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भूपेश बघेल के लिए क्यों कड़ा मुकाबला?

बिलासपुर। दो दिन पहले मैंने लिखा था कि छत्तीसगढ़ के चुनाव में कांग्रेस को हालांकि बढ़त है, लेकिन मुकाबला कडा है। वह बात पहले दौर का मतदान होने के बाद और पुख्ता हुई है। दरअसल चुनावी रिपोर्टिंग में हर सीट और इसके पीछे की राजनीति का विश्लेषण करना संभव नहीं होता है। मोटे तौर पर माहौल, मूड और गणित के साथ जमीनी बातचीत से राय बना करती है। इस सबके मद्देनजर छतीसगढ़ में भाजपा पिछले पांच सालों की अपनी गलतियों को पकड़ चुनाव लड रही है। इसलिए जहां कांग्रेस के वादों की हौड में उसने लोगों को रेवडियों की गांरटियां दी तो ध्रुवीकरण की राजनीति भी की है। तीसरी बात, भाजपा ने बहुत होशियारी और कुटिलताओं के साथ हर सीट पर असरदार उम्मीदवार चुनाव में उतारे है।

जैसे साजा विधानसभा क्षेत्र को लें। यह दुर्ग नाम की लोकसभा सीट का हिस्सा है और देहाती सीट है। यहां भाजपा ने कांग्रेस के वरिष्ठ नेता रवीन्द्र चौबे के खिलाफ ईश्वर साहू को मैदान में उतारा है। ईश्वर साहू भुवनेश्वर साहू के पिता हैं, जिसकी मौत बेमेतरा जिले के बीरनपुर गांव में अप्रैल में हुए साम्प्रदायिक संघर्ष में हुई थी। भाजपा केईश्वर साहू को चुनाव में उतारने के फैसले से सिर्फ साजा में ही नहीं बल्कि पूरे उत्तरी छत्तीसगढ़ में और साहू लोगों में चर्चा है। मेरे दोनों टैक्सी ड्राईवरों ने साजा और ईश्वर साहू की चर्चा की। एक ने इस बात का ब्यौरा दिया की क्यों साहू लोगों में इसको ले कर चर्चा है।उसने बताया कि बीरनपुर में हुई हिंसा के बाद मुख्यमंत्री तो छोड़िए, कांग्रेस का कोई भी बड़ा नेता या मुख्यमंत्री का नजदीकी, ईश्वर साहू से मिलने नहीं गया।जबकि भाजपा के तमाम नेताओं ने जा कर हिंदू बनाम मुस्लिम भभके को हवा दी। इतना ही नहीं पार्टी से नाता नहीं रखने वाले ईश्वर साहूको फिर उम्मीदवार बनाया। अमित शाह ने उनका मंच से परिचय कराया।

भाजपा द्वारा ईश्वर साहू को टिकट देने के बाद लोगों में अपने आप कांग्रेस के मुस्लिमपरस्त होने के भाजपा के प्रचार को हवा मिली। छत्तीसगढ़ में आम तौर पर सांप्रदायिक वैमनस्य का नैरेटिव नहीं बना होता है लेकिन इस बार राजधानी रायपुर से लेकर दुर्ग में हिंदू-मुस्लिम और बस्तर में ईसाई धर्मांतरण पर चरचे-चरखे है।

रायपुर में महापौर कांग्रेस के मुस्लिम नेता अयाज़ ढेबर है। उनको ले कर कई तरह की चर्चाएं है। चर्चा हैं कि राजधानी के रोजमर्रा के राजनैतिक और सामाजिक मसलों में ढेबर का दखल बहुत अधिक है। उन्हें मुख्यमंत्री का नजदीकी माना जाता है। इससे भी लोगों में भाजपा यह प्रचार करने में कामयाब है कि कांग्रेस मुस्लिमपरस्त पार्टी है।मुख्यमंत्री बघेल को शायद इसका अहसास हुआ तभी उन्होंने रायपुर दक्षिण या उत्तर से ढेबर को उम्मीदवार न बनाने का फैसला किया।

