मुझे गिरिडीह में तुनकु नामक एक आदिवासी मिला, जिसने बहुत उपयुक्त टिप्पणी की: “हम लोग पढ़े-लिखे भले ही न हों पर समझदार हैं”। लोगों को अब इस हकीकत का अहसास हो रहा है कि मोदी कोई मसीहा नहीं हैं।…
चुनावों में कहानियां होती हैं, नैरेटिव होते हैं, नारे होते हैं और जुमले भी।पर 2024 के चुनाव का नैरेटिव यह है कि उसका कोई नैरेटिव नहीं है।
2024 का यह चुनाव, 2014 के दस साल बाद सिर्फ झूठ के अंबार के बीच हो रहा है। इस चुनाव की कोई कहानी नहीं है, कोई नैरेटिव नहीं है। इस बार कहानी सुनाने वाला एक नहीं है, बहुत से हैं। एक पटकथा नहीं है, कई पटकथाएं हैं। कोई नैरेटिव नहीं है, लेकिन वाम और दक्षिण दोनों के बहुत सारे प्रोपेगेंडा हैं – मंगलसूत्र और मुस्लिम, संविधान में बदलाव से लेकर संविधन को बचाने, फटाफट नौकरी और खातों में टनाटन पैसा आने से लेकर शहजादे के कारपोरेट से हाथ मिलाने तक। चुनाव सामान्यतः एक मिला-जुला और अस्पष्ट संदेश देते हैं। मगर पिछले दो चुनाव इसका अपवाद थे। इस बार न तो बदलाव की हवा है और ना ही 2014 या 2019 जैसा माहौल।
चुनावी रणक्षेत्र में डेढ़ महीने गुजारने के बाद मुझे यह साफ़ समझ में आ रहा है कि एक दशक तक सुनायी गयी झूठी कहानियों और सिद्धांतहीन कारगुजारियों से देश जाति, नस्ल और धर्म के आधार पर बंट गया है। हिंदुओं का एक होना तो दूर रहा, आज हिंदू पहले से कहीं ज्यादा विभाजित हैं। और हालांकि 2024 के चुनाव की न कोई कहानी है, न कोई नैरेटिव और न कोई कहानी सुनाने वाला है, लेकिन लबोलुआब में एक बात साफ नजर आ रही है। वह है कि 4 जून को बहुत कुछ होने वाला है – बहुत कुछ बदलने वाला है।
मैंने सन् 2014 से चुनावों को कवर करना शुरू किया। उस साल भारत को कहानियां सुनाने में माहिर एक आदमी और एक नयी कहानी मिली। हमें एक आदर्श समाज बनाने के सपने दिखाए और उम्मीदों की गंगा बहाई गई। युवा वर्ग झूम उठा और बुजुर्गों की सिस्टम में आस्था फिर जाग उठी। नरेन्द्र मोदी बसंत की मधुर ताजा बयार की तरह आए, जिन को ले कर माना गया किवे विचारशील, चिंतनशील है और भारत को नई ऊंचाईयों पर ले जाने के लिए दृढ़ संकल्पित। उन्होंने खुद को साधारण लोगों, उनकी दिक्कतों और परेशानियों, उनके सपनों और अरमानों से जोड़ा। लोगों ने भी उनसे रिश्ता कायम किया। नतीजा यह था कि 2014 के चुनाव में उम्मीद, नरेन्द्र मोदी का तख़ल्लुस बना, उनका पर्याय बना। लोगों को विश्वास था कि अच्छे दिनों का आगाज़ बस होने ही वाला है।
लेकिन बाद के पांच साल जुमलेबाजी, विधानसभा चुनावों में किसी भी तरह जीत हासिल करने, ‘सवा सौ करोड़ देशवासियों’ के भरोसे का नाजायज फायदा उठाने, नोटबंदी और भारत को अंधकारमय रसातल में धकेले जाने वाले रहे।
