जालना (महाराष्ट्र): जालना के बारे में बिना किसी संदेह के कहा जा सकता है कि यह भाजपा का मजबूत किला है। और यह भी कि यहाँ से रावसाहेब दानवे अजेय हैं। जालना इस्पात उद्योग के लिए जाना जाता है और यहाँ के मतदाताओं पर रावसाहेब की इस्पाती पकड़ है। वे यहाँ से पांच बार लोकसभा चुनाव जीत चुके हैं। वे यहाँ से सबसे पहले 1999 में जीते थे और लगातार 2019 तक जीतते रहे हैं। इस बार वे छठवीं बार चुनाव मैदान हैं और उमेश घाडगे का मानना है कि बदलाव का वक्त आ चुका है। घाडगे अकेले नहीं हैं। यहाँ कई लोग यह कहते हैं कि अब किसी दूसरे को मौका मिलना चाहिए।
नतीजा यह कि 2024 में भाजपा की अपेक्षित आसान जीत, कठिन लड़ाई में बदल रही हैं। भाजपा को 10 साल की एंटी-इनकम्बेंसी का सामना करना पड़ रहा है तो रावसाहेब को 25 साल की एंटी-इनकम्बेंसी का। संतोष 35 साल के हैं, जालना में रहते हैं और यहाँ की एक स्टील फैक्ट्री में तकनीशियन हैं। वे अपने नेता के रूप में केवल रावसाहेब को जानते हैं। जबसे उन्होंने होश सम्हाला, वे केवल रावसाहेब को देखते-सुनते रहे हैं।
मैंने उने पूछा, “क्या आपको लगता है कि जालना में बदलाव का वक्त आ चुका है?”
वे जवाब देने में देरी नहीं करते। “सब कुछ महंगा हो गया है – गैस पेट्रोल। फिर सब पर टैक्स है। महीने के एंड में कुछ बचता नहीं है।”उनका गुस्सा उनके खासदार (सांसद) पर लक्षित नहीं है। वे तो सरकार से खफा हैं, सरकार के मुखिया नरेंद्र मोदी से नाराज़ हैं।
रावसाहेब अब भी उनके और अन्य कई शहरवासियों के प्रियपात्र हैं। स्थानीय खबरनवीस बताते हैं कि रावसाहेब ज़मीनी नेता हैं और पांच बार सांसद और वर्तमान में केन्द्रीय मंत्री होते हुए भी, घमंड उन्हें छू तक नहीं गया है। वे इतने सहज-सरल हैं कि वे आपके सामने से निकल जाएंगे और आपको पता भी नहीं चलेगा कि कोई बड़ा आदमी अभी-अभी गुज़रा है। लोगों की बातों से लगता है कि वे सच्चे अर्थों में आम आदमी के नेता हैं। लोग उनके काम से खुश हैं – रेलवे लाइन आई है और ड्राईपोर्ट का काम समाप्ति पर है।
बावजूद इसके कई लोगों को यह जम नहीं रहा है कि वे इतने समय से उनके खासदार बने हुए हैं। और दस साल की मोदी सरकार से भी वे बहुत खुश नहीं हैं।
मेरी मुलाकात बदनापुर में किसानों के एक समूह से हुई और वे सब रावसाहेब और मोदी के खिलाफ नज़र आये।
एक किसान ने ऊंची आवाज़ में कहाँ “25 साल दे दिए, अब (बहुत) हो गया”।एक दूसरे का कहना था, “सारा विकास शहर में हुआ। हमको क्या मिला? हमारे खेतों को तो पानी भी नसीब नहीं है”।
महाराष्ट्र में पानी – या कहें कि उसकी कमी – लोगों में गुस्से और असंतोष का सबब बन गया है।
मगर कठघरे में केवल स्थानीय खासदार ही नहीं हैं, मोदी जी भी हैं।
“दस साल में देश का भट्ठा बिठा दिया,” एक किसान कहता है। उसका कहना है कि उसकी फसलों की कीमत उतनी ही है जितनी पांच साल पहले थी। मगर इन पांच सालों में गैस, डीजल, पेट्रोल, खाद और बीज की कीमतों में कमरतोड़ इज़ाफा हुआ है।
पास खड़ा एक ऑटोड्राईवर अपने को रोक नहीं पाता: “बहुत हो गया मोदी, मोदी…सिर्फ घर तोड़ता है वो।”
इन सभी लोगों ने खुलकर अपनी बात कही, अपने गुस्से का इज़हार करने में कोई कमी नहीं रखी और वे परेशान दिख रहे थे। मगर उनमें से एक ने भी अपना नाम नहीं बतलाया। मज़ाक में या शायद गंभीरता से उनमें से एक ने कहा, “आप दिल्ली की हो। हमारे ऊपर ईडी की रेड पड़ जाएगी।”
जालना की हवा में असंतोष और गुस्सा घुला हुआ है। नतीजे में पांच बार के सांसद और केन्द्रीय मंत्री रावसाहेब दानवे की नैया भी डोल रही है। यहाँ से कांग्रेस उम्मीदवार और पूर्व विधायक कल्याण काले ने रावसाहेब को गली-गली और दरवाज़े-दरवाज़े जाकर वोट मांगने पर मजबूर कर दिया है। काले कहीं से कमज़ोर नहीं हैं। सन 2009 के आम चुनाव में वे दानवे से केवल 8,482 वोट से हारे थे। काले जालना जिले की फुलंब्री विधानसभा सीट 2004 और 2009 में जीत चुके हैं हालाँकि 2014 और 2019 में उन्हें हार का सामना करना पड़ा था।
सन 1980 से लेकर अब तक, भाजपा ने 1980, 1984 और 1991 के चुनावों को छोड़कर, यहाँ से लगातार जीत हासिल की है।
