नालंदा (बिहार)। नालंदा नीतीश कुमार का अभेद्य किला है। यहाँ जनता उन्हें ही पसंद करती है। सन 1996 से लेकर अब तक उन्हें नालंदा से कोई हरा नहीं पाया है। वे जिस भी वक्त जिस भी पार्टी में रहे, उस वक्त वही पार्टी नालंदा से जीती। अगर नालंदा रोम है, तो नीतीश बाबू उसके पोप हैं।
अब, चूँकि नालंदा मुख्यमंत्री का गृह जिला है इसलिए इस क्षेत्र को विकास की गंगा भला कैसे अछूता छोड़ सकती थी? नालंदा में खूब विकास हुआ है। नीतीश कुमार के आशीर्वाद और उनकी गुडविल के सहारे जद(यू) के कौशलेन्द्र कुमार यहाँ से पिछले तीन लोकसभा चुनाव जीत चुके हैं। इस बार फिर वे मैदान में हैं मगर इस बार किस्मत उनका साथ देगी या नहीं, यह कहना मुश्किल है।
अपने गृहजिले में नीतीश अब ‘दलबदलू चाचा’ कहे जाने लगे हैं। साथ ही लोग उनका चेहरा देखते-देखते थक गए हैं। इसके अलावा, नालंदा की जनता अब इस क्षेत्र से बाहर, पूरे बिहार के मूड को भी देख-भांप रही है।
बिलारी में मेरी मुलाकात परमजीत कुमार और उनके दोस्त अमित से हुई। दोनों नालंदा विश्वविद्यालय से बी.कॉम कर रहे हैं और दोनों फर्स्ट-टाइम वोटर हैं। उनकी मुख्य चिंता है रोज़गार। परमजीत कहते हैं, “न बिहार में जॉब है न देश में जॉब है।” उनकी आवाज़ में चिंता है और उन्होंने यह तय कर लिया है कि वे किसे वोट देंगे। उनके दोस्त अमित का भी मानना है कि बदलाव का वक्त आ गया है। मगर 34 साल के चौहान बीच में कूद पड़ते हैं। “यहाँ से तो नीतीश कुमार ही जीतेंगे,” वे घोषणा करते हैं। दोनों दोस्त चुप हो जाते हैं। चौहान आगे बताते हैं, “लालू यादव का गुंडा राज था।” और फिर वे तफसील से समझाते हैं कि लालू के दौर में बिहार किस-किस चीज़ के लिए कुख्यात था। परमजीत हिम्मत जुटा कर उन्हें रोकते हुए कहता हैं, “बाप ऐसा था मतलब नहीं कि बेटा (भी वैसा ही) होगा”।
बातचीत अब जॉब से हटकर नीतीश कुमार बनाम तेजस्वी यादव पर पहुँच गयी है। नीतीश कुमार के उन वायदों की चर्चा हुई जो अब भी केवल वायदे बने हुए हैं। फिर तेजस्वी द्वारा जगाई गईं रोज़गार और विकास की उम्मीदों पर बात हुई। अंत में पप्पू, जो अब तक चुपचाप सबकी बातें सुन रहे थे, ने अपना फैसला सुनाया – “तेजस्वी को चांस मिलना चाहिए”।
अभिजीत कुमार 26 साल के हैं और बडगांव, जहाँ नालंदा विश्वविद्यालय के भग्नावेश हैं, में ऑटो चलाते हैं। पप्पू की तरह वे भी मानते हैं कि तेजस्वी को मौका मिलना चाहिए। “और नीतीश कुमार का क्या?” मैं पूछतीं हूँ। उनका उत्तर मजेदार है – “चीफ मिनिस्टर कभी बदला नहीं, बस पक्ष-विपक्ष बदलता रहा।” अशोक भोड़वास इस टिप्पणी पर हँसते है और नीतीश को ‘दलबदलू चाचा’ बताते हैं। अशोक मूलतः त्रिपुरा के हैं मगर वे बिहार के बारे में पूरे विश्वास से भविष्यवाणी करते हैं: “हवा अबकी बार तेजस्वी की ज्यादा है।”
“फिर प्राइम मिनिस्टर कौन बनेगा?” मैं पूछती हूँ। इसका कोई जवाब नहीं आता। हाँ, कुछ लोग महंगाई, जीएसटी, आम आदमी की परेशानियों और बेरोज़गारी की बात ज़रूर करते हैं – वे वही मुद्दे हैं जो देश में कई जगह सुने जा सकते हैं।
बाईस साल के सुमंगलम से मेरा प्रश्न है, “तो तुम जाति पर वोट नहीं देते अब?”
“जाति से जॉब तो नहीं मिलेगा,” वे जवाब देते हैं। और फिर कुछ सोचकर कहते हैं, “मेरी पार्टी के नेता ने तय कर दिया है कि मुझे किसे वोट देना चाहिए। मगर अलायन्स ऐसा बना है कि मन ही नहीं कर रहा।”
बिहार में प्रवेश करने के बाद से ही मुझे समझ आ गया कि इस बार जनता तेजस्वी यादव को मौका देने के मूड में है। अगर नीतीश कुमार के गृह जिले नालंदा में ही युवा बदलाव की बात कर रहे हैं और तेजस्वी को इस बदलाव का सूत्रधार मान रहे हैं तो शेष स्थानों की स्थिति की कल्पना की जा सकती है। हालाँकि यह भी हो सकता है कि अंत में सारी बात जाति पर आकर टिक जाए। बिहार जाति के आधार पर वोट देने के लिए कुख्यात है। स्थानीय पत्रकार, जिनमें से कई युवा और नए हैं, कहते हैं कि बिहार में जाति पहले आती है और मुद्दे बाद में।
मगर नालंदा का मूड देखकर तो ऐसा लगता है कि नीतीश बाबू के सन्यास का वक्त नज़दीक है और यह भी कि तेजस्वी का तेज मोदी की चमक को फीका कर रहा है (कॉपी: अमरीश हरदेनिया)