2019 के चुनाव की एक दूसरी कहानी बनी, एक नए सम्मोहक नैरेटिव पर। यह नैरेटिव पुलवामा के बाद उत्पन्न हुई भावनाओं के ज्वार पर सवार था। और नरेन्द्र मोदी और उनकी मंडली ने 2014 के ‘अच्छे दिन’ की तरह 2019 में ‘घर में घुसकर मारेंगे’ के नारे का पूरा-पूरा फायदा उठाया।
एक बार फिर उम्मीदों की गंगा बहने लगी, युवा मन आक्रमकता के जादू से सम्मोहित हुआवही बुजुर्गों का आत्मविश्वास एक बार फिर नई ऊंचाईयों पर पहुंचने लगा।
बाद के पांच सालों में और बड़ी जुमलेबाजियां चलीं। सत्ता के लिए और ज्यादा बेशर्मी भरे और वहशी तरीके अपनाए गए। क्षेत्रीय राजनीतिक दलों के टुकड़े करवाए गए। विपक्ष को कमजोर करने का हर संभव प्रयास किया गया। एजेसिंयों और सरकारी संस्थाओं का निरंतर दुरूपयोग किया गया, और पहले से अधिक मीडिया संस्थान ‘कारपोटराईज’ होकर मोदी के दरबारी हो गए। फिर 2024 में जल्दबाजी से अयोध्या में राममंदिर का उद्घाटन हुआ। “मोदी जी ने वॉर रूकवा दिया, पापा” वाला प्रचार बेहयाई से कराया गया। शासकीय मशीनरी के हर पुर्जे का उपयोग ‘मोदी की गारंटी’ के प्रचार-प्रसार के लिए हुआ।
लेकिन इस चुनाव में पानी सिर के ऊपर से गुज़र गया।अचानक युवा वर्ग भ्रमित हुआ और बुजुर्गों का एक बार फिर राजनीति से मोहभंग हो गया।
सब एक जैसे हैं: लिंग, जाति और वर्ग की सीमाओं के परे सभी का यह सांझा नजरिया था। मैंने अपनी राजस्थान, महाराष्ट्र, झारखंड, पश्चिम बंगाल, बिहार, दिल्ली और उत्तरप्रदेश की यात्राओं के दौरान पाया कि पांच लोगों के हर समूह में से तीन का राजनीति से मोहभंग हुआ है। वे देश के हालातों से दुःखी और निराश हैं और सबसे ज्यादा नाउम्मीदी नरेन्द्र मोदी ‘उम्मीद’ को लेकर है।
हम उनकोफोलो करते हैं जिन्हें हम पसंद करते हैं, जिन पर हमें भरोसा और विश्वास होता है। हम केवल तब तक किसी व्यक्ति पर भरोसा करते हैं जब तक वह हमें पसंद आता है। जिसे हम नापसंद करते हैं, उस पर भरोसा करना कठिन होता है।
सन् 2014 में मोदी को जबरदस्त जीत इसलिए हासिल हुई थी क्योंकि वे जनता के गुस्से को वोटों की आंधी में बदलने में कामयाब रहे, उनका राजनैतिक लाभ उठाने में सफल रहे। उन्होंने जनता को यह भरोसा दिलाया था कि भारत का प्राचीन गौरव सिर्फ उनके नेतृत्व में ही दुबारा हासिल किया जा सकता है। आज यह स्थिति नहीं है।
मुझे गिरिडीह में तुनकु नामक एक आदिवासी मिला, जिसने बहुत उपयुक्त टिप्पणी की: “हम लोग पढ़े-लिखे भले ही न हों पर समझदार हैं”।