गणेश गाडेकर, जो कि एक स्थानीय कॉलेज के प्रिंसिपल हैं, का कहना है कि लोग बदलाव चाहते हैं और अगर रावसाहेब जीते भी तो उनकी जीत उतकी ही कठिन होगी जितनी 2009 में थी।
जालना बदलाव चाहता है और काले मज़बूत उम्मीदवार हैं। एंटी-इनकम्बेंसी और महंगाई तो है ही। इसके अलावा, मराठा आरक्षण के मुद्दे ने भी जालना के चुनावी समर को भाजपा के लिए कठिन बना दिया है।
अंतरवाली सराती नाम का गाँव, जहाँ पुलिस ने मराठा आरक्षण आन्दोलन के बेताज नेता मनोज जरांगे-पाटिल के समर्थकों पर लाठीचार्ज किया था, जालना संसदीय क्षेत्र का हिस्सा है। इसके बाद जालना जिले के अधिकांश भागों में विरोध प्रदर्शन हुए थे और ग्रामीण मतदाताओं का बड़ा वर्ग जरांगे-पाटिल के साथ है। मराठाओं का गुस्सा सत्ताधारी पार्टियों की ओर लक्षित है।
दानवे और काले दोनों मराठा है और दोनों राजनीति के पुराने खिलाडी हैं। मगर दोनों ही मराठा आन्दोलन पर चुप्पी साधे हुए हैं। मगर बात इतनी भर नहीं है। मराठा आन्दोलन पर सोशल मीडिया में जम कर चर्चा हो रही है। दानवे और काले के सोशल मीडिया पेज भी इस चर्चा से अछूते नहीं हैं। दोनों नेताओं के पुराने बयान खोद-खोद कर निकाले जा रहे हैं और री-पोस्ट हो रहे हैं। जालना के युवा वर्ग का मराठा आरक्षण के मुद्दे से जुड़ाव है और वे सोशल मीडिया पर काफी समय बिताते हैं।
एक दूसरे कारक हैं मंगेश साबले, जिन्होनें गुणरत्न सदावर्ते नाम के वकील की कार में हुई तोड़फोड़ में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी। सदावर्ते ने अदालतों में मराठा आरक्षण का विरोध किया था। साबले युवा हैं (वे करीब 25 साल के बताए जाते हैं) और तेज-तर्रार नेता हैं। वे बीड जिले के गेवरइ तालुका के पैगा गाँव के सरपंच हैं। इन्स्टाग्राम पर उनके 3.14 लाख फॉलोअर हैं और उनके द्वारा पोस्ट की गयी रीलों को लाखों लोग देखते हैं। वे निश्चित तौर पर सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर हैं और चुनाव में निर्दलीय उम्मीदवार हैं। मंगेश को जरांगे-पाटिल या मराठा आन्दोलन के किसी बड़े नेता का समर्थन हासिल नहीं है मगर स्थानीय लोग उनके समर्थक हैं और वे आक्रामक ढंग से प्रचार कर रहे हैं। शायद वे अगले विधानसभा चुनावों के लिए अपनी ज़मीन तैयार कर रहे हैं।
राम गाडेकर का कहना है कि मंगेश निश्चित तौर पर वोटों का एक हिस्सा ले जाएंगे। फिर दानवे को शिवसेना के गुस्से का सामना भी करना पड़ रहा है। पिछले (2019) के चुनाव में, भाजपा का उद्धव ठाकरे के नेतृत्व वाली अविभाजित शिवसेना के साथ गठबंधन था। शिवसेना अब दो गुटों में बंट चुकी है और इससे उसकी ताकत में कमी ही आई है। जालना जिले में शिवसेना के शिंदे गुट के भाजपा के साथ बहुत सौहाद्रपूर्ण संबंध नहीं है। स्थानीय पत्रकार बताते हैं कि दानवे को शिवसेना के अर्जुन खोतकर को मनाना पड़ा, क्योंकि वे चुनाव अभियान से दूरी बनाये हुए थे।
खोतकर के बारे में कहा जाता है कि उन्हें कुछ विषम परिस्थितियों के चलते शिवसेना के एकनाथ शिंदे गुट से जुड़ना पड़ा। उन्हें महाराष्ट्र स्टेट कोआपरेटिव बैंक से जुड़े मनी लौंडरिंग मामले में ईडी ने आरोपी बना दिया था। दानवे ने जरांगे-पाटिल समर्थकों का गुस्सा कम करने की कोशिश तो की है मगर समस्या यह है कि खोतकर, जरांगे-पाटिल के ज्यादा नज़दीक बताए जाते हैं और उन्होंने सितम्बर 2023 में जरांगे-पाटिल की अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल को ख़त्म करवाने में महती भूमिका निभायी थी। मगर इस बार खोतकर, जालना की बजाय औरंगाबाद में एकनाथ शिंदे की शिवसेना के उम्मीदवार संदीपन भुमरे का प्रचार कर रहे हैं।
यहां परिस्थितयां दानवे के अनुकूल नहीं हैं। काले को दानवे पार्टी के कार्यकर्ताओं की आपसी खींचतान का फायदा मिल सकता है, हालांकि मंगेश सांगले कुछ मराठा वोट ले जाएंगे, क्योंकि भाजपा और दानवे की खिलाफत के पर्याप्त कारण लोगों के पास हैं। मगर यह चुनाव है ही ऐसा जिसमें जीत-हार कम अंतर से होगी और इसलिए किसी भी नतीजे को चौंकाने वाला नहीं कहा जा सकेगा। (कॉपी: अमरीश हरदेनिया)