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फ्रांस में गठबंधन का नया दौर

केवल एक हफ्ते में फ्रांस में जनमत का पेंडुलम अति दक्षिणपंथ से वामपंथ की ओर खिसक गया है। यह बदलाव चौंकाने वाला और अनापेक्षित है। संसदीय चुनाव का अंतिम दौर रविवार को खत्म हुआ और ऐसा लगता है कि जोनिक मिनोशों के वर्चस्व वाला वामपंथी न्यू पॉपुलर फ्रंट यानी एनएफपी संसद में सबसे बड़ा गठबंधन बनने की ओर बढ़ रहा है।

फ्रांस, यूरोप और सारा विश्व, जनता के मूड में आए इस अचानक बदलाव से चकित है।

पिछले हफ्ते तक यह तय माना जा रहा था कि मरिन ले पेन सत्ता हासिल कर लेंगीं। जनमत संग्रहों से ऐसा अनुमान लगाया जा रहा था कि उनकी अति दक्षिणपंथी नेशनल रैली और उसके सहयोगी दलों को सबसे ज्यादा वोट मिलेंगे। लेकिन अब यह साफ है कि वे संसद में तीसरा सबसे बड़ा गठबंधन ही बन पाएंगी। किस्मत उन पर मेहरबान नहीं है।

मतदान समाप्त होने के कुछ ही समय बाद इप्सोस ने बताया कि उसका अनुमान है कि 577 सदस्यों की नेशनल असेम्बली में एनएफपी को 171-187 सीटें मिलेंगीं। राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों, जिन्होंने पिछले महीने देश में मध्यावधि चुनाव की घोषणा करके खलबली मचा दी थी, के मध्यमार्गी गठबंधन के 150 सीटों के साथ दूसरे नंबर पर रहने का अनुमान लगाया गया है।

लेकिन एनएफपी फिर भी बहुमत के लिए जरूरी 289 सीटों से बहुत पीछे रह जाएगा। पिछले हफ्ते ल पेन की नेशनल रैली के अच्छी-खासी बढ़त हासिल कर लेने के बाद, मध्यमार्गियों एवं वामपंथियों ने हाथ मिला लिया और मतदान के दूसरे दौर में नेशनल रैली का मुकाबला करने के लिए ‘रिपब्लिकन फ्रंट’ बना लिया। पूरे देश में त्रिकोणीय मुकाबले वाली सीटों पर उम्मीदवार मैदान से हट गए और उन्होंने ल पेन के दल के विरूद्ध अन्य सभी दलों को मिलकर लड़ने का आह्वान किया। यह रणनीति सफल रही।

ल पेन के सत्ता में आने पर जो उथल पुथल होती, वह तो टल गई है लेकिन देश में राजनीतिक अनिश्चितता के हालात बन गए हैं।

मतदान की रात वामपंथी नेता जोनिक मिनोशों, जो आकर्षक व्यक्तित्व के धनी हैं मगर अपने अतिवाद के कारण वामपंथी गठबंधन के खिलाफ ध्रुवीकरण का कारण भी बन जाते हैं, ने जीत की घोषणा की। उन्होंने मैक्रों से कहा कि वे एनएफपी को सरकार बनाने का प्रयास करने के लिए आमंत्रित करें और उनके गठबंधन के किसी नेता को प्रधानमंत्री नियुक्त करें। उन्होंने जोर देकर कहा कि चुनावों के दौरान आमूलचूल बदलाव की जिन योजनाओं की घोषणा की गई थी, उन पर अमल किया जाएगा।

फ्रांस का संविधान राष्ट्रपति को अधिकार देता है कि वे जिसे चाहें उसे प्रधानमंत्री नियुक्त कर सकते हैं। लेकिन व्यवहार में राष्ट्रपति हमेशा ऐसे व्यक्ति को प्रधानमंत्री नियुक्त करते हैं जो संसद को स्वीकार्य हो। कारण यह कि संसद कभी भी सरकार को इस्तीफा देने के लिए बाध्य कर सकती है।

लेकिन जब किसी भी पार्टी को स्पष्ट बहुमत हासिल न हुआ हो और गठबंधन सरकार बनाई जानी हो तब चीजें कितनी मुश्किल और पेचीदा हो जाती हैं, हम भारतीय यह अच्छी तरह से जानते हैं! इसके अलावा, इतिहास गवाह है कि फ्रांस को फोर्थ रिपब्लिक के उथल पुथल भरे दौर के बाद से अलग अलग विचारधारा वाले कई दलों के गठबंधनों की सरकार चलाने का कोई अनुभव नहीं रहा है।