रायपुर से 120 किलोमीटर की दूरी पर कवर्धा है, जो पूर्व मुख्यमंत्री रमन सिंह का गृहनगर है। इसेचुनाव में बाजी पलटने वाली सीट माना जा रहा है। कवर्धा को ‘धर्मनगरी’ कहा जाता है क्योंकि यहां प्रसिद्ध प्राचीन भौरंमदेव मंदिर है।यहां धार्मिक झंडों को लेकर अक्टूबर 2021 में साम्प्रदायिक टकराव हुआ था। हिंसा के बाद नाराज हिंदू संगठनों ने कांग्रेस सरकार के प्रति विरोध व्यक्त किया। यहां भाजपा ने एक स्थानीय नेता विजय शर्मा को उम्मीदवार बनाया है, जिन्हें सन् 2021 में पड़ोस के कबीरधाम जिले में हुई सांप्रदायिक हिंसा के मामले में आरोपी बनाया गया था।उनके आगे कांग्रेस के उम्मीदवार हैं भूपेश बघेल के मंत्रिमंडल के सदस्य मोहम्मद अकबर, जो पार्टी के एकमात्र मुस्लिम उम्मीदवार हैं। अकबर रायपुर के हैं और यहां बाहरी हैं, उन्होंने सन् 2018 में करीब 60,000 वोटों के अंतर यहाँ से सबसे बड़ी जीत हासिल की थी। उन्होंने इस साहू-बहुल सीट पर भाजपा के उम्मीदवार अशोक साहू को हराया था। लेकिन इस बार भाजपा यह कह कर हिंदू-मुस्लिम गोलबंदी करवा रही है कि भाजपा के राज में साम्प्रदायिक ताकते दबी रहती थी। दूसरे शब्दों में भाजपा की सरकार में हिन्दू अधिक सुरक्षित होंगे।

ध्यान देने योग्य बात है कि मुस्लिम, छत्तीसगढ़ की कुल आबादी में सिर्फ दो प्रतिशत हैं। सन् 2018 में कांग्रेस ने इस समुदाय के दो लोगों को उम्मीदवार बनाया था जबकि भाजपा ने एक भी मुस्लिम को टिकट नहीं दिया था।

दक्षिण छत्तीगढ़, आदिवासी बहुल क्षेत्र है, जहां 2018 में भाजपा बुरी तरह हारी थी।2018 के विधानसभा चुनाव में सत्ताधारी कांग्रेस ने आदिवासियों के लिए आरक्षित 29 सीटों में से 25 पर जीत हासिल की थी। दक्षिण छत्तीसगढ़ में 20 आदिवासी सीटें हैं।2018 में यहां कांग्रेस का बोलबाला रहा था और उसने 18 सीटें जीती थीं जबकि भाजपा को केवल दो – दंतेवाड़ा और राजनांदगांव – में जीत से संतोष करना पड़ा था। बाद में हुए उपचुनाव में कांग्रेस ने दंतेवाड़ा सीट भी जीत ली थी। इस बार कांग्रेस अपनी सरकार की आदिवासी कल्याण योजनाओं की बदौलत पिछली बार से भी ज्यादा सीटें हासिल करने की उम्मीद कर रही है। लेकिन भाजपा मतदाताओं के एक तबके को अपनी ओर खींचने में कामयाब होती लगती है।

इसलिए क्योंकि हिंदू सगंठनों ने हिन्दू बनाम ईसाई आदिवासियों का झगड़ा मुखर बनवा दिया है। आरोप है कि राज्य के नारायणपुर और कोंडागांव जिलों में धर्मपरिवर्तन कर ईसाई बने आदिवासियों पर हिन्दू आदिवासियों ने हमले किए, जिससे सैकड़ों ईसाई आदिवासी अपने गांवों के निवास छोड़कर भागने को मजबूर हुए। चर्चों में तोड़फोड़ की गई। स्थानीय पत्रकारों के मुताबिक, ईसाई आदिवासियों को अपने मृतकों को उनकी स्वयं की भूमि या कब्रिस्तान में दफन करने की अनुमति भी नहीं दी गई।

इस तरह की छोटी-बडी बातों से भाजपा ने अपनी जमीन बनाई है। कांग्रेस का कहना है कि भाजपा ने चुनाव की तैयारी में ही हिंसा के बीज बोएं, हल्ला बनाया।  जबकि भाजपा के नेताओं की माने तो हिंसक घटनाएं‘स्वस्फूर्त’ है। इसके अलावा आदिवासी-बहुल बस्तर और सरगुजा संभागों में सरकारी नौकरियों में भर्ती में आदिवासियों को प्राथमिकता देने का पहले प्रावधान था। लेकिन 2018 के बाद कांग्रेस ने इसे खत्म कर दिया। इसे ले कर भी भाजपा ने आदिवासी राजनीति की है।

