्वास घटा हुआ है।

मगर फिर भी लोगों का सवाल है “मोदी नहीं तो कौन?” प्रभात की जुबान पर भी यही सवाल था “मोदी नही तो कौन?”

यशवंत सिन्हा 1977 को याद करते हैं। कहते है कि इमरजेंसी के बाद जब चुनाव हुए, इंदिरा गांधी हारी तो बाद में जब लोगों से पूछा कि इंदिरा गांधी को वोट क्यों नहीं दिया, तो आम आदमी वजह बताता था ‘नसबंदी‘। जब उससे आगे पूछते क्या तुम्हारी भी ‘नसबंदी’ की गई, तो वह तुरंत कहता, नहीं, मेरी नहीं “वो वहां हुई थी न… दिल्ली में हुई थी न”। उसके बाद लोग जेलों में ठूंस दिए जाने की वजह बताते थे। लेकिन जब उससे पूछा जाता कि क्या आपको या आपके किसी परिचित को जेल जाना पड़ा, तो उसका फिर वैसा ही जवाब होती.. “वहाँ दिल्ली में हुए.., यूपी में हुए”।

1977 के चुनाव में विपक्ष की और से कोई विकल्प नहीं था। जनता पार्टी का नेतृत्व करने वाला कोई चेहरा नहीं था, बल्कि संयुक्त विपक्ष सिर्फ और सिर्फ “इंदिरा हटाओ देश बचाओ” के नारे पर चुनाव लड़ रहा था। भारत के अधिकांश लोगों, बहुत से पुरूषों और महिलाओें पर इंदिरा गांधी की कारगुजारियों का कोई सीधा असर नहीं पड़ा था लेकिन बावजूद इसके इंदिरा गांधी के खिलाफ मन ही मन नाराजगी सर्वव्यापी थी। इसी का नतीजा था कि जनता पार्टी की छप्पर फाड़ जीत हुई। 405 सीटों पर उसके उम्मीदवर थे, उनमें से 295 सीटों पर उसका परचम लहराया।

यह सच है कि तब और अब में फर्क है। जमाना बदल चुका है। यह फेसबुक और इंस्टाग्राम, एलगोरिथ्म और एआई का दौर है। यह प्रभात जैसे नौजवानों का समय है जिन्होंने 1977 के बारे में न तो कुछ पढ़ा है न सुना है। लेकिन इसके बावजूद इंसानी मिजाज, स्वभाव, सोचने का तरीका तो जैसा पहले था वैसा ही है।

तभी महाराष्ट्र में भी लोग दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को जेल में कैद कर दिए जाने से नाराज है। एक ऐसे नेता के प्रति सहानुभूति की लहर है जिसका उस राज्य में कोई अस्तित्व ही नहीं है। झारखंड के आदिवासी अपने नेता हेमंत सोरेन को जेल भेज दिए जाने से खंपा हैं। ऐसे ही एक नाराजगी अजीत पवार और प्रफुल्ल पटेल जैसे चेहरों के मोदी की टोली में शामिल होने पर हैं।और यह सत्य भी हैरान करने वाला है कि राजस्थान में संविधान को बदलने का जो हल्ला शुरू हुआ था वह महाराष्ट्र के ठेठ बीड, अकोला और झारखंड के चाईबासा क्षेत्र में सुनाई दे रहा है।

इसलिए मोदी के विकल्प संबंधी सवाल का जवाब है कि हां, नरेन्द्र मोदी को हटाकर उनकी जगह लेने वाला कोई ठोस विकल्प नजर नहीं आ रहा है। और ना ही उन्हें गद्दी से उतारने की आग हर दिल में जल रही है। लेकिन हर निर्वाचन क्षेत्र और हर राज्य में ऐसे विकल्प मौजूद हैं जो नरेन्द्र मोदी के लिए कठिनाई उत्पन्न कर सकते हैं। हालाँकि बहुत से नौजवान प्रभात हैं जो पहेली को उलझनपूर्ण बनाए हुए  हैं।

 

 

By श्रुति व्यास

संवाददाता/स्तंभकार/ संपादक नया इंडिया में संवाददता और स्तंभकार। प्रबंध संपादक- www.nayaindia.com राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय राजनीति के समसामयिक विषयों पर रिपोर्टिंग और कॉलम लेखन। स्कॉटलेंड की सेंट एंड्रियूज विश्वविधालय में इंटरनेशनल रिलेशन व मेनेजमेंट के अध्ययन के साथ बीबीसी, दिल्ली आदि में वर्क अनुभव ले पत्रकारिता और भारत की राजनीति की राजनीति में दिलचस्पी से समसामयिक विषयों पर लिखना शुरू किया। लोकसभा तथा विधानसभा चुनावों की ग्राउंड रिपोर्टिंग, यूट्यूब तथा सोशल मीडिया के साथ अंग्रेजी वेबसाइट दिप्रिंट, रिडिफ आदि में लेखन योगदान। लिखने का पसंदीदा विषय लोकसभा-विधानसभा चुनावों को कवर करते हुए लोगों के मूड़, उनमें चरचे-चरखे और जमीनी हकीकत को समझना-बूझना।

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