रायपुर। दिल्ली में और प्रदेश की राजधानी रायपुर में भी धारणा है कि छत्तीसगढ़ में मुकाबला एकतरफा है और कांग्रेस को शानदार बहुमत मिलेगा, जो 2018 से बड़ा होगा। यह भरोसा मुख्यमंत्री ने खुद भी जताया था। सीएनबीसी-टीवी18 को दिए अपने साक्षात्कार में उन्होंने बड़े आत्मविश्वास से कहा था कि कांग्रेस (90 में से) 75 सीटें जीतेगी। कांग्रेस के राज्य-स्तरीय नेताओं में65 सीटें जीतने का आम दावा है। लेकिन कांग्रेस के लिए इतनी सुहानी स्थितियां नहीं हैं। आप जैसे ही किसी जानकार, नेता के साथ रायपुर में बैठकर बात करते हैं, या कहीं जाते हैं तो आपको संभाग, जिला, विधानसभा क्षेत्र और उससे भी छोटे स्तर पर मुकाबले का माहौल लगने लगता है।
कांग्रेस और भाजपा के बीच कुछ सीटों पर अन्य की तुलना में ज्यादा कड़ी टक्कर है। यह टक्कर ऐसे मुद्दों पर आधारित है जिन्हें दो श्रेणियों – बड़े और छोटे – में विभाजित किया जा सकता है। यहाँ टक्कर पहचान से जुड़े मुद्दों को लेकर है। मेरी पूर्वधारणाएं रायपुर की मेरी फ्लाइट के दौरान हवा में ही धराशायी हो गईं थीं। और लोगों से मिलने तथा विधानसभा क्षेत्रों में घूमना शुरू करने के 24 घंटे के बाद मैं यह दावे के साथ कह सकती हूँ कि छत्तीसगढ़ में नाटकीय और उतार-चढ़ाव भरा मुकाबला होने जा रहा है।
पहले, बड़े मुद्दों की बात करें, जो अक्सर बार-बार उठाए जाते हैं और जो कांग्रेस को ‘जबरदस्त’ जीत दिलाने वाले मुद्दे हो सकते हैं। लेकिन इसके पहले एक महत्वपूर्ण तथ्य पर विचार करना जरूरी है। पिछले पांच वर्षों में छत्तीसगढ़ के मतदाता दो हिस्सों में बंट चुके हैं – छत्तीसगढ़ी और गैर-छत्तीसगढ़ी। विशुद्ध छत्तीसगढ़ियों में मुख्यमंत्री बघेल जैसे लोग हैं जो किसान हैं, पिछड़ी जातियों से हैं या आदिवासी हैं – मोटे तौर पर वे सभी लोग जो ओबीसी, दलित और आदिवासी वर्ग के हैं। वहीं गैर-छत्तीसगढ़ियों में रमन सिंह जैसे लोग हैं जो या तो बाहरी हैं या ऊंची जातियों के हैं, जो कारखानों और खदानों के मालिक हैं या व्यवसाय करते हैं।
इनमें ‘छत्तीसगढ़ियों’ के लिए पिछले पांच साल सुखद और समृद्धि लाने वाले रहे हैं। आदिवासियों और किसानों पर मुफ्त की सुविधाओं की बौछार हुई और राज्य में एक सुनहरी क्रांति हुई। जैसा कि रायपुर के एक वरिष्ठ पत्रकार ने बताया, छत्तीसगढ़ देश का एकमात्र राज्य है जहां पांच वर्षों में एक भी किसान ने आत्महत्या नहीं की है। लाभार्थियों में सबसे बड़ा और प्रमुख समूह किसानों का है। बघेल सरकार ने अपने 2018 के वायदे पूरे कियेहै। और 18.82 लाख किसानों के 9,270 करोड़ रुपयेके कर्जे माफ किए। ऐसा करके उन्होंने किसानों का दिल जीत लिया। इसके बाद भूमिहीन मजदूरों को आर्थिक सहायता मिली और गोधन न्याय योजना के जरिए किसानों से गोबर खरीदने का प्रावधान किया गया। उसके बाद आई महिलाओं की बारी। पिछले पांच सालों में भूपेश बघेल सरकार ने मितनों और आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं को सशक्त करने के प्रयास किये हैं। उनका मानदेय 5,000 रुपये महिना से बढाकर 10,000 रुपये महिना कर दिया। स्व-सहायता समूहों के कर्जे माफ़ कर दिए गए। महिलाओं के समूहों को तीन प्रतिशत ब्याज डर पर कर्ज दिया गया है।
