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प्रकाश अम्बेडकर है तो भाजपा क्यों न जीते!

Maharashtra Vidarbha Lok Sabha seat

अकोला से श्रुति व्यास

अकोला। यूपी में मायावती है तो विर्दभ में प्रकाश अम्बेडकर है। और फिर अकोला में खुद प्रकाश अम्बेडकर खड़े है अपनी वंचित बहुजन विकास आघाडी से। 2019 में भी अम्बेडकर उम्मीदवार थे। उन्हे कोई पौने तीन लाख वोट (25 प्रतिशत) मिले। कांग्रेस उम्मीदवार को ढाई लाख (22.7 प्रतिशत) वोट, वही भाजपा के संजय धोत्रे को साढे पांच लाख वोट (49.5 प्रतिशत) वोट मिले और वे मजे से जीते। उस नाते अकोला में संस्पेंस नहीं है। भाजपा ने परिवादवाद में चार बार सांसद रहे संजय धोत्रे के पुत्र अनूप धोत्रे को उम्मीदवार बनाया है। सवाल है राजनीति में नए अनूप धोत्रे से मुकाबले में कांग्रेस के अभय पाटिल नंबर दो होंगे या प्रकाश अम्बेडकर? यह तय होगा कोई ढाई लाख मुस्लिम वोटों से। अकोला में सस्पेंस यही है कि पहले की तरह मुसलमान अम्बेडकर को अधिक वोट देंगे या इंडिया एलायंस के कांग्रेस उम्मीदवार पाटिल को ज्यादा?  Maharashtra Vidarbha Lok Sabha seat

वर्धा की तरह अकोला में भी लोग बोलते हुए है। और लोगों की बातों में एक मजेदार वाक्य यह था कि “जो है, वह नहीं है, और जो नहीं है, वह है”। 

क्या यह वाक्य अकोला के मूड का सार है?

पता नहीं क्यों अकोला को (महाराष्ट्र के) विदर्भ क्षेत्र की हॉट सीटों में से एक बताया जा रहा है। कारण शायद यह है कि लड़ाई सिर्फ कांग्रेस और भाजपा के बीच नहीं है, बल्कि दो पार्टियों और एक विरासत के बीच है –  भाजपा बनाम कांग्रेस बनाम प्रकाश अम्बेडकर, जो बाबा साहेब अम्बेडकर की विरासत के उत्तराधिकारी हैं। लड़ाई है दो पाटिलों और एक अम्बेडकर की। भाजपा और कांग्रेस दोनों के उम्मीदवार पाटिल समाज से हैं। अनूप धोत्रे को अपने पिता के खिलाफ बनी एंटी इन्कंबेंसी का सामना करना पड़ रहा है। पिछले दो चुनावों में बुरी तरह मुंह की खाने वाली कांग्रेस ने इस बार यह राजनीतिक चतुराई दिखाई जो पाटिल समाज के ही अभय पाटिल को मैदान में उतारा है। Maharashtra Vidarbha Lok Sabha seat

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इन दोनों का यह पहला चुनाव है। जहां अनूप को अपने पिता का सहारा है वहीं अभय की एक डॉक्टर के रूप में अपनी प्रतिष्ठा है और उन्हें जनता के बीच का आदमी बताया जाता है। वे ज़मीन से जुड़े हुए हैं। स्थानीय पत्रकारों के अनुसार पाटिल 2019 के लोकसभा चुनाव के दौरान अंतिम क्षणों में टिकिट कटने के बाद से पिछले पांच सालों से कड़ी मेहनत कर रहे हैं। इसलिए, यदि प्रकाश अम्बेडकर चुनावी दौड़ में शामिल नहीं होते, तो पाटिल जीत जाते – हालांकि तब भी यह एक आसान जीत नहीं होती बल्कि कांटे की लड़ाई में हासिल की गई जीत होती। 

प्रकाश अम्बेडकर अकोला से 11वीं बार चुनाव लड़ रहे हैं। ‘अम्बेडकर’ नाम निःसंदेह उनके लिए मददगार है। लेकिन नाम भर के लिए। उनके अपने लोगों के अलावा उन्हें और उनकी वीबीए को मतदाताओें के किसी अन्य वर्ग का समर्थन मिलेगा, इसे लेकर संदेह है। उनकी पार्टी के कार्यकर्ता अकोला में घर-घर प्रचार करते नजर आते हैं और इन कार्यकर्ताओं को भरोसा है कि प्रकाश को मुस्लिम और कुछ मराठा मतदाताओं का समर्थन भी मिलेगा क्योंकि वे मराठा कार्यकर्ता मनोज जरांगे-पाटिल से जुड़े हुए हैं। Maharashtra Vidarbha Lok Sabha seat

लेकिन 68 वर्ष के दिलीप श्रीखंडे इस आंकलन से कतई सहमत नहीं हैं। वे स्पष्ट शब्दों में दावा करते हैं कि “वोटर की दुविधा पाटिल बनाम धोत्रे को लेकर है” उनके मित्र सतीश घाडवे की राय अलग है: “दुविधा मोदी और पाटिल को लेकर है”। 

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इसलिए अकोला में भी वर्धा की तरह लोग कन्फ्यूजन के शिकार हैं। लोग नरेन्द्र मोदी को चाहते हैं, लेकिन नरेन्द्र मोदी के प्रतिनिधि को अपना खासदार (सांसद के लिए मराठी शब्द) बनता नहीं देखना चाहते। लोग बदलाव चाहते हैं, अभय पाटिल उनकी पसंद हैं, लेकिन वे मोदी को पंतप्रधान (प्रधानमंत्री के लिए मराठी शब्द) बनाना चाहते हैं।

