Cop29 climate summit: क्या हम अपनी पृथ्वी के भविष्य को लेकर गंभीर हैं? एकदम नहीं। जब हर मसले की तरह, विज्ञान और क्लाइमेट चेंज के मसले पर भी राजनीति हावी है, तो गंभीरता के लिए गुंजाइश है ही कहां।
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इसका सुबूत हाल में संपन्न हुआ सीओपी-29 है। अजरबेजान में हुआ सीओपी-29 शुरूआत से ही उलझनों में उलझा दिख रहा था। वह इसलिए क्योंकि पहली बार इस सम्मेलन में रूपये-पैसे से जुड़े मसलों पर चर्चा होनी थी। और वह कठिन थी।
छोटे-छोटे, एक या कुछ द्वीपों से मिलकर बने देशों को यह सम्मेलन समय की बर्बादी लगा। इसलिए उन्होंने इसका बहिष्कार कर दिया। विकासशील देश इस उम्मीद के साथ सम्मेलन में पहुंचे कि किस्मत उन पर मेहरबान होगी।
सम्मेलन दो हफ्ते चला और इस दौरान पूरे समय माहौल तनावपूर्ण और कटु बना रहा। बातचीत से सौहार्द गायब था। सब तमक कर बोल रहे थे। कई दर्जन देशों ने बातचीत के दौरान ही सम्मलेन से तौबा कर ली। (Cop29 climate summit)
फिर भी बातचीत समापन के लिए निर्धारित समय शुक्रवार (22 नवंबर 2024) से 33 घंटे बाद तक जारी रही। अंततः छोटे देशों के नजरिए की उपेक्षा हुई और जो विकसित देश चाहते थे, वही हुआ।
सम्मेलन की शुरूआत में जो उम्मीदें लगाई गई थीं, वे अंतिम समझौते से चूर-चूर हो गई। और जितना किया जाना एकदम जरूरी है, उससे बहुत कम किए जाने पर समझौता हो सका।
राशि लगभग 500 अरब डालर प्रतिवर्ष
विकासशील देशों की 1,300 अरब डालर की मांग की तुलना में समझौते में बहुत कम राशि दी गई। अफ्रीकी प्रतिनिधियों ने धन के प्रावधान को बहुत देर से उठाया गया बहुत छोटा कदम बताया वहीं भारतीय प्रतिनिधि ने इसे ऊंट के मुंह में जीरा कहा।
सम्मेलन के पूर्व, कुछ समृद्ध देशों ने संकेत दिया था कि यह राशि लगभग 500 अरब डालर प्रतिवर्ष हो सकती है; किंतु विकासशील देशों को इससे ज्यादा की उम्मीद थी।
खींचा-तानी चलती रही – और सबसे गरीब देशों के बर्हिगमन के बाद कम से कम 300 अरब डालर पर सहमति बनी। यह राशि कहने को 2009 में तय की गई और अभी दी जा रही 100 अरब डालर की रकम का तीन गुना है।
मगर पिछले 15 सालों की मुद्रास्फीति के मद्देनजर यह वास्तव में उससे केवल दोगुनी है। इसमें से भी ज्यादातर रकम कर्ज के रूप में दी जाएगी, जिससे विकासशील देशों पर कर्जे का बोझ और बढ़ेगा। (Cop29 climate summit)
समृद्ध देशों से लगभग 1,300 अरब डालर
आधिकारिक अनुमानों के अनुसार, विकासशील देशों को प्रतिवर्ष लगभग 2,400 अरब डालर की आवश्यकता होगी। इसमें से आधी रकम की व्यवस्था तो वे स्वयं कर लेंगे और उन्हें समृद्ध देशों से लगभग 1,300 अरब डालर की सहायता की जरूरत होगी।
विकासशील देश अपने हिस्से की ज्यादातर राशि व्यापार और आमदनी के नए स्त्रोतों जैसे विमानन और जहाजरानी पर कर लगाकर जुटाएंगे। बची हुई राशि का अधिकांश हिस्सा समृद्ध देशों की सरकारों को देना होगा।
विकसित देशों ने 2035 तक अधिकतम 250 अरब डालर देने की पेशकश की। यह इसके बावजूद कि ज़रूरी धनराशि का अनुमान लगाने के लिए बनी समिति, जिसे सीक्यूजी कहा जाता है, के अनुसार विकासशील देशों को कम से कम 700 अरब डालर की दरकार होगी।