माहौल में वादों की गारंटी, सांप्रदायिकता और आदिवासी राजनीति के अलावा भाजपा के द्वारा ठोक बजाकर उतारे गए उम्मीदवारों से भी नतीजे प्रभावित रहेंगे। आदिवासियों के लिए आरक्षित सीटों पर भाजपा के प्रमुख उम्मीदवारों में छह पूर्व राज्यमंत्री, एक वर्तमान विधानसभा सदस्य, दो लोकसभा सदस्य (इनमें से एक केन्द्रीय मंत्री हैं), एक पूर्व केन्द्रीय मंत्री, छह पूर्व विधायक और एक पूर्व आईएएस अधिकारी भी हैं (जिन्होंने हाल में नौकरी से इस्तीफा देकर भाजपा की सदस्यता ग्रहण की)।

इसके अलावा शहरी सीटों का अलग फेक्टर हैं। रायपुर में 4, दुर्ग में 3, राजनांदगाव, बिलासपुर, जगदलपुर और अंबिकापुर मतलब कुल 11 शहरी सीटे बनती है। इनमें परंपरागत रूप से भाजपा समर्थक मतदाताओं का बाहुल्य है। और इनमें छत्तीसगढ़ में बढ़ते हिन्दू नैरेटिव से भाजपा का जोर बना ही रहेगा।

कुल मिलाकर शहर और कस्बों की खोजखबर औरअलग-अलग वर्गों व छत्तसीगढ़ी बनाम गैर-छत्तीसगढ़ी वर्गों में बनी राय के बाद मोटामोटी लगता है कि मुकाबला बघेल बनाम मोदी में ही नहीं है बल्कि बघेल बनाम भाजपा की हिंदू राजनीति और हर सीट केभाजपा उम्मीदवार में है।कांग्रेस में बघेल का अकेला चेहरा है। उनकी धान और किसान राजनीति है वही उनके सामने मोदी, हिंदुत्व और हर सीटे पर भाजपा के साधन-सम्पन्न उम्मीदवारों का खम ठोंक चुनाव लड़ना हैं। बघेल हिन्दुत्व का मुकाबला अपनी सॉफ्ट इमेज, साफ्ट-हिन्दुत्व से कर रहे हैं। बघेल ध्रुवीकरण का मुकाबला मुफ्त दी जाने वाली चीजों से कर रहे हैं। बघेल धर्मांतरण का मुकाबला छत्तीसगढ़िया के मुद्दे से कर रहे हैं। बघेल भाजपा के बुद्धिमानी और कुटिलता से चुने गए सभी उम्मीदवारों से अकेले मुकाबला कर रहे हैं। बघेल भाजपा के उस व्यापक नैरेटिव से मुकाबला कर रहे हैं जिसे छत्तीसगढ़ में चुपचाप स्वीकार्यता और मान्यता मिलती दिख रही है।छतीसगढ़ में कांग्रेस एक राष्ट्रीय दल की तरह चुनाव नहीं लड़ रही है बल्कि वह एक क्षेत्रीय दल और उसके क्षत्रप की कमान में चुनाव लड़ती दिख रही है जिसका मुकाबला भाजपा की राष्ट्रीय मशीनरी और तंत्र से है।

भाजपा ने सांप्रदायिक दृष्टि से संवेदनशील क्षेत्रों में चुपचाप काम किया है, हिंदुत्व को बढ़ावा दिया है और निःसंदेह उसे उसके सशक्त कॉडर का भी फायदा मिल रहा है। आखिरकार अमित शाह को केवल 35 सीटों की जरूरत है जबकि भूपेश बघेल को छत्तीसगढ़ पर अपनी मजबूत पकड़ कायम रखने, कांग्रेस को मजबूती से सत्ता में लौटाने के लिए कम से कम 60 सीटे चाहिए होंगीं। (कॉपी: अमरीश हरदेनिया)

By श्रुति व्यास

संवाददाता/स्तंभकार/ संपादक नया इंडिया में संवाददता और स्तंभकार। प्रबंध संपादक- www.nayaindia.com राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय राजनीति के समसामयिक विषयों पर रिपोर्टिंग और कॉलम लेखन। स्कॉटलेंड की सेंट एंड्रियूज विश्वविधालय में इंटरनेशनल रिलेशन व मेनेजमेंट के अध्ययन के साथ बीबीसी, दिल्ली आदि में वर्क अनुभव ले पत्रकारिता और भारत की राजनीति की राजनीति में दिलचस्पी से समसामयिक विषयों पर लिखना शुरू किया। लोकसभा तथा विधानसभा चुनावों की ग्राउंड रिपोर्टिंग, यूट्यूब तथा सोशल मीडिया के साथ अंग्रेजी वेबसाइट दिप्रिंट, रिडिफ आदि में लेखन योगदान। लिखने का पसंदीदा विषय लोकसभा-विधानसभा चुनावों को कवर करते हुए लोगों के मूड़, उनमें चरचे-चरखे और जमीनी हकीकत को समझना-बूझना।

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