लोगों को अब इस हकीकत का एहसास हो रहा है कि मोदी कोई मसीहा नहीं हैं। वे भले ही यह दावा करते हों कि उन्हें ईश्वर ने एक मिशन के लिए चुना है, लेकिन जनता समझदार हो चुकी है। लोगों को यह समझ में आ गया है कि उनके सामने परोसी जा रही ज्यादातर खबरें तोड़-मरोड़कर और फेरबदल करके परोसी जा रही हैं। आखिकार प्रोपेगेंडा कितना ही सर्वव्यापी और कितना ही विश्वसनीय क्यों न लगता हो वह पूरी जनता का ब्रेनवाश नहीं कर सकता। कम से कम तीन बार तो किसी हाल में नहीं, क्योंकि हर चीज की एक एक्सपायरी डेट होती है।
इस चुनाव में ज्यादातर लोगों ने प्रचार-प्रसार से प्रभावित हुए बिना मुद्दों पर सोचा है, उन्हें तर्क की कसौटी पर कसा है। परंतु एक किंतु तो हमेशा मौजूद रहता ही है। मीडिया और सोशल मीडिया लगातार यह पूछते रहे कि “मोदी नहीं तो कौन?” और इसने लोगों की समझ और ज्ञान को प्रभावित और प्रदूषित किया है।
“मैं ईवीएम में हाथ का निशान ढूंढ रही थी लेकिन वह कहीं नहीं था। कोई च्वाईस ही नहीं थी,” मैंने एक महिला को दक्षिण दिल्ली के पॉश इलाके के एक मतदान केन्द्र के बाहर अपनी सहेलियों से शिकायत करते हुए सुना। मोहतरमा को पता नहीं था कि उनके निर्वाचन क्षेत्र में हाथ के पंजे ने झाड़ू के पक्ष में मैदान छोड़ दिया है। यह है शहरी जनता – लेडीज एंड जेंटलमेन – जो पढ़े-लिखे तो हैं लेकिन समझदार नहीं हैं।
लेकिन मुझे गांवों में, ग्रामीण भारत में असली चुनाव देखने को मिला – लोगों से चर्चाओं में, उनके मूड में। वहां चुनाव कई मुद्दों – जो स्थानीय और राष्ट्रीय मुद्दों का मिश्रण थे – पर हो रहा था। स्थानीय उम्मीदवार और उनकी निष्क्रियता भी मुद्दा थे। महंगाई, सुरसा के मुंह की तरह बढ़ती बेरोजगारी और निम्न जीवनस्तर भी मुद्दा थे। जाति और आरक्षण, मतदान की दिशा तय करने वाले निर्णायक कारक थे। संविधान में परिवर्तन का भय और डर-डरकर जीने की मजबूरी एक समुदाय के लोगों के दिलोदिमाग पर हावी थी। जिन क्षेत्रीय दलों को भाजपा ने सत्ता पर अपनी पकड़ मजबूत करने की खातिर विभाजित करवा दिया, वे पूरे उत्साह और जोशोखरोश से मैदान में थे।
महाराष्ट्र में मराठी लोग, गुजरातियों के प्रति अपनी नफरत और तिरस्कार को खुलकर व्यक्त कर रहे हैं। झारखंड में एक आदिवासी महिला ने मुझे अपने गांव में जैन तीर्थस्थान और वहां आदिवासियों के द्वंद पर पीड़ा के साथ कहां-: “आगे रहते हैं सनातनी और पीछे सरना”।मतबल सरना आदिवासियों के साथ इस राज में अब क्या होता हुआ है? जम्मू कश्मीर के झंडे को भले ही नीचे उतार दिया गया हो मगर अब विभिन्न रंगों और डिजाईन के कई झंडे (सरना आदिवासियों के भी), धार्मिक और जातीय पहचानों से जुड़े झंडे, घरों की छतों पर फहरा रहे हैं। हर समुदाय और हर धर्म अपनी-अपनी पहचान का सार्वजनिक प्रदर्शन कर रहा है। उत्तर प्रदेश और बिहार में दलित वैसे तो यादवों से कोई लेना-देना नहीं रखते लेकिन इस चुनाव में माहौल ऐसा है कि वे भाजपा की खिलाफत के लिए यादवों का साथ देने को तैयार हैं। (कॉपी: अमरीश हरदेनिया)