कुल मिलाकर, भूपेश बघेल ने पिछले पांच सालों में यही कोशिश की है कि पहले तो ‘छत्तीसगढ़ी’ की पहचान बना उससे अपने को जोड़ा। फिर इन्हे ज्यादा से ज्यादा लाभ दे कर नरेंद्र मोदी की ही तर्ज पर प्रदेश में अपनी इमेज की ब्रांडिग बनाई, मार्केटिंग की। छतीसगढ़ी पहचान के साथ लाभार्थियों की कुल संख्या जोड़ी जाए तो ऐसा लगेगा कि कांग्रेस की हार का कोई कारण हो ही नहीं हो सकता।
परन्तु अब कुछ ऐसे छोटे-छोटे मुद्दे हैं जो इस भारी एड़वांटेज पर भारी पड़ते दिख रहे हैं।माइक्रो लेवल के इन छोटी बातों, मुद्दों को चुनाव के शोर-शराबे में नज़रअंदाज़ किया जा रहा है।पर इनसे ज़मीनी गणित गड़बड़ाई दिख रही है। इससे भाजपा को फायदा होना पक्का है। हर सीट पर भाजपा के उम्मीदवार, कांग्रेस के उम्मीदवारों के प्रतिबिम्ब हैं – छत्तीसगढ़ी होने के मामले में, पहचान के मामले में और जाति के मामले में भी। भाजपा भी मुफ्त की सुविधाएँ देने की बात कर रही है, सुनहरी क्रान्ति को और सुनहरा बनाने का वायदा कर रही है। महिलाओं को नियमित नकदी देने की गारंटी दे रही है।
पिछला चुनाव भाजपा ने गफलतों में लड़ा था। तभी भूपेश बघेल बाजी मार ले गए थे लेकिन इस बार भाजपा हर चीज़ में उनके बराबर है। इसके अलावा, भाजपा को कांग्रेस के विधायकों के खिलाफ एंटी-इंकमबेंसी का फायदा भी मिलेगा। मैं यह कतई नहीं कह रही हूँ कि जनता का बघेल से मोहभंग हो गया है या लोग उनसे नाराज़ हैं। यह बात मैंने अपनी कल के रिपोर्ट में भी कही थी। शायद कुछ गैर-छत्तीसगढ़ी उनसे नाराज़ हो सकते हैं मगर उनकी संख्या इतनी नहीं है कि वे नतीजों पर निर्णयात्मक प्रभाव डाल सकें। परन्तु छतीसगढ़ियों के लिए तो वे मसीहा हैं।बावजूद इसके समस्या स्थानीय विधायकों-उम्मीदवार के खिलाफ माहौल और कांग्रेस के भीतर की फूट है। जानकार सुधी पत्रकार बताते हैं कि पिछले 40 कांग्रेस विधायकों का अपने क्षेत्रों में काम बहुत कमज़ोर रहा। इस एंटी इनकंबेसी से निपटने के लिए कांग्रेस ने 22 विधायकों के टिकिट काट है मगर इस पर इतना बवाल हुआ कि बचे 17-18 को टिकट देना ही पड़ा।
कुल मिलाकर छोटे-बड़े मुद्दों के कुल असर के आंकलन से ऐसा लगता है कि समग्र परिदृश्य को ज़मीनी और स्थानीय मसले ज्यादा प्रभावित करेंगे। कांग्रेस शायद फिर से सरकार बना भी ले परन्तु भाजपा बहुत पीछे नहीं रहेगी। और अगर कांग्रेस को नाममात्र का बहुमत मिला तो यह संभावना पक्की है कि अमित शाह भाजपा को सत्ता में बैठाने में सफलता हासिल कर लेंगे।भाजपा को 35 सीटे भी मिल गई तब भी कांग्रेस के लिए मुश्किल होगी। (कॉपी: अमरीश हरदेनिया)