इस सारी दुविधा के बीच, अपनी स्थिति को आंकते हुए प्रकाश अम्बेडकर को उम्मीद है कि उनकी सीटी बज सकती है (उनकी पार्टी वीबीए का चुनाव चिन्ह प्रेशर कुकर है)।

तो क्या प्रकाश अम्बेडकर लड़ाई जीत सकते हैं? क्या उनका इतना प्रभाव है? क्या वे अकोला के गेम-चेंजर साबित हो सकते हैं? इन सभी प्रश्नों का एक ही उत्तर है: राजनैतिक गणित उनके पक्ष में नहीं है। हालांकि बताया जा रहा है कि मुस्लिम समुदाय में अभी यह फैसला होना है कि कांग्रेस को वोट या अम्बेडकर को? 

अकोला छोटा-सा शहर है। कोई आठ लाख की आबादी का। वैसे सीट पर कोई 18 लाख 65 हजार मतदाता है। मराठा, ओबीसी, बौद्ध-दलित, मुस्लिम, हिंदीभाषी वोटों की गणित तिकोने मुकाबले में घालमेल वाली है। इलाके में कोई बड़ा उद्योग नहीं है, कोई बड़ा विश्वविद्यालय नहीं है, ऐसा कुछ भी नहीं है जो उसे अमरावती की तरह एक महत्वपूर्ण जिला बना सके। 

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लेकिन अकोला आज जैसा है – तरक्की और विकास से महरूम – वैसा हमेशा नहीं था। एक समय अकोला वित्तीय गतिविधियों का केन्द्र था जहां लोग एक-दूसरे के बैंक थे। केवल कागज़ के टुकड़ों और भरोसे के आधार पर पैसा उधार लिया-दिया जाता था। पहले अकोला निम्बू शहर के रूप में जाना जाता था। वहां 150 से अधिक दाल मिलें थीं। लेकिन समय के साथ उसकी समृद्धि खो गयी। या कहें कि अमरावती जैसे अपेक्षाकृत बड़े शहरों ने छीन ली। 

एक स्थानीय निवासी को शिकायत है कि अकोला में अभी भी कोई मॉल नहीं है। उन्हें उम्मीद थी कि मोदी के दौर में उनके शहर को एयरपोर्ट, विश्वविद्यालय और अच्छी कनेक्टिविटी हासिल होगी। लेकिन इनमें से कुछ भी नहीं हुआ। वे यदि दुखी हैं तो इसे समझा जा सकता है।  अकोला और पिछड़ा हुआ इसलिए भी नज़र आता है क्योंकि एक समय वह समृद्ध और प्रतिष्ठित था। हालांकि तब भी राजनीति के मैदान में उसकी कोई विशेष चर्चा नहीं होती थी। Maharashtra Vidarbha Lok Sabha seat

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मगर इस चुनाव में अकोला को प्रमुखता मिल रही है क्योंकि चुनावी मुकाबला कठिन है और माहौल गर्म है। फिर भी राजनैतिक गणित और केमिस्ट्री में से गणित ज्यादा अहम है।  होर्डिगों के मामले में भाजपा, कांग्रेस और प्रकाश अम्बेडकर के बीच मुकाबला है और उनकी वीबीए पार्टी के आटो शहर और गांवों में घूम रहे हैं। लेकिन जिले में बड़े नेताओं की रैलियां नहीं हो रही हैं। एक ज्ञानी ने कहा, ‘‘सोचने की बात है नरेन्द्र मोदी ने कोई रैली नहीं की है अकोला में”। मतलब वे अकोला को ले कर भरोसे में है? 

पर 56 साल के महादेव श्रीखंडे ने, अपनी पारंपरिक पाटिल वेशभूषा में चाय की चुस्कियां लेते हुए कहा,  “जो है, वह नहीं है और जो नहीं है, वह है”। सो इसका अर्थ बूझिये तो जानें! या चार जून तक इंतजार करें। (कॉपी: अमरीश हरदेनिया)1

By श्रुति व्यास

संवाददाता/स्तंभकार/ संपादक नया इंडिया में संवाददता और स्तंभकार। प्रबंध संपादक- www.nayaindia.com राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय राजनीति के समसामयिक विषयों पर रिपोर्टिंग और कॉलम लेखन। स्कॉटलेंड की सेंट एंड्रियूज विश्वविधालय में इंटरनेशनल रिलेशन व मेनेजमेंट के अध्ययन के साथ बीबीसी, दिल्ली आदि में वर्क अनुभव ले पत्रकारिता और भारत की राजनीति की राजनीति में दिलचस्पी से समसामयिक विषयों पर लिखना शुरू किया। लोकसभा तथा विधानसभा चुनावों की ग्राउंड रिपोर्टिंग, यूट्यूब तथा सोशल मीडिया के साथ अंग्रेजी वेबसाइट दिप्रिंट, रिडिफ आदि में लेखन योगदान। लिखने का पसंदीदा विषय लोकसभा-विधानसभा चुनावों को कवर करते हुए लोगों के मूड़, उनमें चरचे-चरखे और जमीनी हकीकत को समझना-बूझना।

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