हजारीबाग (झारखण्ड)। “सर, मैं एक जेंटलमैन हूँ और मैं, अपने साथ वह व्यवहार चाहता हूं जैसा एक जेंटलमैन के साथ किया जाना चाहिए।” यह बात सन 1967 में 30 साल के यशवंत सिन्हा ने बिहार के तब के मुख्यमंत्री महामाया प्रसाद सिन्हा से कही थी। वे तब दुमका में कलेक्टर थे जो उन दिनों बिहार का हिस्सा था।
और कोई 57 साल बाद, 88 वर्ष की उम्र में सिन्हा अभी भी उतने ही दृढ और बेबाक हैं। खासकर अन्याय के विरूद्ध।वे 1967 की उस घटना को गर्व से याद करते हुए कहते हैं “मेरी लड़ाई हमेशा से अन्याय के खिलाफ रही है”।
यशवंत सिन्हा से मेरी मुलाकात एक इत्तेफाक थी। गिरिडीह जाते समय किसी ने मुझे बताया कि यशवंत सिन्हा हजारीबाग में हैं। जब मैं उनके घर पहुंची तब दोपहर का वक्त था और वे लंच के बाद झपकी ले रहे थे। दोपहर की नींद पूरी कर वे कलफदार झक सफेद कुर्ता-पायजामा पहने आए। उनके चेहरे से88 वर्ष की उम्र का अहसास नहीं हुआ। कम से कम मुझे तो ऐसा नहीं लगा कि उम्र के चलते सोचने और याददाश्त में कुछ भी कमी है।
बात शुरू हुई तो बात-बात में उन्होने 1967 की घटना का जिक्र करते हुए कहा,‘‘मैं अब भी एक जेंटलमैन हूँ और अपने साथ जेंटलमैन जैसे व्यवहार की अपेक्षा रखता हूं”।
सिन्हा ने हजारीबाग में डेरा इसलिए डाला ताकि वे अपने बेटे के साथ हुए ‘अन्याय’ का हिसाब चुकता कर सकें। उस तानाशाही से लड़ सकें जो देश पर लाद दी गयी है।
मुझे आंशका थी कि वे तल्खी में होंगे। मौजूदा सरकार और उसके शीर्षतम नेता के खिलाफ जम कर बोलेंगे। लेकिन वे अब भी जेंटलमैन हैं। उन्होने बहुत जल्दी पूरी गंभीरता और तर्कसंगतता से – लस्सी पीते हुए –मुझे हजारीबाग की राजनीति समझाना शुरू किया।
हजारीबाग उनका घर है, उनका गढ़ है और 1998, 1999 और 2009 में यहां हासिल की गईं जीतों की मधुर स्मृतियां उनके मन में आज भी ताजा हैं।ध्यान रहे इस बार भाजपा ने उनके पुत्र जयंत सिन्हा का टिकट काटकर हजारीबाग सदर से दो बार के विधायक मनीष जायसवाल को टिकट दिया है।
मैंने इसी पर कौतूहल से पूछा- “तो फिर आपने विपक्ष की और से चुनाव क्यों नहीं लड़ा?”
“वे चाहते थे कि मैं चुनाव लड़ूं लेकिन मेरी उम्र अधिक हो गई है और अब मेरी शारीरिक स्थिति ऐसी नहीं है कि मैं चुनावी भागदौड़ कर सकूं,” वे बताते हैं। कांग्रेस के उम्मीदवार जय प्रकाश पटेल उनके समर्थक हैं। उन्हें भाजपा छोड़कर कांग्रेस में लाने में सिन्हा की महत्वपूर्ण और प्रभावी भूमिका रही है।
चुनाव अभियान में सिन्हा बहुत सक्रिय नहीं हैं। इस चुनावी मौसम में वे केवल एक सभा में शामिल हुए हैं। “बहुत इन्सिस्ट किया इसलिए हम चले गए,” वे स्पष्ट करते हैं।
मगर अपने कार्यालय-सह-ड्राईंग रूम से वे हजारीबाग के हर मूड, हर गतिविधि और हर समीकरण पर नजर रखते हैं। टीवी साक्षात्कारों और बैठकों के लिए सजाए गए इस कक्ष में कोई भी चुनाव प्रचार सामग्री नहीं है। लेकिन फिर भी यहीं से वे इस निर्वाचन क्षेत्र की केमिस्ट्री और अंकगणित पर अच्छा-खासा प्रभाव डाल रहे हैं।
उन्हें कई चुनावों का अनुभव है और वे राजनीतिक उतार-चढाव के कई दौरों का सामना कर चुके हैं। मैं उनसे झारखंड में भाजपा की स्थिति के बारे में पूछती हूं तो उनका जवाब था- ‘‘मैं सिर्फ एक सीट के बारे में जानता हूं और वह है हजारीबाग”, वे जवाब देते हैं। उनके चेहरे पर एक हल्की सी मुस्कान है, जो उनकी उम्र को दर्शाती है लेकिन उनकी आवाज में एक सख्ती है जो बताती है कि वे जानते हैं कि उन्हें कहाँ फोकस करना है।
