गिरिडीह (झारखंड)। गिरिडीह का मतलब होता है पहाड़ों की भूमि। और फिलहाल यहां जबरदस्त चुनावी घमासान है।मगर इस घमासान को समझना एक कठिन पहेली को बूझने जैसा है। ऐसा इसलिए क्योंकि सतह पर राजनीति एकदम सीधी-सादी नजर आता है, जो सच नहीं है। संख्या बल में एक पक्ष भारी लगता है, मगर ऐसा है नहीं।
गिरिडीह से श्रुति व्यास
पिछले पन्द्रह चुनावों में गिरीडीह से छह बार भाजपा जीती है। उसे पहली जीत 1989 में मिली थी और 1996 के बाद से वह लगातार जीतती रही है – सिवाय 2004 के –मतलब उस वर्ष वह हारी जब देश के कई इलाकों में गिरीडीहकी तरह ही शाईनिंग इंडिया का नारा नहीं चला था।
भाजपा ने सन् 2019 में एक दांव चला और झारखंड में अपने पुराने और ‘स्वाभाविक’ सहयोगी एजेएसयू (ऑल झारखंड स्टूडेन्टस यूनियन) के लिए यह सीट छोड़ दी। इस पार्टी के चन्द्र प्रकाश चौधरी ने सीट पर अपना दबदबा कायम रखा। उन्होने बहुत आसानी से राज्य के पूर्व शिक्षा मंत्री स्वर्गीय जगलनाथ महतो को 2.48 लाख वोटों से हरा दिया। और 2024 में भाजपा फिर वह प्रयोग दुहरा रही है। इस बार भी यह सीट आजसू (एजेएसयू) को दी गई है।प्रदेश की बाकी 13 सीटों पर भाजपा उम्मीदवार हैं।मगर यहा आजसू उम्मीदवार। आजसू के मौजूदा सांसद चन्द्र प्रकाश चौधरी का मुकाबला झारखंड मुक्ति मोर्चा (जेएमएम) के मथुरा प्रसाद महतो से है।
मगर चुनावी पहेली को और अबूझ बनाते हुए एक और महतो – छात्र नेता जयराम महतो – भी मैदान में हैं। उनका एक्स एकाउंट टाईगर जयराम के नाम से है।
और इसी के चलते चुनावी युद्ध उलझनपूर्ण हो जाता है, चुनावी समीकरणों में केमिस्ट्री का प्रवेश होता है, जाति की भूमिका महत्वपूर्ण बन जाती है और चौधरी के खिलाफ एंटी इंकम्बेंसी भी चुनावी गणित में जुड़ जाती है। इन सबसे अधिक महत्वपूर्ण – आदिवासियों में व्याप्त नाराजगी – को भी आपको ध्यान में रखना होगा।
उदनभद पंचायत का राउतगाडी गांव गिरिडीह शहर से थोड़ी ही दूर है। लेकिन फिर भी वह पक्की सड़क और स्वच्छ पानी से महरूम है। गाँव के लोग नहीं जानते कि चन्द्र प्रकाश चौधरी कौन हैं।
गांव के प्रधान टूडा सन् 2014 में नरेन्द्र मोदी को वोट देने की वजह बताते हैं: “उनकी बातें उम्मीदें जगाती थीं। हमने सोचा था वे हमारा भला करेंगे। विकास हमारे गाँव में भी आएगा।”
लेकिन आज दस साल बाद वे और उनके सभी करीबि बहुत निराश हैं। वे नरेन्द्र मोदी के प्रति अपने गुस्से को छिपाने का तनिक भी प्रयास नहीं करते। एक व्यक्ति ने कहा, “गरीबी हटाने की जगह वो गरीबों को हटाना चाहता है।” साहिब सिंह सोरेन का मानना है कि नरेन्द्र मोदी ने लोगों को बांट दिया है। गाँव के नज़दीक की नदी में औद्योगिक वेस्ट सीधे बहाया जाता है जिससे नदी गंदी और दूषित हो रही है परन्तु मौजूदा सांसद ने इस समस्या को हल करने के लिए कुछ नहीं किया। गिरिडीह एक समय माईका उत्पादन का केन्द्र था मगर अब यहाँ लोहे और इस्पात के कई कारखाने हैं। इनमें ढेर सारा पानी लगता है जिससे भूमिगत जलस्तर गिरता और खराब होता जा रहा है।