खबरों के मुताबिक यूरोपियन यूनियन (ज्यादातर दानदाता विकसित राष्ट्र इसी का हिस्स्सा हैं) के प्रतिनिधियों ने 1000 अरब डालर प्रतिवर्ष की मांग को अस्वीकार्य और बहुत अधिक बताया।
हालांकि कुल मिलाकर 1300 अरब डालर पर सहमति बनी मगर इसकी विकासशील देशों और क्लाइमेट चेंज पर जनमत बनाने में जुटे संगठनों ने जम कर आलोचना की।
300 अरब डालर देने का निर्णय पूर्व-निर्धारित
भारत की वार्ताकार चांदनी रैना, जो वित्त मंत्रालय में वित्तीय सलाहकार भी हैं, ने कहा कि 300 अरब डालर देने का निर्णय पूर्व-निर्धारित था। उन्होंने उसे मृग मारीचिका बताया।
जलवायु परिवर्तन के संबंध में पनामा के विशेष प्रतिनिधि जुआन कार्लोस मोनटेरेरी गोमेज ने भी लक्ष्य निर्धारण की प्रक्रिया पर सवाल उठाए। अल्पतम विकसित राष्ट्रों (एलडीसी) के वार्ताकार समूह, जो 45 देशों और 1.10 अरब लोगों का प्रतिनिधित्व करता है, ने कहा कि रविवार को हुए समझौते ने जलवायु प्रबंधन के लिए वित्तीय साधन जुटाने पर तीन साल तक चली वार्ताओं पर पानी फेर दिया।
इसके अलावा, पिछले वर्ष हुए सीओपी में फॉसिल फ्यूल्स (पेट्रोलियम, कोयला आदि) संबंधी ऐतिहासिक समझौते का अनुमोदन न होने से भी निराशा व्याप्त हुई।
फॉसिल फ्यूल्स पर दिए जाने वाले अनुदान को धीरे-धीरे समाप्त करने की प्रतिबद्धता के बावजूद सीओपी-29 इसके लिए समय सीमा और परिभाषाओं का निर्धारण करने में असफल रहा।
वैश्विक स्तर पर इस मद में दिया जाने वाला अनुदान 2022 में 1700 अरब डालर तक पहुंच गया जिससे नवीकरणीय ऊर्जा स्त्रोतों और विकार्बनीकरण को प्रोत्साहन देने के प्रयासों को धक्का लगा।
निर्णायक कार्यवाही न होना यह दिखाता है कि प्रदूषण फ़ैलाने में जो सबसे आगे हैं वे जलवायु परिवर्तन के मूल कारणों की ओर ध्यान देना ही नहीं चाहते।
धरती गर्म , हवा गंदी (Cop29 climate summit)
राष्ट्रपति चुनाव में ट्रम्प की जीत से भी वार्ताओं के दौरान बेचैनी बढ़ी क्योंकि उन्होंने जलवायु संबंधी वैश्विक प्रयासों से अमेरिका के बाहर हो जाने का संकल्प व्यक्त किया है और एक ऐसे व्यक्ति को अपना ऊर्जा मंत्री नियुक्त किया है, जो जलवायु परिवर्तन को मुद्दा मानता ही नहीं है। इसने निराशा के भाव को और गहरा दिया।
कुल मिलकर, दो हफ्ते तक चली बातचीत का क्या मतलब निकला यदि धनी राष्ट्रों ने वह सब हासिल कर लिया जिसकी योजना उन्होंने बनाई थी।
धरती गर्म होती जा रही है, हवा गंदी होती जा रही है लेकिन राजनीति पूरे जोरशोर से जारी है। सीओपी-29 ने अलग-अलग देशों की राजनैतिक एवं आर्थिक प्राथमिकताओं के चलते वैश्विक जलवायु लक्ष्यों को हासिल करने में चुनौतियों को सामने ला दिया।
वित्त प्रबंधन, फॉसिल फ्यूल पर अनुदान और योजनाओं को अमलीजामा पहनाने की रूपरेखा बनाने के लिए निर्णायक कदम उठाने में सम्मेलन का असफल रहना यह दर्शाता है कि सामूहिक इच्छाशक्ति का अभाव है।
हाँ, कुछ मामलों, जैसे कार्बन बाजार और मीथेन न्यूनीकरण रणनीति में प्रगति हुई। मगर सम्मेलन से यह साफ़ हो गया कि हमें अधिक महत्वकांक्षी और जवाबदेह जलवायु नियमन प्रणाली बनानी ही होगी।
सीओपी-29 से एक बार फिर यह साबित हुआ है कि जहां सभी लोग चिंतित हैं और मानते हैं कि कदम उठाना वक्त की ज़रुरत है, लेकिन समृद्ध देशों के और समृद्ध होने की लिप्सा, इन चिंताओं और इस ज़रुरत पर पूरी तरह हावी है। (कॉपी: अमरीश हरदेनिया)