जाहिर है कि अर्जुन की तरह उन्हें सिर्फ चिड़िया की आँख दिख रही है।
“भाजपा में असुरक्षा की भावना इतनी अधिक है कि वे यहाँ ज्यादातर कार्यकर्ताओं को यह कहकर निकाल रहे हैं कि तुम यशवंत सिन्हा के आदमी हो,” वे अपनी बात जारी रखते हुए कहते हैं।
हजारीबाग में लोग उनका सम्मान करते हैं, उनके मुरीद हैं और जनता के मन में उनके और जयंत सिन्हा के प्रति सहानुभूति है। मैंने जिस भी व्यक्ति से बात की, उसने जयंत सिन्हा के साथ हुई नाइंसाफी की बात कही। “मोदी ने ठीक नहीं किया”, “जयंत भैया बहुत अच्छे और सच्चे हैं”, “उनके साथ अच्छा नहीं हुआ”, ‘‘यशवंत जी खुद नहीं लड़ रहे पर हम उनको जिताएंगे”। इस तरह की बातें मैंने हजारीबाग में सुनी।
सन् 2014 में जयंत सिन्हा ने अपने पिता से उनका हजारीबाग का गढ़ विरासत में पाया और उसे अपना बनाया। विदेश में शिक्षित सौम्य व्यक्तित्व वाले जयंत सिन्हा, जो थोड़े शर्मीले-से राजनीतिज्ञ हैं, ने 2014 के आमचुनाव में 1.5 लाख मतों के अंतर से जीत हासिल की और उन्हें मोदी मंत्रिमंडल में वित्त राज्यमंत्री बनाया गया। 2016 में उन्हें वित्त मंत्रालय से हटाकर नागर विमानन मंत्रालय में राज्यमंत्री बनाया गया। सन् 2019 में वे और बहुत बड़े अंतर (4.79 लाख वोटों) से जीते, जो मोदी की वाराणसी की जीत के लगभग बराबर थी। लेकिन इसके बावजूद उन्हें केन्द्रीय मंत्रिमंडल में जगह नहीं मिली।
हां, तब तक उनके पिता भाजपा छोड़ चुके थे। सो पिता की बगावत की कीमत जयंत को चुकानी पड़ी। इस बार उन्हें हजारीबाग से टिकट नहीं दिया गया। ..जयंत सिन्हा भले ही राजनीति से दूर कर दिए गए हों या उन्होंने अपनी पहल पर राजनीति छोड़ दी हो, किंतु उनके पिता यशवंत सिन्हा चुनाव लड़े बिना भी चुनाव लड़ रहे हैं।
मगर यशवंत सिन्हा, शरद पवार नहीं हैं। पवार के विपरीत उनका कोई अपना राजनैतिक दल नहीं है।बावजूद इसके दोनों अपनी सोच में राजनैतिक लड़ाई लड़ रहे हैं। 2024 दोनों का आखिरी चुनाव है। वे दोनों एक ऐसा चुनाव लड़ रहे हैं जिसमें उन्हें राजनैतिक हाशिए पर धकेला गया है।इसलिए अपना मान, अपनी विरासत कायम रखने के लिए इनकी अकेले की लड़ाई समझ आती हैं।निश्चित ही इस तरह की चुनावी लड़ाई लड़ने के लिए जबरदस्त आत्मविश्वास और एक हद तक हकीकत से अपने को अप्रभावित रखना जरूरी होता है।
धीरे-धीरे लोग उनके कार्यालय के बाहर एकत्रित हो रहे हैं। उनके पौत्र, जो हाल में कांग्रेस में शामिल हुए हैं, उनसे बात करना चाहते हैं।सो बातचीत का समापन करते हुए उन्होने कहा -‘‘इस बुड्ढे की सिक्स्थ सेंस कह रही है कि अब की बार बदलाव आएगा।” उनके चेहरे पर मुस्कराहट है और आंखों में चमक।
लौटते समय उनके बगीचे के ऊंचे और विशाल आम के पेड़ों के बीच से गुजरती हुए मैं इस चुनाव में ‘अन्याय’ से लड़ने की यशवंत सिंहा की इच्छाशक्ति से प्रभावित हूं। उनका राजनैतिक करियर भले ही उतार-चढ़ाव भरा रहा हो, उन्हें भले ही कोई राष्ट्रपति बनने का सपना संजोए एक महत्वाकांक्षी बुजुर्ग कहे, लेकिन यह चुनाव, उनके लिए केवल राजनीति नहीं है। उससे कहीं ज्यादा है।
सो हजारीबाग में लड़ाई मनीष जायसवाल और जयप्रकाश पटेल के बीच नहीं है। यह भाजपा और कांग्रेस के बीच भी नहीं है। यह नरेन्द्र मोदी और यशवंत सिन्हा के बीच है – एक जेंटलमैन की लड़ाई जिसने अपने साथ हमेशा जेंटलमैन जैसे व्यवहार की अपेक्षा रखी। (कॉपी: अमरीश हरदेनिया)