राउतगाडी गांव में करीब 500 आदिवासी रहते हैं और वे सभी गुरूजी (शिबू सोरेन) के भक्त हैं। झारखंड के आदिवासियों के लिए गुरूजी मसीहा हैं और उनके प्रति लगाव, उनके नाम और उन पर भरोसे के चलते ही झारखंड में झामुमो का दबदबा है। यह बहुत आश्चर्यजनक है कि भाजपा में बाबूलाल मरांडी से लेकर अर्जुन मुंडा तक कई आदिवासी नेताओं के होने के बावजूद उनमें से कोई भी आदिवासियों के दिलों में जगह नहीं बना सका है।इनके लिए गुरूजी (शिबू सोरेन) और वर्तमान दौर में हेमंत सोरेन ही उनके नेता हैं। इस बार हेमंत के प्रति सहानुभूति भी है (वे जेल में हैं) और आदिवासी अपने इस भाई, अपने इस बेटे के प्रति जुड़ाव महसूस करते हैं। हेमंत सोरेन की पत्नी कल्पना सोरेन – जो इसी इलाके की गाण्डेय विधानसभा सीट से उपचुनाव लड़ रही हैं – भी तेजतर्रार आदिवासी नेता की छवि पाती हुई लग रही हैं। वे अपनी बातों और भाषणों के जरिए आदिवासियों के मन में आदिवासी होने का गर्व पैदा करने की कोशिश में हैं।
यह बात गिरिडीह तक सीमित नहीं है। तमाड हो या चाईबासा, सब जगह आदिवासियों में आत्म गौरव का भाव है। वे हाल में हुए विवादों से परेशान भी हैं और निराश भी। उनका मानना है कि उनकी पहचान पर हमला हो रहा है, उनके अस्तित्व को चुनौती है। उन्हें और अधिक पिछड़ेपन की ओर धकेलने की कोशिश है।
पारसनाथ हिल्स का मामला इसका एक उदाहरण है। इस मुद्दे पर जैन समुदाय और आदिवासियों के बीच टकराव चल रहा है। दोनों इसके अपनी सांस्कृतिक पहचान से जुडे़ होने का दावा करते हैं। सन् 2011 की जनगणना के अनुसार झारखंड की जनसंख्या का 26 प्रतिशत आदिवासी है और वे इस पहाड़ को मरांग बुरू (सर्वोच्च देवता) मानते हैं। जैनियों के सबसे महत्वपूर्ण धार्मिक स्थलो में से एक सम्मेद शिखर भी इसी पहाड़ में स्थित है। केन्द्र सरकार द्वारा 2019 में पारसनाथ को ईको-टूरिज्म हब घोषित करने संबंधी अधिसूचना का जैन समुदाय ने विरोध किया और इसे वापिस लिए जाने की मांग की। विरोध के आगे झुकते हुए केन्द्र सरकार ने अधिसूचना वापस ले ली।लेकिन अब आदिवासी इसी मुद्दे पर आंदोलित हैं।हब से लेकर खान-पान की पाबंदियों से। उनकी मांग है कि उस स्थान, जिसे वे सदियों से पूजते रहे हैं, तक उनकी पहुंच बनी रहनी चाहिए और उन्हे खानपान, पूजा की वह आजादी रहनी चाहिए जो पूर्वजों से चली आ रही है।
एक आदिवासी ने अपनी बात, अपनी पीड़ा को बताते हुए कहा-“पहले सब अच्छे से रहते थे, कोई रोक-टोक नहीं थी, पर अब सब बिगाड़ दिया गया है – कुर्मी बनाम आदिवासी, जैन बनाम आदिवासी।” आदिवासी बाकायाद समझते हैं और मानते है कि ये राजनीतिक चालबाजियां हैं, वे जानते हैं कि इससे समाज बंट रहा है, लेकिन यह उनके गौरव, उनकी पहचान का सवाल भी है।
गिरिडीह जैसी पहेली अन्य स्थानों में भी है।आजसू के चन्द्र प्रकाश चौधरी को ऊंची जातियों, उनके अपने समुदाय और कुर्मियों में नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता पर भरोसा है। लेकिन यहां लड़ाई मोदी बनाम आदिवासी, मोदी बनाम गुरूजी-हेमंत की है, जो निश्चित ही आज भी झारखंड के आदिवासियों के लिए मसीहा हैं। (कॉपी: अमरीश हरदेनिया)