चुनाव के नतीजों के पहले यह गठबंधन प्रधानमंत्री पद के लिए किसी एक नाम पर सहमति नहीं बना सका। इसलिए गठबंधन के चारों दलों- मिनोशों के अनसबमिसिव फ्रांस, सोशलिस्ट, कम्युनिस्ट और ग्रीन्स- के बीच काफी खींचतान होने की संभावना है। नई संसद में जो सोशलिस्ट सदस्य बैठेंगे, उनमें पूर्व राष्ट्रपति फ्रांस्वा ओलांद भी होंगे, जो एक समय मैक्रों के बॉस थे। आने वाले दिनों में- और इस दौरान पेरिस में ओलंपिक खेल भी होने हैं- फ्रांस राजनीतिक उथल पुथल में उलझा रहेगा।

लेकिन अच्छी खबर तो यह है कि एक बार फिर फ्रांसीसियों के बड़े तबके ने मरिन ल पेन और उनके अति दक्षिणपंथी ‘विजन ऑॅफ चेंज’ को खारिज कर दिया है। पार्टी की अपने आप को ‘रीब्रांड’ करने की तमाम कोशिशों के बाद भी यह साफ था कि उसकी सरकार फ्रांस की राष्ट्रीय पहचान कायम रखने के नाम पर देश में रह रहे आप्रवासियों और नए आप्रवासियों के फ्रांस में आने के प्रति अत्यंत कठोर रवैया अपनाएगी।

फ्रांस ने ल पेन को खारिज तो किया है मगर बदलाव के पक्ष में बढ़ चढ़कर वोट दिया है। लोग अब यथास्थिति बनाए रखने के पक्ष में नहीं हैं। जनता ने उन कुबेरपतियों, जिनसे मैक्रों घिरे हुए हैं, को साफ संदेश दे दिया है। वैसे भी  मैक्रों को 2027 में राष्ट्रपति पद छोड़ना ही होगा क्योंकि वे अधिकतम कार्यकाल की सीमा पार कर लेंगे।

न्यू पॉपुलर फ्रंट को मतदान के पहले दौर में युवा वर्ग का जबरदस्त समर्थन मिला। और पेरिस अन्य शहरों के आसपास के उन इलाकों में भी, जहां उत्तर अफ्रीकी आप्रवासियों की बड़ी आबादी है। इन इलाकों में जोनिक मिनोशों के फिलस्तीन समर्थक रवैए को हाथों हाथ लिया गया। हालांकि जब यह यहूदी विरोध की हद तक पहुंचता नजर आया, तो इसके प्रति नाराजगी भी उत्पन्न हुई।

फ्रांस के नतीजों से साफ है कि देश दो बराबर भागों में बंटा हुआ है। मैक्रों इन हालातों का सामना कैसे करेंगे, यह देखना दिलचस्प होगा। मैक्रों ने यह कभी नहीं छुपाया है कि वे मिनोशों को बिलकुल पसंद नहीं करते और मिनोशों भी मैक्रों को उतना ही नापसंद करते हैं।

नई संसद में जो तीन गठबंधन मौजूद होंगे, वे सब एक दूसरे के घोषित विरोधी हैं और एक दूसरे पर बिलकुल भरोसा नहीं करते। प्राप्त समाचारों के अनुसार मैक्रों, 33 वर्षीय वर्तमान प्रधानमंत्री गेब्रियल अटल, जिन्होंने कहा है कि वे सोमवार को राष्ट्रपति से अपने इस्तीफे की पेशकश करेंगे, को कामचलाऊ प्रधानमंत्री के रूप में काम करते रहने के लिए कह सकते हैं। और शायद यह कामचलाऊ सरकार 26 जुलाई से शुरू होने वाले पेरिस ओलंपिक खेलों के खत्म होने तक ही नहीं, बल्कि गर्मियों के अंत तक भी सत्ता संभाल सकती है।

फिलहाल तो फ्रांस गर्त में जाने से बच गया है। मगर आगे क्या होगा, इसका अंदाजा लगाना मुश्किल है। भविष्य में उसे ऐसे हालात का सामना करना पड़ सकता, जिनका उसे कोई अनुभव नहीं है।

By श्रुति व्यास

संवाददाता/स्तंभकार/ संपादक नया इंडिया में संवाददता और स्तंभकार। प्रबंध संपादक- www.nayaindia.com राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय राजनीति के समसामयिक विषयों पर रिपोर्टिंग और कॉलम लेखन। स्कॉटलेंड की सेंट एंड्रियूज विश्वविधालय में इंटरनेशनल रिलेशन व मेनेजमेंट के अध्ययन के साथ बीबीसी, दिल्ली आदि में वर्क अनुभव ले पत्रकारिता और भारत की राजनीति की राजनीति में दिलचस्पी से समसामयिक विषयों पर लिखना शुरू किया। लोकसभा तथा विधानसभा चुनावों की ग्राउंड रिपोर्टिंग, यूट्यूब तथा सोशल मीडिया के साथ अंग्रेजी वेबसाइट दिप्रिंट, रिडिफ आदि में लेखन योगदान। लिखने का पसंदीदा विषय लोकसभा-विधानसभा चुनावों को कवर करते हुए लोगों के मूड़, उनमें चरचे-चरखे और जमीनी हकीकत को समझना-बूझना।

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